बुलडोजर से मकानों को ध्वस्त करने के खिलाफ असम उच्च न्यायालय का अहम फैसला

एक ऐसे माहौल में जबकि मुख्यतः भाजपा शासित सूबों में बुलडोजर का इस्तेमाल जूनून सा बन गया है, गुवाहाटी उच्च न्यायालय का फैसला उम्मीद की किरण बनकर आया है।

,,राष्ट्र की सबसे मजबूत सरकार,

अपने कदमों से जब नापती है एक राष्ट्र की आबादी

तो इसे वैज्ञानिक भाषा में बुलडोजर कहते हैं.

अब स्मृतियों और सपनों का

एक विशाल मलबा बनेगा एक राष्ट्र

और उस मलबे पर फहराएगा एक मजबूत ध्वज.

आ रही है हर दिशा से

मजबूत सरकार के कदमों की आहट..

(मजबूत राष्ट्र में जो टूट नहीं पाए – फरीद खाँ)

कुछ कुछ अदालती फैसले समूचे मुल्क में सुर्खियां  बनते हैं !

गुवाहाटी उच्च अदालत के पिछले दिनों आए फैसले को लेकर यही कहा जा सकता है जिसमें उच्च न्यायालय – मुख्य न्यायाधीश आर एम छाया और न्यायमूर्ति सौमित्रा सैकिया की बनी की द्विसदस्यीय पीठ – ने असम के सलोनाबाड़ी गांव, जिला नागौन में की गयी गैरकानूनी तोडफोड / मई 2002/ को लेकर अपना सख्त फैसला सुनाया था।

मालूम हो कि न केवल इस द्विसदस्यीय पीठ ने बिना किसी प्रकियाओं का पालन किए जा रहे विध्वंस की भर्त्सना की बल्कि ऐसी कार्रवाइयों को ‘गैरकानूनी’ कहा और भाजपा शासित असम सरकार को यह निर्देश दिया कि वह विध्वंस से प्रभावित पीड़ितों को मुआवजा देने और दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने को लेकर ‘उचित कदम’ उठाएं। ख़बरों के मुताबिक असम सरकार ने अदालत को यह आश्वासन दिया है कि वह पंद्रह दिनों के अंदर इसपर अमल करेगी।

निस्संदेह एक ऐसे माहौल में जबकि मुख्यतः भाजपा शासित सूबों में बुलडोजर के इस्तेमाल को लेकर जूनून सा बना है, उसे तुरंत न्याय दिलाने के उपकरण के तौर पर देखा जा रहा है, गुवाहाटी उच्च न्यायालय का फैसला उम्मीद की किरण बनकर आया है।

यह अलग बात है कि फैसले के अगले ही दिन मुंबई में निवेशकों से बात करते हुए योगी आदित्यनाथ ने – जो इन दिनों सूबा यू पी के मुख्यमंत्री हैं – बुलडोजर के इस्तेमाल को लेकर गुणगान किया और किसी पत्रकार द्वारा पूछे जाने पर उसे ‘शांति और विकास के प्रतीक’ के तौर पर प्रस्तुत किया। ऐसा समझना नादानी होगी कि वह इस फैसले से वाकिफ नहीं होंगे, लेकिन शायद वह बुलडोजर प्रयोग को लेकर अपने हुकूमत के रवैये को ही उचित साबित करना चाह रहे थे।

अगर हम ग्राम सलोनाबाड़ी – जहां मुख्यतः बंगालीभाषी मुसलमान रहते आए हैं, लगभग 3000 की आबादी है – में बीत साल के घटनाक्रम पर निगाह दौड़ाएं तो पता चलेगा कि लगभग आठ माह पहले नागौन पुलिस ने वहां सदलबल छापा डाला था, अपने साथ वह बुलडोजर लेकर भी आए थे और वहां उन्होंने कुछ घरों को तबाह भी किया, जिसमें सफीकुल इस्लाम का घर भी था – जिसकी महज एक दिन पहले ही पुलिस हिरासत में कथित तौर पर यातना के चलते मौत हुई थी – और उसके कुछ नज़दीकी रिश्तेदारों के मकान भी थे।

दरअसल सफीकुल की मौत आज भी रहस्य के पर्दे में है।

बीस मई 2022 को सफीकुल – जो मछली का व्यापार करता था – अपने धंधे के सिलसिले में शिबसागर जिला जा रहा था, जहां रास्ते में ही उसे पुलिस ने हिरासत में ले लिया, पुलिस का आरोप था कि वह शराब पीए था।

