महाराष्ट्र: 90% फैक्ट्रियों का राज्य से पलायन; नए श्रम कानून से और बढ़ेगी तबाही

फैक्ट्रियों की बंदी/पलायन जारी। श्रमिकों को सेवानिवृत्त होने के लिए किया जा रहा है मजबूर। बेरोजगारी भयावह। दूसरी ओर, इन जगहों पर रियल एस्टेट ने कब्जा कर लिया।
मुंबई : अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त श्रमिक नेता डॉक्टर दत्ता सामंत की हत्या के बाद 2012 से अब तक महाराष्ट्र के 10 हजार से अधिक कारखानों में से 90 प्रतिशत कारखाने गुजरात, सिलवासा और पंजाब के भगभद्दी चले गए हैं। इसके लिए केवल सरकार ही जिम्मेदार है। इस बारे में ‘कामगार आघाड़ी’ के अध्यक्ष व श्रमिक नेता भूषण सामंत ने कहा कि इस गलत प्रक्रिया को रोका जाए और बेरोजगारी व नशे की गर्त में जा रहे मराठी युवाओं को बचाया जाए। 16 जनवरी 1997 को डॉ दत्ता सामंत की हत्या के बाद मजदूर आंदोलन को बहुत नुकसान हुआ। उससे पहले 1992 से ही, मुंबई और राज्य के रासायनिक कारखाने बाहर जाने लगे थे।
2010 से इस प्रक्रिया में तेजी आई और इसलिए 90 फीसदी दवा फैक्ट्रियां बाहर जा चुकी हैं। फिर इंजीनियरिंग कारखानों ने भी उसी रास्ते का अनुसरण किया। राज्य के एमआईडीसी धीरे-धीरे खाली होने लगे। ठाणे में वागले एस्टेट एमआईडीसी एक निवास स्थान में परिवर्तित हो गई। बायर इंडिया, फर्थ इंडिया, रेमंड, क्लेरिएंट, नोवर्टिस, बोरिंग नॉल, गीता इंजीनियरिंग, नितिन कोस्टिंग, मुलुंड चेक नाका स्थित विद्युत मेटालिक्स (पूर्व में पनामा ब्लेड), कल्याण स्थित एनआरसी, परेल में एम्पायर डाइंग आदि कामगार आघाड़ी की यूनियन वाली तकरीबन 1 हजार में से 30 बड़ी फैक्ट्रियां अन्य राज्यों में चली गई और 10 हजार फैक्ट्रियां शिफ्ट हो गईं।
हाल ही में कुछ कारखाने गुजरात चले गए हैं। इन कारखानों में से 90 फीसदी राज्य से बाहर चले गए, बंद मिलों में कई श्रमिकों को सेवानिवृत्त होने के लिए मजबूर किया, जिससे श्रमिकों पर बेरोजगारी का बोझ पड़ा। दूसरी ओर, इन जगहों पर रियल एस्टेट ने कब्जा कर लिया। इसका असर राज्य के आर्थिक कारोबार पर भी पड़ा। भूषण सामंत ने कहा कि प्रदेश के उद्योगों को बाहर नहीं जाने देना चाहिए।
उन्होंने आरोप लगाया है कि इन फैक्ट्रियों को अन्य राज्यों में ले जाते समय राज्य के संगठित मजदूरों का काम स्थानीय सरकार ने खत्म कर दिया। 1992 में, तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार द्वारा GATT समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद, विदेशी उद्योग राज्य में आए। इससे देश में उद्योग-धंधे ठप हो गए थे, इसलिए डॉ. दत्ता सामंत ने इसका विरोध किया और तरह-तरह के आंदोलन किए। लेकिन अब ऐसा कोई नेता नहीं है और सरकार के गलत फैसले से लिए गए नए श्रम कानून के कारण मजदूर और मजदूर आंदोलन ही खत्म हो गए हैं।
16 जनवरी 1996 को डॉ दत्ता सामंत की हत्या के बाद, बंद कारखानों के स्थान पर गगनचुंबी इमारतें बनने लगीं। जमीन की कीमतें आसमान छूने लगी। 1999 में गठबंधन सरकार ने एफएसआई क्षेत्र में वृद्धि की, जिसके परिणामस्वरूप कारखाने भी बंद हो गए। उस वक्त 50 फीसदी फैक्ट्रियां बंद हो गई। इससे घर में काम करने वालों की नई पीढ़ी के पढ़े-लिखे होने के बावजूद हाथ में काम नहीं था और बेरोजगारी बढ़ती गई। मुंबई-ठाणे औद्योगिक क्षेत्र में कारखानों के बंद होने की प्रवृत्ति से राज्य के अन्य जिलों में भी बेरोजगारी बढ़ी है।
पिछले कुछ सालों में फैक्ट्रियां बंद होने से राज्य की अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी। लेकिन केंद्र के बनाए नए श्रम कानून भी मजदूरों और उनके परिवारों के खिलाफ थे। पहले किसी भी फैक्ट्री में 100 कर्मचारी होने पर उसे बंद करने का नियम था। अब नियम बना दिया गया कि 300 से कम मजदूर होने पर ही फैक्ट्री बंद की जाएगी। इसका उदाहरण मझगांव डॉक में दिया जा सकता है जहां ठेका मजदूर ‘निश्चित अवधि’ में काम कर रहे हैं। 2000 श्रमिक यहां पिछले 20 वर्षों से अस्थाई श्रमिकों के रूप में काम कर रहे हैं। मोदी सरकार ने मजदूरों के कानूनों में बदलाव कर उनके संगठन को तोड़कर एकता खत्म करने का काम शुरू कर दिया है।