पर्यावरण और मेहनतकश जनता की मूक फैलती तबाही का एक प्रतीक पृष्ठभूमि वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र 1960 के दशक के अंत और 70 के दशक की शुरुआत में उभरा, जब 1962 में दिल्ली के लिए पहला मास्टर प्लान बनाया गया और यहाँ इलेक्ट्रॉनिक्स के लिए उद्योगों और वाणिज्यिक क्षेत्र की स्थापना की गयी। वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र को MN श्रेणी क्षेत्र माना गया जो लघु औद्योगिक इकाइयों के लिए चिन्हित की गयी थी। समय के साथ, यह यूपी, राजस्थान और बिहार के कई प्रवासियों का बसेरा बन गया। यह उस समय दिल्ली शहर में प्रवासियों की सबसे बड़ी आबादी थी। जब आपातकाल के दौरान दिल्ली में झुग्गियों को ध्वस्त किया गया तो वज़ीरपुर ने कई ऐसे लोगों को पनाह दी जिन्हें शकूरबस्ती या वज़ीरपुर जेजे क्लस्टर में जमीन नहीं मिली। आज वजीरपुर में हजारों घर, और औद्योगिक इकाइयों में काम कर रहे लाखों श्रमिक रहते हैं। इतने सालों के इतिहास के बावजूद भी राज्य की नज़र में वज़ीरपुर क्षेत्र के बसेरे पूरी तरह 'वैधता' के दायरे में नहीं आ सके हैं। बार-बार, डीडीए और रेल अधिकारी वहां के निवासियों को बेदखली नोटिस देते हैं, जबकि कई के पास वोटर आईडी, बिजली के बिल जैसे कानूनी दस्तावेज भी हैं, जिसमें उनका पता वजीरपुर दर्ज़ है। आज, अपनी स्थापना से लगभग 50 साल बाद, वज़ीरपुर में स्थिति काफी बदल गई है। जैसे जैसे राज्य एजेंसियां मास्टर प्लान 2021 के सुझावों को लागू करने के लिए कदम बढ़ाते हुए प्रदूषणकारी उद्योगों पर रोक लगाने की पहल ले रही हैं, श्रमिकों का एक बड़ा वर्ग अनिश्चित भविष्य की ओर देख रहा है। वजीरपुर के मज़दूर दिल्ली में कई महत्वपूर्ण श्रमिक आंदोलनों के केंद्र में रहे हैं। 1980 के दशक के शुरूआती सालों में वजीरपुर में हुई हड़तालें दिल्ली में न्यूनतम मजदूरी को उस समय देश में सबसे ऊँचे स्तर तक बढ़ाने के आन्दोलन के लिए महत्वपूर्ण थीं। किन्तु समय के साथ, कई सरकारी नीतियों ने इस वृद्धि को वापस कर दिया। वजीरपुर के श्रमिकों ने 2013-14 में 8 घंटे कार्य दिवस और ईएसआई-पीएफ लाभ के लिए भी संघर्ष किया है। इसके पहले यहाँ के मज़दूरों ने 2012 में बुधवार को साप्ताहिक छुट्टी के लिए संघर्ष किया था, जो पहले उपलब्ध होने के बावजूद 2000 के दशक के शुरुआती सालों में बंद कर दी गयी थीं। पर्यावरण, पूँजी और मेहनतकश जनता – किसकी नज़र से देख रही है सरकार? यमुना और वज़ीरपुर दोनों पिछले 30 वर्षों में जलवायु तबाही के विषय में बढ़ रही चिनता के केंद्र में रहे हैं। छोटे बच्चे, बूढ़े; सभी वज़ीरपुर में अत्यधिक प्रदूषित हवा में सांस लेते हैं। वहां की हवा लगातार एसिड की गंध के साथ मिश्रित होती रही है, जिससे यह खराब और असहनीय हो जाती है। हजारों श्रमिक और उनके परिवार दशकों से इस हवा में सांस ले रहे हैं, और इस औद्योगिक क्षेत्र में बिगड़ती स्वास्थ्य स्थितियों के बारे में वास्तव में किसी ने भी ध्यान नहीं दिया है। यहाँ के वासियों को धुआं और एसिड भरी सांस ही मिलती है, और वे शायद ही कभी साफ़ हवा में सांस ले पाते हैं। मास्टर प्लान 2021 ने प्रदूषणकारी उद्योगों को शहर से बाहर निकालने का सख्त प्रस्ताव दिया है। यमुना नदी को प्रदूषित करने वाले उद्योगों को बंद करने के आह्वान को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की नोटिस से भी जोड़ा जा रहा है। इसका अर्थ है कि वज़ीरपुर से निकलने वाली स्टील पर तेज़ाब का काम करने वाली इकाइयों में छापे और तालाबंदी हो रहीं हैं। वज़ीरपुर मुख्यतः 20 या अधिक स्टील रोला इकाइयों के लिए जान जाता है, तेज़ाब का काम करने वाली