श्रीलंकाः सरकार द्वारा आईएमएफ के निर्देश पर थोपे जा रहे टैक्स के खिलाफ कर्मचारियों की हड़ताल

श्रीलंका में 50 से ज्यादा ट्रेड यूनियन मंगलवार आधी रात से हड़ताल पर चली गई हैं। जिन क्षेत्रों में हड़ताल हुई है, उनमें रेलवे, डाक, बिजली एवं ऊर्जा, मेडिकल, बैंकिंग वगैरह शामिल हैं।

श्रीलंका में श्रमिक वर्ग ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के एजेंडे को सीधी चुनौती दी है। यह संघर्ष कहां तक जाएगा, अभी कहना मुश्किल है। क्या इससे विभिन्न विकासशील देशों में आईएमएफ की भूमिका लेकर कोई बड़ी बहस खड़ी होगी और यह भूमिका बेनकाब हो जाएगी- इस बारे में भी कोई अनुमान लगाना अभी जल्दबाजी होगी।

लेकिन यह तय है कि जिन लोगों की नजर इस श्रमिक आंदोलन की पृष्ठभूमि पर रही है, उनकी निगाह में आईएमएफ के मकसद और भूमिका को लेकर शायद कोई संदेह नहीं बचा होगा।

यह साफ है कि श्रीलंका में जन विरोध की एक नई लहर उठी है। देश में 50 से ज्यादा ट्रेड यूनियन मंगलवार आधी रात से हड़ताल पर चली गई हैं। जिन क्षेत्रों में हड़ताल हुई है, उनमें रेलवे, डाक, बिजली एवं ऊर्जा, मेडिकल, बैंकिंग वगैरह शामिल हैं। श्रीलंका के सेंट्रल बैंक की कर्मचारी यूनियन के सदस्य भी हड़ताल में शामिल हुए हैं।

फिलहाल कुछ सेक्टरों के कर्मचारियों ने 24 घंटे तक ही हड़ताल में रहने का फैसला किया है। लेकिन ज्यादातर ट्रेड यूनियनें अनिश्चितकाल की हड़ताल पर चली गई हैं।

कर्मचारी संघों की तीन मुख्य मांगें हैःं

• बिजली और अन्य सेवाओं की दरों में हाल के महीनों में की गई बढ़ोतरी वापस ली जाए।

• सरकार आयकर की न्यूनतम दर में वृद्धि को वापस ले, जिसके तहत यह दर 36 प्रतिशत कर दी गई है।

• बिजली बोर्ड (सिलोन इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड) के निजीकरण का प्रस्ताव वापस लिया जाए।

गौरतलब यह है कि राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे की सरकार ने ये तमाम कदम आईएमएफ की शर्तों को पूरा करने के लिए उठाए हैं। आईएमएफ आर्थिक संकट से जूझ रहे श्रीलंका को 2.9 बिलियन डॉलर का अतिरिक्त ऋण देने को तैयार हुआ है, लेकिन यह रकम पाने के लिए उसने श्रीलंका सरकार पर कई शर्तें थोपी हैं।

इन शर्तों में राजकोषीय घाटा कम करना भी शामिल है। इसी शर्त को पूरा करने की कोशिश में विक्रमसिंघे सरकार ने बिजली सहित कई सेवाएं सरकार ने महंगी कर दी हैं और इनकम टैक्स की दर बढ़ा दी है।

श्रीलंका के लोग 2021 के आखिरी महीनों से ही गहरी मुसीबत में हैं। डॉलर की तुलना में रुपये की कीमत घटने, महंगाई की रिकॉर्ड दर और जरूरी चीजों की कमी के कारण उनकी आम जिंदगी अस्त-व्यस्त रही है।

ऊपर से अब आईएमएफ की शर्तों की मार उन पर आ पड़ी है। इससे संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों का सब्र जवाब दे गया है। विभिन्न क्षेत्रों की ट्रेड यूनियनें समागी ट्रेड यूनियन कलेक्टिव के बैनर तले एकजुट हुई हैं।

