वैश्विक उदारीकरण, मुक्त व्यापार समझौते, सरकारी नीतियां, चाइनीज कपड़ों का आयात आदि के साथ बनारसी साड़ियों की मांग घटती गईं। ऊपर से बिजली व धागों की बेसुमर कीमतों से बुनकरों की दुर्दशा बढ़ती गई। भारत का हथकरघा व्यवसाय विश्व के सबसे पुराने और सबसे बड़े व्यवसाय में एक है, जो आज बदहाली के कगार पर है। भारतीय साड़ी का ताजमहल कहा जाने वाला बनारसी साड़ी उद्योग जर्जर हो चुका है। झीनी झीनी बीनी चदरिया वाले संत कबीर के यह पेशा गत भाई असल जिंदगी में चिंदी चिंदी हो गए हैं। चिथड़ों में जीते हुए वे पाई पाई का मोहताज है। गरीबी भुखमरी बेरोजगारी कुपोषण और बढ़ते हुए कर्ज के बोझ तले दबे हुए बुनकर समाज में आज आत्म हत्याओं का दौर जारी है। काफी पुराना है बनारस का बुनकर उद्योग बनारस के बुनकरी उद्योग की चर्चा 600 ईसवी पूर्व से मिलती है। इसके रेशम उद्योग की चर्चा 12वी-14वी शताब्दी में होने लगी थी। बीसवीं शताब्दी तक बनारसी साड़ियों का खूब नाम हो गया। बनारस के बुनकरों के मूल निवास स्थान के बारे में कोई लिखित प्रमाण नहीं है लेकिन यह अपने आपको अरब से हस्तांतरित मानते हैं। साहित्यिक रूप से भी बनारस का अपना महत्व है। संत कबीर की जन्म भूमि के साथ कर्मभूमि भी बनारस रहा है। संत कबीर दास खुद बुनकर परिवार से आते थे और जीवन उपरांत बुनकारी का काम करते रहे। आज उस ऐतिहासिक भूमि बनारस में बुनकरों की संख्या 5 लाख के करीब है, जिनकी दुर्दशा शब्दों में बयान नहीं की जा सकती है। बनारस के 90% से भी अधिक बुनकर मुस्लिम समुदाय से आते हैं। शेष अन्य पिछड़ा वर्ग या फिर दलित है। अलइपुरा, जलाली पूरा, अमरपुर बटोहिया, मदनपुरा, जेतपुरा, रेवड़ी तालाब, लल्लापुरा, सरैया, बजरडीहा, लोहटा, कोटवा, कमनगाडा और दुलीयपुर इलाकों में बुनकरों की आबादी बहुत अधिक है। सरकारी दस्तावेज में यह मोमिन अंसार नाम से दर्ज है। इनके अंदर भी कई वर्ग है। इनकी अपनी जात पंचायत व्यवस्था भी है। बनारस के बुनकर इलाकों में बहुत ही सकरे इलाकों में घर है। रास्ता ना के बराबर है। शिक्षा का स्तर ना के बराबर है। कोई भी हेल्थ सेंटर सुचारु रुप से चालू नहीं है। बनारस में बुनकरों की दशा बनारस के लगभग 90 फीसदी बुनकर ठेके या मजदूरी पर काम करते हैं। इन बुनकरों को व्यापारी एक साड़ी पर 90 से ₹100 देते हैं और यह पैसे भी साड़ी बिकने के बाद मिलता है। औरतें बुनकर काम में सीधे नहीं जुड़ी होती है मगर इनके बिना वह बुनकर सौ रुपया भी साड़ी पर नहीं कमा पाता, क्योंकि साड़ी का धागा लपेटने का काम घर की औरतों को ही करना पड़ता है। https://mehnatkash.in/2023/05/01/may-day-struggle-to-work-8-hours-again/ क्यों तबाह हैं बुनकर और उनका पेशागत उद्योग सन 1990 से बनारसी साड़ियों की मांग लगातार कम होना शुरू हुआ। वैश्विक उदारीकरण, मुक्त व्यापार संबंधी समझौते, सरकारी नीतियां, फैशन में बदलाव, भारतीय फिल्मों द्वारा बनारसी साड़ी की जगह लहंगा चोली में नायिका को दिखाना और साड़ियों के अतिरिक्त अन्य उत्पादों से ना जुडने के कारण बुनकर उद्योग को हानि हुई। 1999 के बाद अटल बिहारी वाजपेई सरकार ने चीनी क्रेप कपड़ों के आयात की अनुमति दी। तब ये चाइनीज कपड़ा तो 01-1.25 डॉलर प्रति मीटर था जबकि भारतीय सिल्क 2.5-04 डॉलर प्रति मीटर था। यही कारण रहा कि 2001 से 2005 के बीच चीनी सिल्क आयात 6500% बढ़ गया। हालांकि इसके बाद आयात में कमी आई लेकिन बनारसी साड़ियों का बाजार बिगड़ने का खेल बदस्तूर जारी है। इसी के साथ धागों की कीमतें बढ़ती गईं, बिजली बेहद महँगी हो गई है, सरकारी रियायतें लगभग खत्म हैं और बाजार में तैयार माल ले जाने में सरकारी केंद्रों की जगह बिचौलियों की भूमिका तेजी से बढ़ी। जिसने दुर्दशा बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई। बुनकर आज भी लगन और मेहनत से काम कर रहा है, पर काम करने के साधनों पर उसका अधिकार नहीं रह गया है। उसके साधनों और बाजार पर कई तरह के बिचौलियों का कब्जा हो चुका है। मालिक, दलाल, कमीशन एजेंट, कोठीदार, होलसेलर और खुदरा व्यापारी के बीच बुनकर एकदम हाशिए पर हैं। गुजरात के सूरत में 900000 पावर लूम है। ये बनारसी के प्रिंट नकल बनाते हैं और बनारसी साड़ियों की कीमत की तुलना में बहुत सस्ती साड़ी बाजार में उपलब्ध करा देते हैं। बनारसी पैटर्न की साड़ी असली बनारसी साड़ी नहीं होती है। इसे समझना होगा। इससे भी बनारसी साड़ी उद्योग को काफी नुकसान हुआ है। इस तरह आप समझ सकते हैं कि बुनकर मजदूरों की स्थिति क्या है? अगर बुनकर मजदूरों को अपनी स्थिति में सुधार करना है तो उसे सबसे पहले एकजुट होना पड़ेगा और एक लंबी लड़ाई के लिए तैयार होना पड़ेगा। -सौरभ की रिपोर्ट ‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका अंक-49 (अप्रैल-जून, 2023) में प्रकाशित https://mehnatkash.in/2023/05/18/issue-49-april-june-2023/