मेहनतकश सेमिनार में हुई जीवन्त चर्चा; देश के मौजूदा हालात में मज़दूर को बनाया जा रहा है नया दास

कार्यस्थल में विविध बंटवारे, पेशागत विभाजन, भारी आर्थिक असमानता, धर्म, जाति, क्षेत्र आदि सामाजिक बंटवारे, मज़दूरों की मानसिक दासता जैसी गम्भीर स्थितियों पर चर्चा हुई और एकजुट संघर्ष की ओर बढ़ने का आह्वान हुआ।
24 सितंबर 2023 को रूद्रपुर, ऊधम सिंह नगर में मेहनतकश पत्रिका के 50वें अंक पर मज़दूर सेमिनार का आयोजन हुआ। सभा में उत्तराखण्ड के साथ साथ राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश और बंगाल के भी मज़दूर साथी और कार्यकर्ता शामिल हुए। चर्चा का विषय था- “किन चुनौतियाँ से जूझ रहा है भारत का मज़दूर।”



शहीदे आज़म भगतसिंह के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम के मुख्य वक्ताओं के रूप में पश्चिम बंगाल के मज़दूर आंदोलन कर्मी अमिताभ भट्टाचार्य शामिल हुए। पंतनगर यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर बी के सिंह ने भी सभा को संबोधित किया। इसके उपरांत क्षेत्र के विभिन्न मज़दूर संगठनों विशेषकर मासा के घटक संगठनों से आये प्रतिनिधियों ने पत्रिका को इस मुक़ाम तक पहुँचने की बधाई देते हुए विषय पर अपनी टिप्पणी साझा की।
मज़दूर आंदोलन का सहयात्री है ‘मेहनतकश मीडिया’
कार्यक्रम की शुरुआत युवा साथियों के ज़ोरदार गाने के साथ हुई। कार्यक्रम का आधार पत्र सदन के सामने रखते हुए मेहनतकश के संपादक मंडली से सुभाषिनी ने बताया कि 2010 से शुरू हुआ मेहनतकश पत्रिका के सफर की कहानी उत्तर भारत में मजदूर आंदोलन के उतार चढ़ाव और विस्तार को भी बयान करती है।
पत्रिका विभिन्न आंदोलनों की मुखर आवाज रही है जैसे मारुति, पारले, एलजीबी, वोल्टास, असाल, प्रिकॉल, माइक्रोमैक्स, इंटरार्क, गुजरात अम्बुजा, होंडा टपुकड़ा, डाइकिन, डाइडो आदि। इसकी कार्यशैली में लगातार मज़दूरों की अपनी भागीदारी, लेखन और अनुभवों को उजागर करने का ज़ोर रहा है।
कठिन चुनौतियों से जूझता मज़दूर विविध बंटवारों का शिकार बना
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता कॉमरेड अमिताभ भट्टाचार्य, महासचिव, एसडब्लूसीसी ने भारत में मजदूर वर्ग के सामने आने वाली चुनौतियां के ऐतिहासिक क्रम पर रोशनी डाली। उन्होंने भारत में नवउदारवाद-निजीकरण-भूमण्डलीकरण की नीतियों को लागू करने में विभिन्न सरकारों की भूमिका व मज़दूर आबादी पर इनके प्रभाव की व्याख्या करते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि आज तक देश में बनी कोई भी सरकार मज़दूर पक्षधर नहीं रही है।
अगर मज़दूर हितों में नीतियां बनानी हैं तो मज़दूर वर्ग को ख़ुद सत्ता पर क़ाबिज़ होना पड़ेगा। तथ्यों से वर्तमान हालातों की व्याख्या करते हुए साथी ने बताया कैसे मोदी सरकार को पूँजीपति वर्ग का खुला समर्थन मिला है। यह इसलिए क्योंकि विभाजनकारी धर्म और जाति आधारित राजनीति का इस्तेमाल करके मोदी सरकार पूँजीपतियों के वर्ग-हित में वे सारी नीतियाँ लागू कर रही हैं जिन्हें पहले की कांग्रेस और भाजपा सरकारें प्रस्तावित करने के बावजूद लागू नहीं कर पा रहीं थीं।






