यूपी: मोदी-योगी के ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ से छिनती जमीन के ख़िलाफ़ दो महीने से आंदोलनरत हैं ग्रामीण

13 अक्टूबर को बगैर किसी पूर्व सूचना के प्रशासनिक महकमा भारी पुलिस फोर्स के साथ सर्वे हेतु पहुंचा तो विरोध शुरू हुआ। तबसे प्रभावित आठ गांवों के लोगों का जुझारू आंदोलन जारी है।

सन 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज़मगढ़ में अपने एक ‘ड्रीम प्रोजेक्ट की घोषणा की-एक अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा स्थापित करने की घोषणा. चुनाव जीतने के बाद उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने मोदी के सपने को पूरा करने की दिशा में कदम उठाते हुए आजमगढ़ से फैजाबाद की दिशा में स्थित ‘मंदुरी हवाई पट्टी’ को न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा में विस्तारित करने की घोषणा कर दी, बल्कि 2018 में इसका शिलान्यास भी कर दिया.

2022 के मध्य से ही जिले के प्रशासनिक अधिकारियों ने मोदी और योगी के सपनों को अपनी आंख में सजाते हुए इस प्रोजेक्ट को अमली जामा पहनाना शुरू कर दिया. लेकिन जब 13 अक्टूबर को बगैर किसी पूर्व सूचना के प्रशासनिक महकमा भारी पुलिस फोर्स के साथ गांवों में सर्वे के लिए पहुंच गया, तो प्रभावित आठ गांवों के लोगों ने मोदी-योगी और उनके प्रशासनिक अमले के ‘ड्रीम’ को अपनाने से इनकार कर दिया.

ग्रामीणों ने अपना सपना उनके ‘ड्रीम’ के सामने खड़ा कर दिया, जिसके कारण वे पीटे गए. दमन और अधिग्रहण के विरोध में आठों गांवों के लोगों ने ‘खिरिया के बाग’ में इस प्रोजेक्ट के खिलाफ धरने की शुरूआत कर दी. बस इसी दिन से आजमगढ़ का नाम फिर से सुर्खियों में आ गया.

14 अक्टूबर से लगातार चलने वाले इस धरने में महिलाओं की भागीदारी और भूमिका देखकर लगता है कि ‘खिरिया का बाग’ नया ‘शाहीनबाग’ बनने की ओर अग्रसर है. शाहीन बाग और किसान आंदोलन दोनों की प्रेरणा इस धरने पर दिए जाने वाले भाषणों में साफ झलकती है.

हाल की में आजमगढ़ से भाजपा सांसद दिनेश लाल यादव निरहुआ ने अपना अलग सपना देखने वाली आंखों को ‘मनबढ़’ बताते हुए कहा कि उन्हें या तो ‘ऊपर भेज दिया जाएगा या जेल में, या घुटना पंचर कर दिया जाएगा.’ निरहुआ के इस बयान ने ग्रामीणों के गुस्से को और बढ़ा दिया है.

धरने पर बैठे ग्रामीणों का कहना है कि निरहुआ का यह बयान लखीमपुर खीरी के सांसद और राज्यमंत्री अजय मिश्रा टेनी की तरह का है, जिसमें उन्होंने किसानों को ‘पलिया से बाहर निकालने’ और ‘सबक’ सिखाने की धमकी दी थी, जिसके बाद वहां 3 अक्टूबर 2021 की किसानों को रौंदने वाली घटना घटी थी.

यह रिपोर्ट लिखे जाने तक धरने के 71 दिन पूरे हो चुके हैं और धरनास्थल पर स्थाई मंच बनाए जाने की शुरूआत हो चुकी है. मंदुरी में सरकार के ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ को ग्रामीणों के सपने टक्कर देते से दिख रहे हैं.

भाजपा की केंद्र और राज्य सरकार की ड्रीम योजना है कि मंदुरी में 2005 से बनी हवाई पट्टी को विस्तारित कर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे में बदल दिया जाए. 2005 में सपा सरकार में मंदुरी में एक हवाई पट्टी का निर्माण किया गया था, जिसका उद्घाटन 2007 में मुलायम सिंह यादव ने किया था. इसके लिए भी किसानों की जमीनों का अधिग्रहण हुआ था.

ग्रामीणों से यह पूछने पर कि ‘पहले भी तो जमीनें दी थीं और मुआवजा लिया था, तो अब देने में क्या दिक्कत है’ कई लोग एक साथ बोल पड़ते हैं, ‘वो तो बंजर जमीन थी, इसलिए दे दिए थे. लेकिन अबकी तो हमारी खेती की जमीन और घर भी जबरन छीनी जा रही है, इसलिए नहीं देंगे, चाहे जितना भी मुआवजा मिले.’

दिलचस्प बात है कि जिस आजमगढ़ को भाजपा के लोग ‘आतंक का गढ़’ बताते रहे हैं और ये कहते रहे हैं कि ‘इन लोगों को’ खाड़ी के देशों से आतंकवादी गतिविधि के लिए पैसा मिल रहा है, उसी आजमगढ़ में भाजपा की सरकार ही खाड़ी के देशों के लिए यात्रा को आसान बनाना चाहती है.

