नागालैंड में सुरक्षा बलों द्वारा 8 कोयला खदान श्रमिकों सहित 15 लोगों की हत्या

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अफस्पा हटाओं की मांग ने पकड़ी तेज़ी

एक दर्दनाक घटना में 4 दिसंबर को नागालैंड के तिरु कोयला खदान से काम कर के मेटाडोर में वापस लौट रहे मज़दूरों पर सुरक्षा बल की 21 पैरा स्पेशल फ़ोर्स ने दिन दहाड़े गोली बारी शुरू कर दी। 6 मज़दूर मौके पर ही मारे गए और 2 गंभीर रूप से ज़ख़्मी हुए। अब तक सिलसिले में 15 लोगों की मौत हो चुकी है।

घटना पर सफाई देते हुए होम मिनिस्टर अमित शाह ने कहा कि इलाके में उग्रवादियों की मौजूदगी की खबर मिली थी और इसलिए सुरक्षा बल वहां हमला करने की तैयारी में खड़ी थी। गाड़ी आते देख उन्होंने हमला कर दिया और गलत पहचान करने के कारण मज़दूरों को मार बैठे।

बहरहाल, गोली की आवाज़ सुन कर वहां पहुंचे गाँव वालों पर सुरक्षा बलों ने फिर एक बार गोलियां चलायीं, जिसके बाद लोगों के बढ़ते गुस्से के आगे सुरक्षा कर्मियों को वहां से भाग निकलना पड़ा। 4 दिसंबर को कुल मिला कर 13 गाँव वालों की मौत हुई और कई घायल हुए।

अगले दिन, 5 दिसंबर को मोन शहर में 13 मृतकों के लिए सामूहिक श्राद्ध सभा का आयोजन था। लेकिन विभिन्न कारणों से कार्यक्रम स्थगित कर के अगले दिन करने का फैसला लिया गया और इसकी कोई साफ़ घोषणा नहीं की गयी। इससे फैले कोलाहल में 6-700 लोगों की भीड़ इकठा हो कर पहले जिला अस्पताल, स्थानीय समुदाय कोंयक यूनियन ऑफिस और फिर 27वें असम राइफल्स के शिविर तक जा पहुंची और उसपर पत्थर फेंकने लगी। प्रतिक्रिया में सुरक्षा बल ने फिर एक बार गोलियों का सहारा लिया जिसमें एक व्यक्ति की मौत हुई और 6 गोली से ज़ख़्मी हुए।

क्यों मारे गए यह बेक़सूर मज़दूर? एक संक्षिप्त पृष्ठभूमि

खबर एकाएक सुनने से अविश्वसनीय लगती है की इस तरह निहत्ते मज़दूरों पर सुरक्षा बल दिन दहाड़े किसी चेतावनी के बिना हमला कर सकती है, पर अगर नागालैंड और अन्य उत्तर पुर्वी राज्यों के माहौल को देखें तो यह असामान्य नहीं है। विभिन्न जनजातियों, आदिवासी समुदायों का बसेरा, व प्राकृतिक संसाधनों का बहुमूल्य खज़ाना होने के कारण भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों को लगातार देश के अन्दर ही एक एक प्रकार का लूट और शोषण सहना पड़ा है, जहाँ एक ओर यहाँ के संसाधनों को देशी-विदेशी पूंजीपतियों ने लूटा है और दूसरी ओर जनता के बड़े हिस्से को गरीबी, पिछड़ेपन, सांस्कृतिक अलगाव और भेदभाव का सामना करना पड़ा है। इन हालातों ने यहाँ कई उग्रवादी गुटों व विच्छिन्नता आंदोलनों को जन्म दिया है। इसी के साथ इस समस्या का जनतांत्रिक समाधान ढूँढने की बजाए कमोबेश सभी केंद्र सरकारों ने यहाँ दमन का इस्तेमाल करके “शांति” बनाए रखने की कोशिश की है। नतीजन यहाँ कई दशकों से बड़ी संख्या में सेना तैनात रही है। यहाँ आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट (अफस्पा) 1958 जैसे कानूनों के तहत सुरक्षा बालों को मात्र शक के बिनाह पर किसी पर गोली चलाने की छूट है। सुरक्षा बालों द्वारा अपनी शक्तियों के नाजायज़ इस्तेमाल पर उनके ख़िलाफ़ स्थानीय पुलिस या न्यायलय कार्यवाही नहीं कर सकते, और “न्याय” की पूरी प्रक्रिया सेना के अन्दर अपारदर्शी तरीके से चलाई जाती है। इसलिए सैनिक व अर्किधसैनिक बलों के किसी भी गलत व्यवहार पर कोई रोकटोक नहीं है। बेगुनाहों की हत्या के अतिरिक्त, लोगों का गायब किया जाना, महिलाओं के साथ यौन हिंसा इत्यादि भी यहाँ आम रहे हैं।

क्या मिलेगा मृतकों को न्याय?

जहाँ कुल मारे गए लोगों में से 6 मज़दूर तथाकथित “गलत पहचान” के कारण मारे गए, अन्य 9 मृतक व कई ज़ख़्मी लोग सुरक्षा बलों की निहत्ते लोगों पर गोलीबारी और प्रदर्शनकारियों पर चलायी गयी गोली के शिकार हुए हैं। साथ ही, यह सवाल भी उठ रहा है कि जब सरकार नागालैंड के उग्रवादी गुट के साथ 2015 से शान्तिवार्ता चला रही है तो इस हमले के पीछे क्या कारण हैं।

भाजपा के साथ गठबंधन में रहने के बावजूद नागालैंड के मुख्य मंत्री नेफु रिओ, और मेघायल के मुख्य मंत्री कौनराड संगमा दोनों ने ही घटना की प्रतिक्रिया में उत्तर पूर्व से अफस्पा हटाए जाने की मांग उठायी है। वहीँ नागालैंड की पुलिस ने शुरक्षा कर्मियों के ख़िलाफ़ हत्या का मुकद्दमा दर्ज किया है। सेना ने घटना को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए अपनी आंतरिक कार्यवाही के लिए कोर्ट बैठाई है। इन संस्थाओं के अतिरिक्त उत्तर पूर्व की जनता और देश के शांतिप्रिय नागरिकों के लिए यह घटना बेहद परेशान करने वाली है। नागालैंड और मेघालय में 4-5 दिसंबर को काले दिवस के रूप में याद रखने का फैसला भी हुआ है और इस दौरान आने वाले त्योहारों का आयोजन स्थगित कर दिया गया है।

हालांकि अफस्पा हटाए जाने की मांग जनता में कई दशकों पुरानी है और इरोम शर्मीला से लेकर विभिन्न दलों ने इसे उठाया है, राज्यों के चुने गए मुख्य मंत्रियों द्वारा यह मांग उठाया जाना एक नयी बात है। यह केंद्रीय शासन के निरंकुश रवैय्ये के ख़िलाफ़ क्षेत्र में बन रहे मत की एक झलक है। किन्तु यह स्पष्ट है कि परिस्थियों में परिवर्तन ना होने तक क्षेत्र की आम मेहनतकश जनता ऐसे खतरों और नाइंसाफी की शिकार होती रहेगी।