इसके संयोजक आऩंद पालिता ने दो टूक कहा है कि अगर सरकार उनकी मांगें नहीं मानती है, तो ट्रेड यूनियनें उसका “भविष्य तय” कर देंगी।

पिछले साल सरकार विरोधी आंदोलन के दौरान सिलोन टीचर्स यूनियन के महासचिव जोसफ स्टालिन अपनी गिरफ्तारी के बाद खासे चर्चित हुए थे। अब उनकी यूनियन भी हड़ताल के साथ है। उन्होंने कहा है कि एक बिना जनादेश वाली सरकार ऐसे कदम उठा रही है, जिसका उसे अधिकार नहीं है। स्टालिन ने देश में श्रमिक वर्ग के एकजुट होने को एक ऐतिहासिक मौका बताया है।

लेकिन श्रीलंका सरकार कर्मचारियों की बात सुनने को फिलहाल तो तैयार नहीं है। बल्कि उसने दमन का रास्ता अख्तियार कर लिया है। रेलवे सहित कई सेवाओं को आवश्यक सेवा अधिनियम के तहत लाकर कर्मचारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की चेतावनी दी गई है। दरअसल, कर्मचारियों से सीधा टकराव लेते हुए सरकार ने उन पर देश से गद्दारी और विश्वासघात करने का इल्जाम मढ़ दिया है।

परिवहन मंत्री और सरकार के प्रवक्ता बादुला गुनावर्ध ने कहा है कि ट्रेड यूनियनों का मकसद अपनी मांगें मनवाना नहीं, बल्कि आईएमएफ के ऋण कार्यक्रम को नाकाम करना है। गुनावर्धने ने कहा कि यूनियनें आईएमएफ से कर्ज मिलने के रास्ते में रुकावट डाल रही हैं।

आईएमएफ के गवर्निंग बोर्ड की बैठक 20 मार्च को होने वाली है। संभावना है कि उसमें श्रीलंका को 2.9 बिलियन डॉलर का ऋण जारी करने का फैसला होगा। गुनावर्धने ने कहा कि इस मौके पर हड़ताल शुरू कर ट्रेड यूनियनें ‘गद्दारी और विश्वासघात’ कर रही हैं।

श्रमिक संगठन आईएमएफ के ऋण कार्यक्रम में ही रुकावट डाल रहे हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि वे ऐसा करने को क्यों मजबूर हुए हैं? यह सवाल सरकार और सत्ताधारी दल से पूछा जाना चाहिए कि श्रमिक वर्ग का अपने हित की रक्षा करना आखिर किस परिभाषा से “गद्दारी और विश्वासघात” है? अगर श्रमिकों के नजरिए से देखें, तो आंख मूंद कर आईएमएफ की शर्तें मान कर सरकार ने उनसे गद्दारी की है।

गौरतलब है कि इस बिंदु पर आकर श्रमिक वर्ग और शासक वर्ग नियंत्रित सरकार की देश या राष्ट्र की अवधारणाएं परस्पर विरोधी हो जाती हैं। आज जबकि दुनिया के अनेक देश कर्ज संकट से जूझ रहे हैं और उससे राहत पाने की कोशिश में वहां की सरकारों ने आईएमएफ के आगे हाथ फैलाए हैं, तो अवधारणाओं का यह अंतर्विरोध अधिक तीखा होता दिख रहा है। श्रीलंका संभवतः इसकी अभिव्यक्ति का पहला स्थल बना है।

अब इस बारे में पर्याप्त विमर्श उपलब्ध है, जिसके आधार पर यह समझ बनती है कि आईएमएफ असल में अमेरिका के शासक वर्ग के हितों को आगे बढ़ाने वाली एक एजेंसी है। आज के वित्तीय पूंजीवाद के दौर में जब विभिन्न देशों के शासक वर्गों के हित एक दूसरे से जुड़ गए हैं, तो आईएमएफ की भूमिका उन वर्गों के साझा हित के रक्षक की बन गई है।

