अब ज़िंदगी के कीमती 12 साल का हिसाब कौन देगा?
गुजरात पुलिस द्वारा आतंक के फर्जी आरोपों में गिरफ्तार किए जाने के करीब साढ़े ग्यारह साल बाद वडोदरा की एक अदालत ने कंप्यूटर पेशेवर बशीर अहमद बाबा को बेगुनाह साबित किया। तबतक बाबा के कीमती 12 साल जेल, फर्जी आरोपों के बचाव में ही खत्म हो गए। वे गुजरात में एक कैंसर कैंप में हिस्सा लेने गए थे, लेकिन गिरफ्तार कर उनपर खतरनाक यूएपीए की धारा भी थोपी गई थी।
13 मार्च, 2010 को गिरफ्तार किए गए 43 वर्षीय बाबा 23 जून को श्रीनगर के रैनावाड़ी में अपने घर पहुंचे। उनपर गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत मुकदमा चल रहा था।
ज्ञात हो कि मार्च 2010 में गुजरात एटीएस ने 43 वर्षीय एनजीओ कर्मी बशीर अहमद बाबा को आणंद से गिरफ़्तार किया था। वे गुजरात में चार दिन के एक कैंसर कैंप में हिस्सा लेने गए थे, लेकिन उनको खतरनाक आतंकी बताकर एक हॉस्टल से उठा लिया गया और मीडिया में चटकदार खबर के रूप में पेश किया गया।

एटीएस ने उन पर कथित रूप से आतंकी नेटवर्क स्थापित करने और 2002 के दंगों से नाराज़ मुस्लिम युवाओं को हिजबुल मुजाहिदीन के लिए भर्ती करने के लिए राज्य में रेकी करने का आरोप लगाया था। उनपर फोन और ईमेल से हिजबुल प्रमुख सैयद सलाहुद्दीन और बिलाल अहमद शेरा के संपर्क में रहने का आरोप लगाया था।
19 जून को अदालत ने बचाव पक्ष के इस तर्क को बरकरार रखा कि बाबा कैंसर के बाद की देखभाल पर चार दिवसीय शिविर में भाग लेने के लिए गुजरात का दौरा कर रहे थे, ताकि किमाया फाउंडेशन के माध्यम से घाटी में रोगियों को ऐसी सेवाएं प्रदान की जा सकें, जिनमें से वह एक हिस्सा थे।
गुजरात एटीएस ने बाबा को आणंद से गिरफ्तार किया था और उन पर एक आतंकी नेटवर्क स्थापित करने और 2002 के दंगों से नाराज मुस्लिम युवाओं को हिजबुल मुजाहिदीन के लिए भर्ती करने के लिए राज्य में रेकी करने का आरोप लगाया था।
आणंद जिला न्यायालय के चौथे अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश एसए नाकुम ने 87 पन्नों के फैसले में कहा, ‘आरोपी के खिलाफ आरोप कि वह गुजरात में रुका था और 13 मार्च को आणंद में पाया गया था और गुजरात में आतंकवादी नेटवर्क स्थापित करने के लिए उसे वित्तीय सहायता मिली थी, पर्याप्त साबित नहीं हुआ, न ही यह साबित करने के लिए कोई सबूत पेश किया गया है कि उसने इस तरह के लाभ प्राप्त किए या एक आतंकी मॉड्यूल स्थापित किया. अभियोजन पक्ष स्पष्ट रूप से आरोपी के खिलाफ आरोप साबित करने में विफल रहा है। अभियोजन पक्ष यह साबित करने के लिए कोई सबूत स्थापित करने में भी विफल रहा है कि वह हिजबुल मुजाहिदीन के वांछित कमांडरों के संपर्क में था।‘
जेल में रहते हुए उन्होंने राजनीति और लोक प्रशासन में मास्टर्स डिग्री पूरी कर ली है।

अंग्रेजी अखबार द इंडियन एक्सप्रेस को बाबा ने बताया कि वह यह सोचकर कश्मीर से निकले थे कि 15 दिन की ट्रेनिंग पूरी करके घर वापस आ जाएंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
अपने वकीलों को मुफ्त में अपना केस लड़ने के लिए धन्यवाद देते हुए बाबा कहते हैं कि उन्हें हमेशा इस बात का पछतावा रहेगा कि उनके पिता उन्हें घर आने पर नहीं देख पाए, जिनकी 2017 में कैंसर से मौत हो गई थी।
सत्ताधारियों, विशेष रूप से भाजपा सरकारों का यह बेहद घटिया खेल बन चुका है कि अपने विरोधियों और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को फर्जी आरोपों में गिरफ्तार करो, तमाम तरीके की यतानाएं दो, वर्षों जेल की कलकोठरियों में सड़ा दो। बाद में बेगुनाही साबित होने तक उस शख्स कि ज़िंदगी के महत्वपूर्ण साल खत्म हो चुके होते हैं। इस दौरान उसका परिवार बेहद मानसिक, सामाजिक और आर्थिक संकटों को झेल रहा होता है।
यह एक अहम सवाल है कि ज़िंदगी के कीमती 10-12 साल वापस कैसे आएंगे? इसकी कोई क्षतिपूर्ति होगी? क्या फर्जी मुकदमा ठोंकने वालों पर भी कोई कार्रवाई संभव है? जाहीर है कि इस निजाम में ऐसा कुछ होने वाला न था न संभव है।