मुनाफे की हवस से तबाह होते जोशीमठ के अस्तित्व और अपने भविष्य के लिए जन संघर्ष जारी

बड़े-बड़े बांधों, जलविद्युत परियोजनाओं के बोझ तले जोशीमठ में ख़तरा हर घंटे बढ़ रहा है। बीते 48 घंटों में ज़मीन धसकने से टूटे मकानों की संख्या 561 से बढ़कर 603 हो गयी है।

उत्तराखण्ड के सीमांत पर बसे ऐतिहासिक-सांस्कृतिक-पर्यटक नगर जोशीमठ में इन दिनों हाहाकार मचा है। लोग दहशत में जिंदगी बिताने के लिए मजबूर हैं। जमीन धंस रही है, मकानों, खेतों, सड़कों, और जमीन में दरारे लगातार चौड़ी और गहरी होती जा रही हैं। कड़ाके की ठंड के बीच लोग घरों से बाहर रहने को मजबूर हैं।

बेहद कठिन परिस्थितियों में जोशीमठ के अस्तित्व के लिये और अपने जीवन व भविष्य के प्रति आशंकित लोगों का संघर्ष जारी है।

पिछले कई महीनों से ऐसी स्थिति बनी हुई है। 7 फरवरी 2021 के बाद से इलाके में कई दरारें दिखना शुरू हुई थीं। ख़तरा हर घंटे के साथ बढ़ता जा रहा है। पूरे क्षेत्र को ‘सिंकिंग ज़ोन’ करार दिया गया है। बीते 48 घंटों में ज़मीन धसकने से टूटे मकानों की संख्या 561 से बढ़कर 603 हो गयी है।

दरअसल वर्ष 2021 फरवरी में चमोली आपदा और फिर 16-17 अक्टूबर की अत्यधिक तीव्र बारिश के बाद समूचा जोशीमठ क्षेत्र अस्थिर है। स्थानीय निवासी घरों में दरारें पड़ने और भू-धंसाव की लगातार शिकायत कर रहे हैं। वैज्ञानिकों ने आगाह किया है कि बारिश का मौसम जोशीमठ के संवेदनशील क्षेत्र में रह रहे लोगों की सुरक्षा के लिहाज से घातक साबित हो सकता है।

इतना ही नहीं भू-वैज्ञानिक और विशेषज्ञ हिमालय के अन्य क्षेत्रों के बारे में भी चेतावनी जारी कर रहे हैं। विशेषज्ञों की मानें तो उत्तरकाशी और नैनीताल भी भू-धंसाव की जद में हैं। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि जोशीमठ की तरह हिमालय की तलहटी में कई अन्य कस्बों में भू-धंसाव का खतरा है।

उत्तराखंड में बड़े-बड़े बांधों, जलविद्युत परियोजनाओं, ऑल वेदर रोड के लिए जरूरत से ज्यादा चौड़ी सड़कों के पैरोकार ने जो दावे किए थे उनकी हकीकत खुद जोशीमठ जैसे क्षेत्र बता रहे हैं। चिपको आन्दोलन से पर्यावरणीय चेतना का संदेश देने वाला रैणी, जोशीमठ क्षेत्र आज अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है।

साभार: एनडीटीवी

कहाँ है जोशीमठ?

जोशीमठ उत्तराखंड के गढ़वाल में भारत-चीन सीमा के करीब स्थित है। यहां से सड़क नीती घाटी की ओर जाती है, जो सीमावर्ती इलाका है। भारत का बाड़ाहोती इलाका वहीं है। यह इलाका सामरिक रूप से बहुत अहम है। जोशीमठ के ऊपर ही औली है, यह एक पर्यटन स्थल है। जहां लोग स्कींग के लिए जाते हैं। औली में बर्फ रहती है, यह 4 हजार मीटर से ज्यादा की ऊंचाई पर है।

समुद्र तल से 1875 मीटर की ऊंचाई पर बसा चमोली का जोशीमठ पहाड़ के एक ढलान पर बसा हुआ है। इसके सामने हाथी पर्वत है। सामने से घाटियों से होता हुआ बद्रीनाथ के लिए तो दाईं ओर से फूलों की घाटी और हेमकुंड के लिए रास्ता जाता है। बद्रीनाथ, फूलों की घाटी और हेमकुंड जाने के लिए जोशीमठ से ही गुजरना होता है।

इस विनाशलीला की असल वजह क्या है?

