स्मृति शेष: क्यों जन कवि थे सुरजीत पातर; कुछ बातें और उनकी कुछ कविताएं

Surjit_patar

यह इत्तिफाक़ है कि इस अज़ीम शायर ने 11 मई को अंतिम सांसें लीं जो सआदत हसन ‘मंटो’ का जन्म दिवस है। हिंसा, अन्याय और जुल्म के ख़िलाफ़ उनकी कविताएँ संवेदनशील ढंग से प्रतिरोध व्यक्त करती हैं।

जन कवि, लेखक डॉ. सुरजीत पातर का बीते दिनों दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। यह अजीब इत्तिफाक़ है कि इस अज़ीम शायर ने 11 मई को अंतिम सांसें लीं जो सआदत हसन ‘मंटो’ का जन्म दिवस है। 79 वर्षीय डॉ. सुरजीत पातर पिछले काफी सालों से लुधियाणा रह रहे थे। 

सुरजीत पातर ने अपनी विदाई से वर्षों पहले लिखा था- 
एक लफ़्ज़ विदा लिखना 
एक सुलगता सफ़ा लिखना 
दुखदायी है नाम तेरा 
ख़ुद से जुदा लिखना 
सीने में सुलगता है 
यह गीत ज़रा लिखना 
वरक जल जाएंगे 
क़िस्सा न मिरा लिखना 
सागर की लहरों पे 
मेरे थल का पता लिखना 
एक ज़र्द सफ़े पर 
कोई हर्फ़ हरा लिखना 
मरमर के बुतों को 
आख़िर तो हवा लिखना।

पंजाबी के अज़ीम शायर सुरजीत पातर का जन्म 1945 में पंजाब के जालंधर जिला के गांव पत्तड़ कलां में हुआ। उन्होंने अपना तख़ल्लुस अपने गांव के नाम पर पातर रखा।

गाँव में चौथी और गांव खैहरा मज्जां में दसवीं तक की शिक्षा के बाद उन्होंने रंधीर कालेज कपूरथला से स्नातक, पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला से एमए और फिर गुरु नानक देव विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री ली। इसके बाद उन्होंने पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में प्रोफेसर की जिम्मेदारी निभाई।

1960 में पहले कविता संग्रह ‘हवा विच लिखे हर्फ़’ प्रकाशित होने के साथ ही वह पंजाबी कविता में हरमन और बेहद प्यारे शायर बन गए। उसके बाद उनकी पुस्तकें ‘हनेरे विच सुलगदी वरनमाला’, ‘पतझर दी पाजेब’, ‘लफ़जां दी दरगाह’ और ‘सुरजमीन’, बिरख अर्ज करे,  प्रकाशित हुईं। उन्होंने बहुत सारी पुस्तकों जैसे- फेडेरिको गार्सिया लोर्का की तीन त्रासदियों, गिरीश कर्नाड के नाटक नागमंडला और बर्टोल्ट ब्रेख्त और पाब्लो नेरुदा की कविताओं का पंजाबी में अनुवाद भी किया।

सुरजीत पातर प्रतिरोध, संगीत और संवेदनशीलता की शिखर थे। उनकी कविताओं में जमाने का दर्द बहुत ही शिद्दत से उभरता प्रतीत होता है। उनकी कविता में सत्ता और स्थापित का जो विरोध था वह बहुत प्रमुख रूप से उजागर होता है। हिंसा, अन्याय और जुल्म के ख़िलाफ़ उनकी कविताएँ एक संवेदनशील ढंग से विरोध करती हैं।

उनकी तमाम कविताएँ जन के लिए मुहावरे बन गयीं। उन्होंने अपनी ग़ज़लों और गीतों को ‘तरन्नुम’ में प्रस्तुत किया, अपनी मनमोहक आवाज़ में गाया और सीधे श्रोताओं के दिलों तक पहुंचे। जिससे उनकी कविता आम लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हुई। पंजाब, उसका इतिहास, संस्कृति, असफलताएं, त्रासदियां और जख्मों का भरना ऐसे विषय हैं जो उनकी कविताओं में दोहराए जाते हैं। 