अगली सुबह तक उसकी मौत हो चुकी थी।

इस दौरान – उसके रिश्तेदारों के मुताबिक पुलिस ने उसकी रिहाई के लिए कुछ घूस की मांग की थी, जिसे देने की हालत में वह नहीं थे। उसकी मौत से उद्वेलित उसके रिश्तेदारों और बस्ती के लोगों ने बटाद्रावा पुलिस स्टेशन पर प्रदर्शन किया और पुलिस का कहना है कि उन्होंने उसमें आगजनी भी की।

सफीकुल इस्लाम के अंतिम संस्कार के बाद ही पुलिस ने बस्ती पर धावा बोल दिया, बुलडोजर भी पहुंच गए थे ; न केवल उसने कुछ मकानों का तबाह किया बल्कि सफीकुल इस्लाम की पत्नी और आठवीं कक्षा में पढ़ रही उसकी बेटी को तथा उसके भाइयों को भी  थाने में एक दिन पहले हुई हिंसा के आरोप में गिरफ्तार किया। और सभी पर गंभीर आरोप भी लगे है।

गौरतलब है कि न केवल गांव के निवासियों ने पुलिस द्वारा लगाए गए सुनियोजित हिंसा के आरोपों को सिरे से खारिज किया बल्कि खुद पुलिस के अधिकारी भी इन मकानों के विध्वंस को परिभाषित करने केा लेकर दिग्भ्रमित दिखे, पहले उन्होंने उसे अतिक्रमणविरोधी कार्रवाई बताया, लेकिन बाद में उसे ‘सर्च आपरेशन’ का हिस्सा घोषित किया।

अगर हम बाकी मुल्क के घटनाक्रमों पर गौर करें तो कह सकते हैं कि सलोनाबाड़ी में मकानों का विध्वंस कोई अपवाद नहीं था।

सूबा उत्तर प्रदेश से शुरू होकर, मध्यप्रदेश, गुजरात होता हुआ बाद में यह सिलसिला असम और कर्नाटक में भी पहुंचा था – यह महज संयोग नहीं था कि यह सब भाजपाशासित राज्य थे और – पुलिस एवं प्रशासन के लोग निर्द्वन्द  होकर बुलडोजर का इस्तेमाल करते दिख रहे थे।

तुरंत न्याय दिलाने के नाम पर समूची न्यायप्रणाली को ही पंक्चर किया जा रहा था।न सवाल पूछने की जहमत, न अदालती फैसलों के अंतहीन इन्तज़ार की जरूरत थी, अब हर ‘अपराध’ की एक ही दवा पेश की जा रही थी बुलडोजर..बुलडोजर

फिर वह चाहे वयस्क युगल का घर से भाग कर शादी करना हो, या कानून के साथ किसी विवाद में फंसने का मसला हो या सांप्रदायिक हिंसा का मसला हो, सामूहिक सज़ा का महिमामंडन तेजी से हो रहा है।

सबसे विचलित करने वाली बात थी कि ऐसे तमाम तथ्य सामने आने के बावजूद कि राज्य की ऐसी कार्रवाइयां किस तरह प्राकृतिक  न्याय के उसूलों का उल्लंघन करती हैं – जिसमें पूर्वसूचना का और पीड़ित की बात सुनने का प्रावधान शामिल रहता है – न्यायपालिका ने मकानों एवं संपत्तियों के इस ‘गैरकानूनी किस्म’ के विध्वंस पर एक अस्पष्ट सा रूख अपना रखा था।

निचली अदालतों को तो भूल जाएं, मुल्क के उच्च या उच्चतम न्यायालय भी इस मामले में ढुलमुल दिख रहे थे। पिछले ही साल जमीयत उलेमा- ए-हिन्द  ने उत्तर प्रदेश में मकानों,प्रतिष्ठानों के विध्वंस को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका दायर की थी। हालांकि यह जाहिर था कि कार्यपालिका ज्यादतियां कर रही हैं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने भी अंतरिम स्थगन का आदेश नहीं दिया और विध्वंस की प्रक्रिया मुख्यतः मुस्लिम बहुल इलाकों में बदस्तूर जारी रही।