श्रम क़ानूनों में किया जा रहा परिवर्तन; विशेषकर यूनियन के अधिकार को कमज़ोर करना, छँटनी-बंदी को आसान बनाना, हड़ताल करने को ग़ैरक़ानूनी बनाना व पक्के ताउम्र नौकरी को ख़त्म करके अनियमितक़ालीन रोज़गार को सामान्य बना देना इनमें से प्रमुख नीतियाँ हैं जो मोदी सरकार द्वारा लागु की गयीं हैं। अंततः उन्होंने बताया कि यह नीतिगत हमला मजदूरों के अंदर जाति और धर्म के आधार पर सामाजिक विभाजन तेज करने से ही संभव हुआ है। इसलिए इन विविध विभाजनों के खिलाफ मजदूरों को एक वर्ग के रूप में संगठित होकर, अपने इतिहास से सबक लेकर, अपनी व्यवस्था को लाने का प्रयास करना ही भारत के मज़दूरों के सामने एकमात्र विकल्प है।
इसके बाद सीधे संवाद में मज़दूर साथियों के प्रश्नों और उत्सुकता के जवाब के दौरान कई अहम बिंदु उभरकर सामने आए।
मीडिया मज़दूरों के दमन का प्रमुख हथियार
प्रोफेसर बीके सिंह ने मज़दूर और मीडिया की भूमिका पर बात रखते हुए कहा कि पुलिस प्रशासन के बाद वर्तमान दौर में मीडिया पूंजीपतियों और सरकार के पास दमन का सबसे कारगर हथियार है। यह लोगों को भ्रमित कर लोगों के बीच में विभाजन पैदा कर रहा है। अधिनायकवादी सत्ता में दमन के जरिए जनता को नियंत्रित करना सरकार के लिए खर्चीला होता है, इसलिए मीडिया के जरिए जनता को भ्रमित करके नियंत्रित करना ज्यादा फ़ायदेमंद है।

साम्प्रदायिकता में उलझाकर मज़दूरों के अधिकार छिनते गए
इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र के साथी सुरेंद्र ने कहा कि 70 के दशक में बने श्रम कानूनों को मजदूर वर्ग के दबाव के कारण ही बनाया गया था। लेकिन 1990 के बाद मज़दूरों को मिले संरक्षण छिनते गए। ऐक्टू से केके बोरा ने मौजूदा दौर में सांप्रदायिक ताकतों द्वारा समाज में डाले गए फूट को मज़दूर वर्ग के सामने उपस्थित मुख्य सवाल के रूप में चिन्हित किया।
ऑल इण्डिया वर्कर्स काउंसिल के प्रतिनिधि और रोडवेज संविदा कर्मचारी यूनियन के प्रधान होमेन्द्र मिश्र ने कहा कि एक वर्ग के रूप में मजदूरों की कोई जाति या धर्म नही है। संगठन के आधार पर बदलाव लाना संभव है मगर सिर्फ़ सरकार और अदालत के भरोसे बैठने से कुछ हासिल नहीं होगा।
मज़दूर सहायता समिति के अजहर ने कहा कि आज के दौर में मीडिया की जैसी नकारात्मक और जन विरोधी स्थिति है ऐसे में मेहनतकश पत्रिका का संचालन और प्रकाशन महत्वपूर्ण है। साथ ही उन्होंने असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के बीच काम करने की चुनौतियों पर ज़ोर दिया।
दार्जिलिंग से आए चाय बगान संग्राम समिति के साथी छेवांग ने कलिंगपोंग, दार्जलिंग तराई क्षेत्र के चाय बगानों की स्थिति पर प्रकाश डाला। बताया कि अब तक चाय बगानों में न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 के प्रावधान लागू नहीं हैं। इस कारण चाय बाग़ान के ज्यादातर लोग कम मजदूरी की वजह से पलायन करने को मजबूर हैं।
मजदूर सहयोग केंद्र से धीरज ने कहा कि मजदूरों के लिए अपनी सामूहिक समस्याओं को चिन्हित करना और सही दिशा में आगे बढ़ना महत्वपूर्ण कार्यभार है। उन्होंने उम्मीद जतायी कि यह सम्मेलन इस दिशा में मददगार साबित होगा।
कॉरपोरेट और फासीवादी गंठजोड़ से मज़दूरों पर हमला बेलगाम
मेहनतकश पत्रिका के संपादक मुकुल ने सबका धन्यवाद ज्ञापन किया। उन्होंने चर्चा को समेंटते हुए मज़दूर वर्ग के बीच भयावह रूप ले चुके विविध विभाजनों को हमारे सामने खड़ी सबसे बड़ी चुनौती के रूप में चिन्हित किया।
उन्होंने बताया कि कार्य स्थल में विविध बंटवारे, पेशागत विभाजन, आर्थिक तौर पर भारी असमानता, धर्म, जाति, क्षेत्र आदि रूपी सामाजिक बंटवारे मज़दूरों में मानसिक दासता जैसी गम्भीर स्थितियों को पैदा कर रहीं हैं।
सिडकुल की परिस्थितियों को रखते हुए उन्होंने श्रमिकों के संगठित होने के संघर्ष से शुरू कर के इसकी प्रतिक्रिया में चले छंटनी के दौर की व्याख्या की। उन्होंने बताया कैसे प्रशासन मालिक और मजदूरों के बीच खुद समझौते करवा कर मुकर जा रही है; यहां तक कि हाई कोर्ट के आदेश तक को लागु नहीं करवा पा रहा।
उन्होंने कॉर्पोरेट और फासीवादी गंठजोड़ द्वारा मजदूरों पर किए जा रहे हमले की तीव्रता के सामने मज़दूर वर्ग के समक्ष खड़ी समस्याओं को व्यापक और सही परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया। अतः विभिन्न मतभेदों के परे आंदोलन में एकता बनाने के प्रयासों की प्रासंगिकता बतायी।