इसीलिए कर्ज या राजकोषीय संकट से ग्रस्त देश आईएमएफ के पास जाते हैं, तो वह उन पर ऐसी कोई शर्त नहीं थोपता, जिससे वहां के शासक वर्ग के हित प्रभावित हों। बल्कि वह देश की वित्तीय स्थिति को सुधारने का सारा बोझ आम जन पर डालने की शर्त थोप देता है।

प्रश्न है कि राजकोषीय सेहत सुधारने की शर्त श्रीलंका सरकार पर थोपते वक्त धनी तबकों पर टैक्स बढ़ाने या उनकी अतिरिक्त संपत्तियों को जब्त कर लेने का सुझाव आईएमएफ ने क्यों नहीं सामने रखा?

उसने देश की उत्पादक संपत्तियों के राष्ट्रीयकरण का सुझाव क्यों नहीं दिया? इसके बदले सार्वजनिक उद्यमों का निजीकरण कर उन्हें वित्तीय पूंजी के हवाले करने की शर्त अगर लगाई गई है, तो आईएमएफ का मकसद अपने-आप में बेनकाब हो जाता है।

लेकिन मुश्किल यह है कि समाचार माध्यमों पर भी शासक वर्ग का ही नियंत्रण होता है। इसलिए वह अपने हितों को देश हित के रूप में प्रचारित करने में सफल हो जाता है। यही कारण है कि बहुत से ऐसे लोग, जिनके अपने हित आईएमएफ की जन विरोधी शर्तों से प्रभावित होते हैं, वे भी “देश हित’’ में उसके कथित ढांचागत सुधार कार्यक्रम का समर्थन करते हैं।

और इसीलिए श्रीलंका की हड़ताल महत्त्वपूर्ण है। कम से कम वहां के श्रमिक वर्ग ने समझा है कि आईएमएफ ने असल में उसके हितों की कीमत पर शासक वर्ग के स्वार्थों को सुरक्षित रखने वाली शर्तें लगाई हैं। सत्ता में चूंकि इसी वर्ग से नियंत्रित राजनीतिक ताकतें हैं, इसलिए संघर्ष के लिए मजबूर कर दिए गए श्रमिक वर्ग और आम जन को वे ‘गद्दार’ बता रही हैं।

यह अफसोसनाक है कि खुद को वामपंथी कहने वाली जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) जैसी पार्टी भी ट्रेड यूनियनों की हड़ताल का बिना शर्त समर्थन करने से मुकर गई है। उसने बुधवार को तो हड़ताल को समर्थन देने का एलान किया है,लेकिन कहा है कि अनिश्चितकालीन हड़ताल का साथ वह नहीं देगी।

यह संसदीय राजनीति की मजबूरियों की एक मिसाल है, जिसमें शामिल दल शासक वर्ग से निर्णायक संघर्ष करना अपने हित में नहीं मानते। जाहिर है, श्रीलंका की ट्रेड यूनियनों और श्रमिक वर्ग का रास्ता आसान नहीं है। उनके भीतर भी अपने वर्गीय अंतर्विरोध हैं। इसलिए उनकी लड़ाई कहां तक जाएगी, कहना मुश्किल है।

लेकिन यह तय है कि अगर उन्होंने अंत तक संघर्ष (fight to the finish) का संकल्प नहीं दिखाया, तो फिर उनकी हड़ताल प्रतीकात्मक बन कर रह जाएगी, जिससे थोड़ी-बहुत मांगें तो वे मनवा सकते हैं, लेकिन आईएमएफ के खिलाफ संघर्ष की वैसी मिसाल कायम नहीं कर सकते, जो दुनिया भर के मेहनतकश आवाम के लिए एक मिसाल हो।

जनचौक से साभार

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