इकाइयाँ स्टील की उत्पादन श्रृंखला के लिए अनिवार्य होती हैं। यह वजीरपुर के रोले के साथ-साथ बर्तनों और छोटे पुर्जों के उद्योगों से भी जुड़ी हैं। स्थानीय सूत्रों का कहना है कि वहां काम में 30% की कमी आई है, जिससे अंदेशा लगाया जा सकता है कि ले-ऑफ और छंटनी की संख्या भी बढ़ गई है। अब किसी भी समय राष्ट्रीय हरित ट्रिब्यूनल का अंतिम फैसला आने की उम्मीद है। किन्तु इस फैसले का लोगों के जीवन पर बड़ा असर पड़ेगा। आज, दुनिया भर के समूह जलवायु संकट की घोषणा कर रहे हैं और यह एक स्वागत योग्य बदलाव है। किन्तु ऐसा क्यों है कि जलवायु विनाश और जलवायु सुरक्षा की सारी नीतियों का नुक्सान झेलने वाले अंत में गरीब जनता ही होती है? क्या शहर के अंदर उद्योगों को स्थापित करने व उनपर सही निगरानी नहीं रखने के लिए प्रशासन व राज्य एजेंसियों को सज़ा नहीं दी जानी चाहिए? उद्योगों की बेलगाम वृद्धि इस प्रदूषण का प्राथमिक कारण थी। इसका मुख्य आधार था मालिकों और स्थानीय अधिकारियों के बीच का भ्रष्टाचार। तो अचानक श्रमिक ऐसी नीतियों का खामियाजा क्यों भुगत रहे हैं? अधिकांश कंपनियों के पास कोई पर्यावरण मंजूरी प्रमाण पत्र नहीं है और स्थापना के समय से वह इस तरह से काम कर रहे हैं। आज मोदी और अमित शाह को इन नियमों को लागू करने के लिए उनके साहसिक कदमों के लिए सराहना मिल रही है। लेकिन यमुना नदी की पवित्रता की रक्षा करने के नाम पर भाजपा के हिंदुत्ववादी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए मेहनतकश जनता पर 'बलिदान और पीड़ा' का बोझ क्यों डाला जा रहा है? जब जीडी अग्रवाल ने गंगा नदी के संरक्षण के लिए 15 सप्ताह तक उपवास किया, तब मोदी ने वास्तव में परवाह नहीं की। पर्यावरण और रोज़गार का धूमिल भविष्य स्टील पर तेज़ाब का काम करने वाली इकाइयों के बंद होने के अलावा, अर्थव्यवस्था में मंदी के कारण यहाँ दैनिक उत्पादन में गिरावट भी हुई है, जिसके कारण क्षेत्र में श्रमिकों पर ले-ऑफ और मनमानी छुट्टियाँ थोपी जा रही हैं। वजीरपुर जैसे औद्योगिक क्षेत्र पूरी तरह से अनियमित हैं, और यहां कोई भी श्रम कानून लागू नहीं हो रहे हैं। अधिकांश श्रमिकों को यहां महीने में एक बार तनख्वाह दी जाती है, और महीने में लगभग 15 दिनों के लिए ही मिल पा रहा है। भले ही कारखाने नियमित रूप से चल रहे हों, श्रमिकों कि ड्यूटी पूरे महीने या आधे महीने के लिए बंद रखा जा रहा है। हर साल की तरह इस साल भी दिवाली के दौरान उपहार और बोनस देने की ज़िम्मेदारी से पलड़ा झाड़ने की कोशिश में पिछले महीने इस क्षेत्र में कई मज़दूरों की छुट्टी कर दी गई। एक तरह से, यह दौर विभिन्न पर्यावरण-प्रणालियों के बिखराव का प्रतीक है। औद्योगिक उत्पादन में बड़े पैमाने पर हो रहा बदलाव कई मालिकों को नए क्षेत्रों में पैसे लगाने के लिए तैयार कर रहा हैं, जहां उन्हें नई ज़मीन दी जाएगी। इसी तरह, यह अनुमान लगाया जा रहा है कि वजीरपुर में नए कारखाने स्थापित होंगे। यह किस प्रकार के कारखाने होंगे, यह देखना अभी बाकी है। औद्योगिक श्रमिकों का एक बड़ा हिस्सा एक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। यह आबादी या तो यहां से खदेड़ दी जाएगी और शहर में सेवा क्षेत्र के मज़दूरों की विशाल आबादी में प्रवेश करेगी, या बस युवा पीढ़ी पर निर्भर बेकार घर पर बैठने को मजबूर होगी। यह युवा पीढ़ी भी खुद अंशकालिक नौकरियों और बेरोजगारी कि दोमुही तलवार कि धार तले ज़िन्दगी काटने को मजबूर होगी। अमीरों के जलवायु प्रवचन बखूबी इन वास्तविकताओं से मूंह मोड़ अपना कारोबार बढ़ाते रह सकते हैं। वहीं शहर सर्दियों की धूमिल सुबहों के इंतजार में बैठा हैं।