अगर हम इस समूची पृष्ठभूमि पर गौर करें तो गुवाहाटी उच्च अदालत के फैसले की अहमियत आसानी से समझ में आती है।ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसने सलोनाबाड़ी के मकानों के विध्वंस के मामले को लेकर अदालती कार्रवाइयों पर गौर किया हो तो वह बता सकते हैं कि पहली ही सुनवाई से अदालत ने अपना रूख स्पष्ट किया था। अदालत ने इस बात पर जोर दिया था कि पुलिस ‘‘जांच के नाम पर’’ बिना अनुमति के किसी का भी मकान ध्वस्त नहीं कर सकती है और अगर यह सिलसिला जारी रहा तो ‘‘इस मुल्क में कोई भी सुरक्षित नहीं बचेगा।’’

उसने यह भी जोड़ा ‘‘आप अपराध न्यायप्रणाली के किसी भी कोण से हमें समझाइए कि अपराध की जांच करने के नाम पर पुलिस किसी भी व्यक्ति को बेदखल नहीं कर सकती, बुलडोजर का प्रयोग नहीं कर सकती।’’ अदालत को कार्यपालिका के इस मनमानीपन की तुलना फिल्मों के साथ करने में भी कोई गुरेज नही था। उसने कहा ‘‘मुमकिन है कि फिल्मों मे आप ऐसी ज्यादतियां देखते हों, लेकिन एक सभ्य समाज में इनकी इजाजत नहीं दी जा सकती।’’

क्या यह कहना सही होगा कि कानून के राज की बात पर गुवाहाटी उच्च अदालत का जोर और संवैधानिक सिद्धांतों को बरकरार रखने की उसकी पूरी बेचैनी, इसी वजह से देश के अन्य भागों की न्यायपालिका को भी अपने अस्पष्ट रूख को छोड़ना पडा और एक स्पष्ट स्टैंड लेना पड़ा।

साफ है ऐसा कोई सीधा प्रमाण मिलना मुश्किल है, लेकिन हम नहीं भूल सकते हैं कि गुवाहाटी मामलेमें अदालत के सख्त रूख के बाद ही पटना उच्च अदालत बुलडोजर द्वारा पटना के अंदर भी बुलडोजर के प्रयोग को लेकर सख्त टिप्पणियां की गयी। बिना किसी पूर्वसूचना के एक महिला का मकान ध्वस्त करने के मामले पर गौर करते हुए उसने साफ कहा कि इसमें उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है।

जब याचिकाकर्ता स्त्री ने यह आरोप लगाया कि इस मकान को ध्वस्त कराने  का काम किसी जमीन माफिया के इशारे पर हुआ है, तो न्यायाधीश संदीप कुमार ने पूछा कि ‘‘क्या बुलडोजर यहां भी अब पहुंच गया है ?’’ अदालत ने पुलिस से पूछा ‘‘आप किस की नुमाइंदगी करते हैं, राज्य की या किसी निजी व्यक्ति की ? किसी व्यक्ति का मकान बुलडोजर से ध्वस्त करके आप तमाशा कर रहे हैं।’’

इतनी दूर से इस बात का अंदाज़ा लगाना मुश्किल है कि सलोनाबाड़ी के निवासियों की – जितने भी वहां अब बचे हैं – उच्च अदालत के इस फैसले को लेकर क्या प्रतिक्रिया रही ?

क्या वह जानते हैं कि उच्च अदालत ने उनके हक़ में फैसला दिया है ? जब इस बात पर आप सोचते हैं तो बरबस आप की आंखों के सामने साढे चार साल की तुलतुल बेगम और दस साल के बड़े भाई आदिल का चेहरा आ जाता है, जिनके पिता रोफिकुल इस्लाम भी, उनके दूसरे चाचा, उनकी चाची – जो सफीकुल इस्लाम की पत्नी हैं – और आठवीं कक्षा में पढ़ रही सफीकुलचाचा की बेटी सभी जेल में बंद हैं।

निश्चित ही बस्ती में वह एकमात्र बच्चे नहीं है जिनकी जिन्दगी रातोंरात बदल गयी है।

मुमकिन है तुलतुल बेगम को मुआवजे की बात या पुलिस अधिकारियों पर कार्रवाई की बात बारीकी से समझ में न आती हो, लेकिन दोनों की सूनी आंखें फिलवक्त यही बताती हैं कि उनमें रौनक तभी लौटेगी जब उनके पिता, उनके चाचा ,उनकी चाची, उनकी चचेरी बहन सभी जल्द से जल्द घर लौटें।

वही उनके लिए ईद होगी, वही उनके लिए जश्न की रात साबित होगी!

न्यूजक्लिक से साभार

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