मुनाफे की आंधी हवस में सरकारी संरक्षण में पूंजीपतियों, ठेकेदारों, छोटी-बड़ी कंपनियों के हित में उत्तराखंड में विशालकाय बांध, जल विद्युत परियोजनाएं, सैकड़ों किलोमीटर लंबी सुरंगें बिछाई जा रही हैं, बारामासी सड़कों व विशालकाय निर्माण का अनियंत्रित मलवा नदियों, गधेरों में डाला जा रहा है, उसी का परिणाम आज जनता भुगतने को मजबूर है।

जोशीमठ के नीचे से एक लंबी सुरंग बनाई गई है। यह सुरंग वहां से शुरू होती है, जहां पिछले साल ऋषिगंगा नदी ने तबाही मचाई थी। जहाँ से हेलंग तक जाती है। दावा है कि इस परियोजना के जरिए तपोवन में पानी स्टोर होगा और सुरंग के जरिए हेलंग तक पहुंचेगा। सुरंग करीब एक किलोमीटर की निचाई में बनाई गई है, जिसपर जमीन का पूरा दबाव है।

साल 2009 में हेलंग से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर इस सुरंग में एक टनल बोरिंग मशीन फंस गई थी, जिसने जमीन के नीचे एक पानी के स्रोत को पंचर कर दिया। जिससे करीब एक महीने तक पानी रिसता रहा। जोशीमठ में दरारों की एक प्रमुख वजह यह है।

दूसरे, पिछले साल तपोवन में आई त्रासदी में सुरंग में जो पानी घुसा था, बताया जा रहा है कि वो ही पानी अब जोशीमठ में आ रहा है। 

तीसरे, सड़कों के लिए पहाड़ के तलहटी को काटा जा रहा है, जो पहाड़ को अस्थिर कर दिया है; विस्फोट किए जा रहे हैं, जिससे चट्टान कमजोर होती गई है।

इसके अलावा अनियंत्रित तरीके से, तमाम आशंकाओं को दरकिनार कर, कंक्रीट के ढांचे- होटल, रिसॉर्ट, दुकानें, मकान खड़ी होती गई हैं।

यह भी अहम है कि जलवायु परिवर्तन का असर उत्तराखंड के समूचे हिमालयी क्षेत्र में बादल फटने की घटनाओं में इजाफा, अत्यधिक तीव्र बारिश और इसके चलते होने वाले भूस्खलन के तौर पर देखा जा रहा है।

विशेषज्ञों ने लगातार दी हैं चेतावनियाँ

जोशीमठ के ऊपर संकट को लेकर वैज्ञानिको ने पहले भी चेताया था. ‘करेंट साइंस’ में मई 2020 में प्रकाशित पेपर में पीयूष रौतेला और एमपीएस बिष्ट ने चेताया था कि जोशीमठ और तपोवन इलाके भूगोल, पर्यावरण के हिसाब से संवेदनशील हैं। इसके बावजूद इस पूरे इलाके में हाइड्रोइलेक्ट्रिक परियोजनाओं को मंजूरी दी गई। विष्णु गरुड़ भी ऐसी ही एक परियोजना है। इसकी सुरंग भौगोलिक रूप से संवेदनशील इलाके जोशीमठ के नीचे से गुजरती है।

एनटीपीसी की इस परियोजना के लिए जो सर्व कराया गया, उसके लिए जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की बजाय एक प्राइवेट कंपनी की मदद ली गई। उस सर्वे में पुराने शोधों का संज्ञान ज्यादा नहीं लिया गया। जिससे सुरंग को लेकर कई सवाल बने हैं। इस पेपर में भी 24 दिसंबर 2009 को सुरंग में मशीन फंसने का जिक्र किया गया है।

