मई दिवस : फिर से करना होगा 8 घंटे काम का संघर्ष

मई दिवस का सबक है कि मज़दूर अपनी एकता से कठिन से कठिन परिस्थिति को भी पलट सकते हैं। आज ज़रुरत है कि अनियमित, अस्थायी, असंगठित बड़ी मज़दूर आबादी अपनी निराशा और नाउम्मीदी से निकलकर संगठित हो।
मई दिवस की परंपरा मज़दूर वर्ग के इतिहास का एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। जब सूर्योदय से सूर्यास्त तक बेहद कठिन परिस्थितियों में खटने वाले मज़दूर एकजुट हुए और पहली बार उन्होंने इंसान होने का एहसास कराया। 8 घंटे काम, 8 घंटे आराम, 8 घंटे मनोरंजन के हक़ को एक बड़े आंदोलन के रूप में उपस्थित किया। 1886 की 1 मई को मज़दूरों ने अपना दिन घोषित किया।
इस आन्दोलन पर हुए दमन में चार मज़दूर नेताओं- अल्बर्ट पार्सन्स, अगस्त स्पाईस, एंजेल और फिशर को क्रूर सत्ता ने फांसी दे दी। 1889 में मज़दूरों के दूसरे अंतर्राष्ट्रीय मंच ने इस संघर्ष की याद में 1 मई को मज़दूर दिवस के रूप में मनाने का ऐलान किया। तबसे आज तक दुनियाभर में हर जगह मज़दूर इस दिन को मनाते हैं।
“अगर तुम सोचते हो कि हमें फाँसी पर लटकाकर तुम मज़दूर आन्दोलन को… ग़रीबी और बदहाली में कमरतोड़ मेहनत करनेवाले लाखों लोगों के आन्दोलन को कुचल डालोगे, अगर यही तुम्हारी राय है – तो ख़ुशी से हमें फाँसी दे दो। लेकिन याद रखो … आज तुम एक चिंगारी को कुचल रहे हो लेकिन यहाँ-वहाँ, तुम्हारे पीछे, तुम्हारे सामने, हर ओर लपटें भड़क उठेंगी। यह जंगल की आग है। तुम इसे कभी भी बुझा नहीं पाओगे।”
–मई दिवस के अमर शहीद आगस्ट स्पाईस का अदालत में बयान
137 साल के चढ़ाव-उतार भरी एक लम्बी यात्रा से गुजरते हुए मई दिवस आज एक बेहद मुश्किल समय में उपस्थित है। मेहनतकश-मज़दूर वर्ग के सामने पहले से ही विकट समस्याएं आज भयावह रूप ले चुकी हैं। छँटनी, बंदी, भूख, बेकारी, महँगाई के बीच मानवीय संकट गहरा हो चुका है। एक अनिश्चय का माहौल चारो तरफ व्यप्त है।
आज भारत में मज़दूरों की दशा बद से बदतर हो रही है। बेहद कम तनख्वाह पर मज़दूर 12-14 घंटे काम करके भी अपने परिवार को सम्मानजनक जीवन नहीं दे पा रहे हैं। मज़दूरों के लंबे संघर्षों के दौरान हासिल अधिकारों को छीनने, बलि चढ़ाने का दौर अपने चरम पर है।मोदी सरकार ने मज़दूर अधिकारों पर खुलेआम डकैती डालकर मज़दूरों को बंधुआ बनाने वाली चार श्रम संहिताओं को थोपने की तैयारी पूरी कर ली है।
जनता के खून-पसीने से खड़ी सरकारी संपत्तियाँ व उद्योग मुनाफाखोरों को तेजी से सौंपा जा रहा है। स्वास्थ्य और शिक्षा तक निजी मुनाफ़े का साधन बन गए हैं जिससे मज़दूरों को न्यूनतम सामाजिक अधिकार भी नहीं मिल रहे। बढ़ती बेरोज़गारी में अधिकतर मज़दूर अनियमित कामों में लगे हैं। 8 की जगह 12 घंटा काम, स्थाई की जगह फिक्स्ड टर्म आदि मालिकों को बेलगाम बनाने के हथियार हैं।
एक ओर मोदी सरकार अडानी-अंबानी से भाईचारा निभाने में व्यस्त है। दूसरी ओर धर्म-जाति और क्षेत्र के आधार पर लोगों में नफरत भड़काकर मज़दूरों को बांटने और उनके ध्यान को उनके संकट के असली जड़ों से हटाने का काम तेज़ी से चल रहा है।
सत्ता का दमन बेलगाम हो चुका है। मुनाफ़ाखोरों और निरंकुश सत्ता का नापाक गठजोड़ हर तरीके से मज़दूरों को डराने, खौफ पैदा करने के लिए पहले से ज्यादा मुस्तैदी से उतर पड़ा है।
मई दिवस का इतिहास हमें दिखाता है कि मज़दूर अपनी एकता से कठिन से कठिन परिस्थिति को भी पलट सकते हैं। आज ज़रुरत है कि अनियमित, अस्थायी, असंगठित रोज़गार में फँसी बड़ी मज़दूर आबादी अपनी निराशा और नाउम्मीदी से निकल कर संगठित हो।
“एक समय आयेगा जब हमारी ख़ामोशी उन आवाज़ों से ज़्यादा ताकतवर होगी जिन्हें तुम आज दबा डाल रहे हो।…”
–मई दिवस के अमर शहीद आगस्ट स्पाईस (फांसी के तख्ते से)
आइए, इस व्यवस्था द्वारा मज़दूरों के साथ हो रहे धोखे का पर्दाफाश करें! लेबर कोड, निजीकरण, विकराल महंगाई, बेरोज़गारी व सांप्रदायिक नफरत की राजनीति का विरोध करें। वर्गीय एकजुटता के साथ मज़दूर अधिकार के संघर्ष को आगे बढ़ाएं!
‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका अंक-49 (अप्रैल-जून, 2023) की संपादकीय