कार्यक्रम में तमाम यूनियनों की रही जीवन्त भागीदारी
सेमिनार में गाज़ियाबाद से आए नन्हेलाल व जनार्दन, सीपीआई के कॉमरेड राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता, समता सैनिक दल के गोपाल गौतम, भाकपा माले के ललित मटियाली, पत्रकार असलम कोहरा, बंगाली कल्याण समिति के शंकर चक्रवर्ती, देव चक्रवर्ती, पद्दलोचन विश्वास, पत्रकार एपी भारती, नवीन चिलाना, डॉक्टर आर पी सिंह, अविनाश गुप्ता, अंज़ार अहमद, खेमकरण, एडवोकेट कर्तव्य मिश्रा आदि भी मौजूद रहे।
कार्यक्रम में करोलिया लाइटिंग इम्पलाइज यूनियन, डेल्टा इम्पलाइज यूनियन, रॉकेट रिद्धि सिद्धि कर्मचारी संघ, बडवे इम्प्लाइज यूनियन, एलजीबी वर्कर्स यूनियन, भगवती इम्पलाइज यूनियन, महिंद्रा सीआईई श्रमिक संगठन, महिंद्रा कर्मकार यूनियन, बजाज मोटर्स यूनियन, पी डी पी एल मजदूर यूनियन, हेंकेल श्रमिक संघ, नेस्ले कर्मचारी संगठन, आनंद निशिकावा इम्प्लाइज यूनियन, एडिएंट कर्मकार यूनियन, इंटरार्क मज़दूर संगठन उधम सिंह नगर, इंटरार्क मज़दूर संगठन किच्छा, पारले मज़दूर संघ, मंत्री मेटल्स यूनियन, टाटा ऑटोकॉम आदि यूनियनों के साथ मज़दूरों की शानदार भागीदारी रही।
4 प्रस्ताव हुए पारित
कार्यक्रम के अंत में उपस्थित सभी ने सर्वसम्मति से मजदूर विरोधी चार श्रम संहिताओं के वापस लिए जाने; मज़दूर हित में श्रम कानूनों में सुधार किए जाने; मजदूर आंदोलन पर दमन, युनियन बनाने के अधिकार पर हमले और छटनी-बंदी पर फ़ौरन रोक लगाए जाने; सबके लिए सम्मानजनक स्थायी रोजगार और 26,000 रुपये प्रतिमाह न्युनतम मजदूरी लागू किए जाने; व मेहनतकश जनता के बीच बढ़ते सांप्रदायिक नफरत, सामाजिक भेदभाव और उत्पीड़न को परास्त करते हुए कॉपोरेट पूँजी-फासीवादी ताकतों के हमलों के खिलाफ़ वर्गीय एकता व संघर्ष को आगे बढ़ाने का प्रस्ताव पारित किया।