साल 1976 में गढ़वाल के आयुक्त एमसी मिस्रा की बनी कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया था कि जमीन की स्थिरता की जांच के बाद ही नया निर्माण करें और ढलान से छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। चट्टानों को खोदकर या धमाका करके ना हटाया जाए। में भूस्खलन के लिहाज से संवेदनशील इस पूरे इलाके में पेड़ ना काटे जाएं। मारवाड़ी और जोशीमठ के बीच बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण किया जाए। पहाड़ की तलहटी पर चट्टानों को सहारा देकर मजबूत किया जाए, ताकि चट्टाने टूटे नहीं। पांच किलोमीटर के दायरे में निर्माण सामग्री ना निकाली जाए।

सुझाव दरकिनार, तबाही का पूरा इंतेज़ाम

7 फरवरी 2021 को ऋषिगंगा नदी पहाड़ से उफनती हुई आई और रास्ते में सब कुछ तहस नहस कर दिया। इसका पानी तपोवन प्रोजेक्ट में गया। यह ऋषिगंगा जाकर धौली गंगा में मिल गई। जिससे तपोवन परियोजना तहस नहस हो गया। परियोजना की सुरंग में पानी घुस गया था। वहां काम कर रहे कई लोगों का अभी तक पता नहीं चल पाया है।

बताया जा रहा है कि सुरंग में जो पानी घुसा था वो अब रिसकर जोशीमठ में निकल रहा है। यहाँ निकल रहे पानी में मिट्टी का रंग ऐसा है, जैसे बांध निर्माण के वक्त होता है।

साभार: न्यूजक्लिक

जनविरोधी परियोजनाओं के खिलाफ साल 2003 से जारी जोशीमठ बचाने का संघर्ष

जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति की रिपोर्ट के अनुसार 23 दिसंबर 2003 को एक पत्र तत्कालीन राष्ट्रपति को दिया था। उसमें जय प्रकाश कम्पनी की विष्णुप्रयाग परियोजना का उदाहरण देते हुए कहा गया था कि यदि जोशीमठ के नीचे इसी तरह सुरंग आधारित परियोजना (जो तब प्रस्तवित भर थी) बनाई जाएगी तो इस नगर का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

राष्ट्रपति भवन से सम्बंधित परियोजना निर्मात्री कम्पनी को सम्बोथित पत्र भी आया, जिसमें पत्र में उठाई गई आशंकाओं का समाधान करने को कहा गया। लेकिन परियोजना निर्माता कंपनी ने उन आशंकाओं और राष्ट्रपति के पत्र- दोनों को ही तवज्जो नहीं दी।

तब आंदोलन ही विकल्प था, जो संघर्ष समिति ने किया।

2005 में परियोजना की जन सुनवाई के समय भी संघर्ष समिति ने वही सारी आशंकाएं जोर-शोर से रखीं। कोई उत्तर नहीं मिला। समिति ने उस जनसुनवाई का विरोध किया क्योंकि कंपनी के पास जनता के सवालों और आशंकाओं का कोई जवाब नहीं था।

फिर परियोजना के शिलान्यास का जबर्दस्त विरोध हुआ। जिसकी परिणति हुई कि तत्कालीन  मुख्यमंत्री को तमाम तैयारियों के बावजूद अपना कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। जोशीमठ में परियोजना का शिलान्यास करने में विफल रहने पर देहरादून में शिलान्यास कर दिया गया और शिलान्यास का  पत्थर जोशीमठ की छाती में गाड़ दिया गया।

दो साल लगातार परियोजना बंद करने के लिए आंदोलन चलता रहा। 24 दिसंबर 2009 को इस परियोजना की सुरंग में टीबीएम के ऊपर बोल्डर गिरने से, मशीन फंस गयी और उस जगह से 600 लीटर पानी प्रति सेकंड निकलने लगा। यह जोशीमठ के स्रोतों का पानी था। सुरंग से बहते पानी से आसन्न खतरे को भांपते हुए जोशीमठ में लम्बा आंदोलन चल।

