24 सितम्बर को रुद्रपुर में होगा मेहनतकश सेमिनार: “किन चुनौतियों से जूझ रहा है भारत का मज़दूर”

‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका के 50वें अंक के साथ मेहनतकश मीडिया की ओर शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में आयोजित सेमिनार में होगी व्यापक चर्चा।

संघर्षरत मेहनतकश पत्रिका निकलते 12 वर्ष गुजर गए और पत्रिका ने 50 अंक तक का सफ़र पूरा कर लिया। इसी दौरान मेहनतकश वेबसाइट, चैनल, एक्स (ट्विटर) और फेसबुक पर भी मेहनतकश संघर्षों के साथी के रूप में सक्रिय हुआ।

हम देखते हैं कि विगत 12 वर्षों के दौरान मेहनतकश जन के हालात दिन पर दिन बदतर होते गए हैं। बड़े-बड़े सब्जबाग और सपने दिखलाकर 2014 में जब मोदी सरकार केंद्र की सत्ता में आई थी तब से जहां पूँजी की लूट और बेलगाम होने के साथ देशी-विदेशी पूँजीपतियों के और ‘अच्छे दिन’ आते गए, वहीं मज़दूर-मेहनतकश के हालात ज्यादे पस्त होते गए।

1990 के दशक से भारत की अर्थव्यवस्था जिस नव-उदारवादी आत्मघाती रास्ते पर चली थी, मोदी सरकार के दौर में सरपट दौड़ रही है। लंबे संघर्षों से हासिल श्रम क़ानूनी अधिकारों को छीन कर मज़दूरों को बंधुआ बनाने के क्रम में चार श्रम संहिताएं लागू होने की प्रक्रिया में हैं। छँटनी-बंदी, बेरोजगारी, महँगाई आदि भयावह हैं। सरकारी-सार्वजनिक उद्योग व संपत्तियाँ निजी मुनाफाखोरों के हवाले करना तेज है। मज़दूरों का दमन काफी तीखा हो चुका है। संकटग्रस्त और पहले से ही विभाजन की शिकार मज़दूर आबादी और भी विभाजनों के मकड़जाल में फँसती चली गई।

आज बड़े पूंजीपतियों के साथ फासीवादी गठजोड़ से धार्मिक नफरत, खोखला अंध-राष्ट्रवाद और तमाम प्रतिक्रियावादी विचारों के साथ देश में नंगी तानाशाही चल रही है, और मेहनतकश जनता अपनी माँगों और अधिकारों से वंचित होती जा रही है। उसके कंधों पर भीषण आर्थिक संकट का बोझ डाला जा रहा है। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दुर्दशा बहुत बढ़ गई है। मेहनतकश विविध बँटवारों का शिकार हो गया है।

कार्यक्षेत्र में बड़े बदलाव हुए हैं। कारखानों के भीतर स्थाई-अस्थाई, ठेका-ट्रेनी आदि के नाम पर विभाजन और उनके वेतन और सुविधाओं में अंतर भयावह है। असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के पास न तो आर्थिक सुरक्षा है, न सामाजिक सुरक्षा। जातिगत व पेशागत भेदभाव गहरा है। ओला, उबर, जोमैटो, स्वीजी आदि गिग व प्लेटफ़ॉर्म श्रमिकों से लेकर आशा, आंगनवाड़ी आदि स्कीम वर्कर, जिनमें ज्यादातर महिला श्रमिक हैं, आदि रोजगार की तमाम नई श्रेणियां हैं, जिनको कर्मकार का दर्जा तक हासिल नहीं है।

पूँजीपतियों और मज़दूरों के बीच वेतन का अंतर लगातार बढ़कर जमीन-आसमान का हो चुका है। वहीं मज़दूर-मज़दूर के बीच समान काम के बावजूद वेतन में भारी अंतर से आर्थिक व जीवन स्थितियों में असमानता की खाई काफी गहरी हो चुकी है। मज़दूरों के वेतन बढ़ती महंगाई के सापेक्ष दूर-दूर तक नहीं बढ़ रहे हैं। इसके विपरीत बढ़ती महंगाई से वास्तविक मिलने वाला वेतन लगातार घट रहा है।

पूँजी की अंधी लूट से पर्यावरण भयावह रूप से प्रदूषित है। वहीं सामाजिक माहौल भी बेहद प्रदूषित हो चुका है। धार्मिक नफ़रत, जातिगत भेदभाव, दंगे-फसाद आदि लगातार तीखा होते हुए उस मुकाम पर पहुंच गया है, जहां मज़दूर, मज़दूर के हित की जगह हिंदू मुस्लिम, सवर्ण-दलित के खूनी दलदल में फँसकर एक दूसरे के खिलाफ हमलावर है।

जहाँ मानसिक तौर पर सांप्रदायिक और नफ़रती बनाने का खेल तेज है, वहीं क्रिकेट ड्रीम और पब्जी आदि ऑनलाइन खेलों के जरिए रातों-रात करोड़पति बनने के ख्वाब ने मज़दूरों को उलझा दिया है।

कुल मिलाकर मज़दूर-मेहनतकश वर्ग बेहद कठिन स्थितियों में है। कार्यस्थल पर बंटवारा, सामाजिक बंटवारा, आर्थिक असमानता एवं मानसिक जकड़बंदी भयावह है। भाईचारा व प्रेम की जगह नफ़रत व हिंसा तीखा है। मुख्य धारा की मीडिया सत्ता की खुली चाकरी और मज़दूरों को भ्रमित करने, झूठ परोसने में ज्यादा सक्रिय है। ऐसे में मज़दूर वर्ग के सामने चुनौतियाँ भी बेहद गम्भीर हैं।

इन्हीं मुद्दों पर चर्चा करने के लिए ‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका के 50वें अंक के साथ मेहनतकश मीडिया की ओर से रविवार, 24 सितम्बर, 2023 को नगर निगम सभागार, रुद्रपुर, ऊधम सिंह नगर (उत्तराखंड) में एक सेमिनार होगा। शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में आयोजित सेमिनार का विषय है- “किन चुनौतियों से जूझ रहा है भारत का मज़दूर”

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