पटियाला में छात्र जीवन में ही वे 1960 के दशक में वामपंथी आंदोलन के नए उभार से प्रभावित और प्रेरित थे। क्रांतिकारी आंदोलन ने उनको पंजाबियत को फिर से देखने और विभाजन को याद करने के लिए प्रेरित किया।

सुरजीत पातर पंजाब कला परिषद के अध्यक्ष थे। वह पंजाबी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष भी रहे थे। 2012 में उन्हें पद्मश्री सम्मान से सम्मानित हुए। इससे पहले वे सरस्वती सम्मान, गंगाधर नेशनल अवार्ड, भारतीय भाषा परिषद कोलकाता सम्मान और साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी पुरस्कृत हुए। उन्होंने कलबुरगी की हत्या के बाद साहित्य अकादमी पुरस्कार और 2020 में दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन के समर्थन में अपना पद्मश्री लौटा दिया था।

पंजाब के मशहूर क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह संधू ‘पाश’ ने सुरजीत पातर को एक पत्र में लिखा था: ‘आपकी कविताएँ पढ़कर, मैंने कई मौकों पर सदमे और उत्तेजना से लेकर डर तक की भावनाओं का एक रोलरकोस्टर अनुभव किया है। निःसंदेह आप हमारे समय के महानतम कवि हैं।’ 

सुरजीत पातर की कुछ कविताएँ-

मैं पहली पंक्ति लिखता हूं 
और डर जाता हूं राजा के सिपाहियों से 
पंक्ति काट देता हूं 
मैं दूसरी पंक्ति लिखता हूं 
और डर जाता हूं बाग़ी गुरिल्लों से 
पंक्ति काट देता हूं 
मैंने अपने प्राणों की ख़ातिर 
अपनी हज़ारों पंक्तियों को 
ऐसे ही क़त्ल किया है 
उन पंक्तियों की आत्माएं 
अक्सर मेरे आसपास ही रहती हैं 
और मुझे कहती हैं: 
कवि साहिब 
कवि हैं या कविता के क़ातिल हैं आप? 
सुने मुंसिफ़ बहुत इंसाफ़ के क़ातिल 
बड़े धर्म के रखवाले 
ख़ुद धर्म की पवित्र आत्मा को 
क़त्ल करते भी सुने थे 
सिर्फ़ यही सुनना बाक़ी था 
कि हमारे वक़्त में ख़ौफ़ के मारे 
कवि भी बन गए 
कविता के हत्यारे।

न्याय व्यवस्था की दुर्दशा जैसे संवेदनशील विषय पर लिखा उनका शेर-

इस अदालत में बंदे वृक्ष हो गए
फैसला सुनते सुनते सूख गए
इनको कहो कि उजड़े घरों में जाएं अब
वह कब तक यहाँ पर खड़े रहेंगे

आया नन्द किशोर

(सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले पूर्वांचली प्रवासी मजदूरों के बच्चे, जो खेत मजदूर के रूप में काम करते हैं, और कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ने वाले संपन्न परिवारों के मूल निवासी बच्चों के विरोधाभास को उजागर करती उनकी शानदार कविता)