आंदोलन के परिणामस्वरूप तत्कालीन केंद्रीय ऊर्जा मंत्री, जिला प्रशासन की मध्यस्थता में परियोजना निर्माता कंपनी एनटीपीसी के साथ समझौता हुआ। समझौते के तहत एनटीपीसी को न सिर्फ जोशीमठ के पेयजल की दीर्घकालिक व्यवस्था करनी थी अपितु घर-मकानों के बीमा भी करना था, ताकि यदि मकानों को नुकसान हो तो भरपाई भी हो सके।

समझौते की यह मांग इसलिए पूरी नहीं हुई क्योंकि उसी समझौते के तहत एक हाई पावर कमेटी को परियोजना की समीक्षा भी करनी थी। किन्तु वह कमेटी कभी बैठी ही नहीं।

इस तरह जोशीमठ के भविष्य व अस्तित्व पर तभी प्रश्नचिन्ह लग गया था।

जोशीमठ का उच्च-स्तरीय विशेषज्ञ समिति से वैज्ञानिक जांच की मांग को लेकर लिखा गया पत्र, साभार- अतुल सती

एनटीपीसी और सरकार का बार-बार कहना है कि परियोजना की सुरंग जोशीमठ से दूर है। समिति का सवाल है कि बाईपास सुरंग कहां है? उसकी स्थिति जोशीमठ के नीचे ही है और वह विस्फोटों के जरिये ही बनी है। लोगों को आशंका है कि उसमें कुछ दिन पहले तक लगातार विस्फोट किये जा रहे थे जो जोशीमठ में आज हो रहे भू धंसाव का मुख्य कारण हैं। शेष कारणों ने इस प्रक्रिया को तीव्र करने में योगदान किया है।

इसीलिए जोशीमठ की जनता नगर की तबाही के लिए एनटीपीसी की तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना को जिम्मेदार समझती है और इसे तत्काल बन्द करने की मांग इसीलिए प्रमुख व प्राथमिक मांग है।

अब जब जोशीमठ के अधिकांश घरों में दरारें आ चुकी हैं और कुछ भूगर्भ वैज्ञानिकों ने भी जनता की ही तरह, बड़ी आपदा की आशंका व्यक्त की है, तब अपना जीवन, सम्पत्ति व भविष्य की सुरक्षा की चिंता ने जनता को पुनः सड़कों पर ला दिया है।

यदि सरकार व प्रशासन समय रहते जनता की सुनते और कार्यवाही करते तो यह नौबत नहीं आती। पिछले 14 महीने से लगातार प्रयासों के बावजूद सरकार नहीं जागी और अब हालात काबू से बाहर हैं।

संघर्ष समिति द्वारा मुख्यमंत्री के समक्ष रखे गए बिंदु :

  1. एनटीपीसी की परियोजना पर पूर्ण रोक की प्रक्रिया प्रारंभ हो;
  2. हेलंग-मारवाड़ी बाईपास पूर्णतया बन्द हो;
  3. एनटीपीसी को पूर्व में हुए 2010 के समझौते को लागू करने को कहा जाय, जिससे घर-मकानों का बीमा करने की बात प्रमुख है;
  4. जोशीमठ के समयबद्ध विस्थापन, पुनर्वास एवं स्थायीकरण के लिये, जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति को शामिल करते हुए एक अधिकार प्राप्त उच्च स्तरीय कमेटी का गठन हो;
  5. जोशीमठ में पीड़ितों की तत्काल आवास भोजन व अन्य सहायता हेतु एक समन्वय समिति बने जिसमें स्थानीय प्रतिनिधियों को शामिल किया जाय। लोगों के घर मकानों का आंकलन करते हुए मुआवजा व उनके स्थाई पुनर्वास की प्रक्रिया तुरन्त प्रारंभ की जाए।

संघर्ष समिति ने यही निर्णय लिया है कि जब तक सभी विस्थापित होने वालों के साथ एक समान न्याय नहीं हो जाता व जब तक उपरोक्त मांगों पर ठोस जमीनी कार्यवाही नहीं दिखती, तब तक आंदोलन जारी रहेगा।

इस नगर के व इसके निवासियों के भविष्य के मद्देनजर उत्तराखंड सरकार शीघ्र कार्यवाही करे।

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