उत्तरकाशी : सुरंग में फंसे हैं मज़दूर पहाड़ की चट्टानों को तोड़कर कब और कैसे बाहर निकलेंगे?

हिमालयी क्षेत्रों में अवैज्ञानिक बेतरतीब, बेहिसाब निर्माण कार्यों से जुड़े सवाल एक बार फिर सामने खड़े हैं। अगर कच्चे पहाड़ इस तरह छलनी कर दिये जायेंगे तो उसका असर क्या होगा?
उत्तराखंड के उत्तरकाशी में सिलक्यारा सुरंग में 10 दिन से फंसे मज़दूरों को अभी तक बाहर नहीं निकाला जा सका है। पीड़ित मजदूरों की स्थिति लगातार खराब हो रही है। पर्याप्त खाने का अभाव, सांस लेने में तकलीफ, ब्लड प्रेशर, सिरदर्द आदि ज्ञात-अज्ञात दिक्कतों के साथ डर और भय के कारण भी मज़दूरों में अवसाद की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।
ज्ञात हो कि उत्तराखंड के उत्तरकाशी में सिलक्यारा सुरंग के मुहाने पर मलबा आ जाने के कारण अंदर काम कर रहे मज़दूर फंस गये थे, जिनकी संख्या सरकारी तौर पर पहले 40 और सप्ताह बाद 41 बताई गई। तबसे बचाव कार्य चल रहा है लेकिन मज़दूरों को बाहर नहीं निकाला जा सका है।
उल्लेखनीय है कि सिल्क्यारा भौगोलिक तौर पर बेहद संवेदनशील क्षेत्र है। इस सुरंग में पहले भी ऐसी घटना हो चुकी है। लेकिन तब कोई नहीं फंसा था इसलिए उस पर ज्यादा बात नहीं हुई।
बचाव कार्य में शिथिलता या बेबसी?
बीते दिनों बचाव कार्य की शिथिलता के खिलाफ फंसे हुए मज़दूरों के साथियों व ग्रामवासियों ने सुरंग के बाहर प्रदर्शन भी किया था। यह हालात तब है जब मुख्यमंत्री धामी इस बचाव अभियान को देख रहे हैं और देश के प्रधानमंत्री भी सीधे जायजा ले रहे हैं।
बचाव अभियान की शिथिलता मज़दूरों के प्रति सत्ताधारियों और उनके अमलों के नजरिये को ही दिखाती है। विश्वगुरु बनाने के बड़े दावों के बीच इस घटना से वास्तविकता की पोल खुलकर सामने है। इस बीच नैनीताल उच्च न्यायालय ने भी सरकार की फटकार लगाई।
इन पीड़ित मज़दूरों व उनके परिवारों की दिवाली काली रही। 10 दिन गुजरने पर अब सरकारी तौर पर बताया गया कि टनल में फंसे 41 मजदूरों को हादसे के 10वें दिन एंडोस्कोपिक कैमरे से देखा गया। मंगलवार सुबह करीब 3 बजकर 52 मिनट पर मजदूरों से बातचीत की गई।
मजदूरों की गिनती हुई। सभी सुरक्षित हैं। पाइप के जरिए इन्हें पहली बार गर्म खिचड़ी-दाल और जूस भेजी गई। श्रमिकों से संवाद स्थापित करने और उन तक खाने पीने की चीज पहुंचाने के लिए 6 इंच का पाइप डालने का काम पूरा कर लिया गया था।

अभी भी कोई समय सीमा नहीं
स्थिति यह है कि 10 दिन बीतने के बावजूद बचाव कार्य देख रही एनडीआरएफ का कहना है कि अभी तक 20-21 मीटर भीतर जा चुके हैं लेकिन 60 मीटर तक जाना है।
एनडीआरएफ सदस्य हसनैन ने बताया कि मामले की तकनीकी जटिलता को देखते हुए उन्हें निकाल पाने की कोई समय सीमा पर टिप्पणी करना अभी सही नहीं होगा। यही कह सकता हूं कि सर्वश्रेष्ठ प्रयास किए जा रहे हैं। 4-5 अलग-अलग तरीके एक साथ लगाए जा रहे हैं जिस तरीके से भी सबसे जल्दी कामयाबी मिल जाए। हम इस पर नहीं बैठे हैं कि एक तरीका फेल हो तो दूसरा अपनाएं।
महत्वाकांक्षी चार धाम परियोजना का हिस्सा
ब्रह्मखाल-यमुनोत्री हाईवे पर सिल्क्यारा और डंडलगांव के बीच निर्माणाधीन 4.5 किलोमीटर लंबी सिलक्यारा टनल का एक हिस्सा 12 नवंबर की सुबह 4 बजे धंस गया था। जहाँ एंट्री पॉइंट से 200 मीटर अंदर 60 मीटर तक मिट्टी धंसी। इसमें 41 मजदूर अंदर फंस गए।
निर्माणाधीन सुरंग सरकार की महत्वाकांक्षी चार धाम परियोजना का हिस्सा है, जो बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री तीर्थ स्थलों तक कनेक्टिविटी बढ़ाने की पहल बताई गई है।
विकास के नाम पर विनाश परियोजनाएं
उत्तराखंड में उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बन रही लगभग हर बड़ी परियोजना में दुर्घटनाओं की प्रबल संभावना है। कई बार यह बात साबित हो चुकी है कि हिमालय के पहाड़ों में ऐसी सुरंगें बनाना खतरनाक है, तब भी बिना वैज्ञानिक जांचों के इस तरह की सुरंगें बनाई जा रही हैं।
बड़ी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं, बांधों, ऑल वेदर रोड में होने वाली दुर्घटनाओं में काम कर रहे लोगों की सुरक्षा के इंतजाम नहीं के बराबर हैं। आशंकाओं के बावजूद पूर्व सूचना देने व बचाव कार्यों की व्यवस्था का अभाव एकबार फिर सामने है। इस संवेदनशील हिमालयी राज्य में विकास के नाम पर सरकारों के संरक्षण में पूंजीपतियों, छोटी बड़ी कंपनियों को मनमानी की छूट मिली हुई है।
उत्तरकाशी, रैणी और जोशीमठ क्षेत्र में 7 फरवरी 2021 को आई आपदा इसका उदाहरण है, जहां तपोवन विष्णु गाड़ योजना में 204 लोगों की टनल में दबने से मृत्यु हो गई थी। जोशीमठ में जबरदस्त भू धसांव हुआ और पूरा शहर जोशीमठ इस प्रकार की लापरवाही की वजह से डूब रहा है। और यह सिलसिला जारी है।
हिमालयी क्षेत्रों में अवैज्ञानिक बेतरतीब, बेहिसाब निर्माण कार्यों से जुड़े सवाल एक बार फिर सामने खड़े हैं। सवाल उठना लाजिमी है कि अगर हिमालय के कच्चे पहाड़ अन्दर से इस तरह छलनी कर दिये जायेंगे तो उसका पर्यावरणीय और अन्य व्यवहारिक असर क्या होगा।
इन तमाम अनुत्तरित स्थितियों के बीच पहाड़ की चट्टानों को तोड़कर मज़दूर कब और कैसे बाहर निकलेंगे ये सवाल आशंकाओं और उम्मीदों के साथ अभी भी खड़ा है।