पीछे पीछे नौकरी के
आया नन्द किशोर
गाड़ी बैठ सियालदा
साथ में साथी और
रामकली भी साथ थी
सुघड़ लुगाई उसकी
लुधियाने के पास ही
इक गाँव बोड़ेवाल में
जड़ लगी और हुई हरी
रामकली के कोख से
जन्मी बेटी उस कि
नाम रखा माधुरी
कल देखी मैंने माधुरी
उसी गाँव स्कूल में
चोटियाँ बांध के रिबन में
सुंदर फट्टी पोंछ कर
ऊड़ा ऐड़ा लिख रही
ऊड़ा ऐड़ा लिख रही
बेटी नन्द किशोर की
कितना गहरा रिश्ता है
रोज़ी का और शब्द का
इसी गाँव के लाडले
पौत्र अछर सिंह के
अपने बाप की कार में
बैठ आते लुधियाना
कौनवेंट में पढ़ रहे
ए बी सी डी लिख रहे
ए बी सी डी लिख रहे
पौत्र अछर सिंह के
कितना गहरा रिश्ता है
अक्खर और आकांक्षा
पीछे पीछे रिजक के
आया नन्द किशोर…..

मौत के अर्थ

कोई माँ नहीं चाहती
लहू पृथ्वी पर गिरे
हर माँ चाहती है बेटी बेटे
और बढ़ती फूलती फसलें
हर माँ चाहती है
लोहा कोई लाभदायक हथियार बने
लेकिन जब लहू खौलता है
और लोहे को हथियार बना लेता है
और हाँ
कभी माएं
अपने हाथों
बेटों को अणख का युध्ध लड़ने के लिए भेजती हैं
लहू पृथ्वी पर गिरता है
तो पृथ्वी लहू को सोख लेती है
उसे तत्वों में बदल देती है
कुदरत के लिए मौत का अर्थ मौत नहीं
कुदरत के लिए
मौत का अर्थ तत्वों में बदलना
कुदरत के लिए मौत का अर्थ एक और जन्म
लेकिन माँ के लिए
मौत का अर्थ है कोख से जन्मे का
अंतहीन अंधकार में डूब जाना…….

पुल

मैं जिन लोगों के लिए
पुल बन गया था
वे जब मेरे ऊपर से
गुज़र रहे थे
मैंने सुना मेरे बारे में
कह रहे थे

वह कहाँ चला गया
खामोश सा बन्दा
शायद पीछे मुड़ गया है
हमें पहले ही पता था
कि उसमें इतना दम नहीं

जिसे

जिसे तुम बहुत रुलाओगे
वह अंत में हंस पड़ेगा
पागल हो कर

जान से मार दोगे
तो लौट आएगा
प्रेत बन कर

और प्रेत को तुम
कभी मार नहीं सकते….

अल्प गिनती नहीं

अल्प गिनती नहीं
मैं दुनिया की
सब से बड़ी बहु-गिनती के साथ
संबंध रखता हूँ
बहु-गिनती जो उदास है
खामोश है
इतने झरनों के बावजूद प्यासी है
इतनी रौशनी के बावजूद अँधेरे में है….

अंत में श्रद्धांजलि देते हुए उनके ही शब्दों में –

इतिहास तो हर पीढ़ी लिखेगी 
बार-बार पेश होंगे 
मर चुके 
जीवितों की अदालत में 
बार-बार उठाए जाएंगे क़ब्रों से कंकाल 
हार पहनाने के लिए 
कभी फूलों के 
कभी कांटों के 
समय की कोई अंतिम अदालत नहीं 
और इतिहास आख़िरी बार कभी नहीं लिखा जाता… 


सुरजीत पातर का जन्म 1945 को जिला जालंधर में और निधन 11मई 2024
शिक्षा – एमए,.पीएचडी , अवकाश प्राप्त प्राध्यापक
हवा विच लिखे हर्फ़, बिरख अर्ज़ करे, हनेरे विच सुल्घदी वर्णमाला ,ल्फ्ज़ां दी दरगाह ,और अन्य काव्य संग्रह प्रकाशित .
अनेक इनामों से सम्मानित…हनेरे विच सुल्घदी वर्णमाला के लिए साहित्य अकादेमी सम्मान….
लफ़्ज़ों की दरगाह के लिए सरस्वती सम्मान…..
आवास- 46-47, आशा पूरी, अग्गर नगर, लुधियाणा (पंजाब)