भाजपा के नेता यहां हवाई अड्डा बनाने के पक्ष में यही प्रचार कर रहे हैं कि ‘इससे सउदिया जाने वाले को बनारस या लखनऊ नहीं जाना पड़ेगा.’ हालांकि सउदिया जाने वाली जनता ने कभी इस हवाई अड्डे की मांग भी नही, क्योंकि उसके लिए बनारस या लखनऊ की दूरी बहुत ज्यादा नहीं है.

फिर सरकार ये हवाई अड्डा किसकी मांग पर बना रही है इसका जवाब भी धरने पर बैठे प्रभावित गांवों के लोग ही दे देते हैं.

‘क्या आपको पता नहीं है कि सरकार हवाई अड्डों को अडानी, अंबानी को दे रही है, लखनऊ और कई जगह का बेच नहीं दी है? उन्हीं के लिए बनवा रही है सरकार.’ जमुआ गांव की रंजना जब ये जवाब देती हैं, बाकी लोग समर्थन में सिर हिलाते हैं. उनकी बात सच भी लगती है.

यह ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ जिसकी भी मांग पर लागू किया जा रहा हो, इसके लिए कुल 660 एकड़ की जमीन का अधिग्रहण होना है. पहले चरण में 310 एकड़ जमीनों का अधिग्रहण होगा. इन जमीनों पर कुल 8 गांव बसे हुए हैं- जमुआ हरिराम, गदनपुर, हिच्छनपट्टी, जिगिना करमनपुर, जमुआ जोलहा, हसनपुर, कादीपुर हरिकेश, जेहरा पिपरी.

इन गांवों के भाजपा प्रभारी शैलेश कुमार रायका कहना है कि इन आठ गांवों में लगभग 2,000 परिवार हैं, जिनकी कुल आबादी लगभग 30,000 है. इस आबादी में ब्राह्मण, ओबीसी और दलित सभी जातियां हैं, लेकिन दलित सबसे ज्यादा हैं.

राय कहते हैं, ‘इन गांवों से भाजपा को वोट दिलाने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई है, लेकिन जब घर और लोग ही नहीं रहेंगे, वोट किसका लेंगे, इसलिए मैं भी इस अधिग्रहण के खिलाफ हूं और धरने में जाता रहता हूं.’

गांव के अंदर जाने पर हर घर में कोई न कोई जानवर जरूर बंधा मिलता है, जिसकी फिलहाल कोई गिनती ही नहीं है. रंजना हंसते हुए बताती हैं, ‘हमारी भेड़-बकरी भी हमारे साथ इसीलिए धरने पर जाती है.’

सरकार के इस ‘ड्रीम’ को नकारने वाले ग्रामीणों से सरकार की ‘विकास परियोजना’ की बात करने पर वे कहते हैं, ‘इसको विकास नहीं कहते हैं, ये तो विनाश है, हमारी हवाई चप्पल पहनने की औकात नहीं है और हमें हवाई जहाज का सपना दिखाया जा रहा है.’

रंजना, शारदा, सुनीता, लालमती, सविता, किस्मती देवी सहित महिलाओं के एक समूह ने बातचीत में एक सुर में कहा कि विकास का मतलब होता है रोजगार के लिए कारखाना लगाना, ये जो अभी हवाई पट्टी है जिसपर झाड़-झंखाड़ उगी हुई है, और जिस पर कभी कोई हवाई जहाज नहीं उतरा, उस पर एक नहीं, दो-तीन कारखाने खुल सकते हैं, हमें अपने घर के पास कारखाना चाहिए, ताकि दो पैसा कमा सकें. ये नहीं है तभी यहां के लोग सउदिया भाग रहे हैं. सरकार से हमारी मांग है कि सरकार शराब पर रोक लगाए, अस्पताल खोले, स्कूल खोले तब विकास होगा.’

शराब पर रोक लगाने की बात महिलाओं की प्रमुख मांगों में एक है. ग्रामीणों के इन सपनों को पूरा करने की बजाय उनके नीचे से जमीन छीनने की तैयारियां शुरू कर दी गई हैं.

एक चिंताजनक पहलू यह भी है कि 12 अक्टूबर के बाद से इन गांवों में 11 असमय मौतें हो चुकी हैं. गांव वालों का कहना है कि ये मौतें जमीन जाने के सदमे के कारण हो रही हैं, क्योंकि मृतकों में से ज्यादातर लोग जमीन छिन जाने को लेकर काफी चिंतित थे और उनकी मौत भी हार्टअटैक से हुई है.

1992 में संविधान के 73वें संशोधन के साथ यह प्रावधान किया गया था कि ग्राम सभा और पंचायतें जो सत्ता की सबसे छोटी इकाई हैं, को अपने क्षेत्र की विकास योजनाएं खुद बनाने का अधिकार है. यह संशोधन सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए किया गया था. लेकिन असलियत ये है कि तब से आज तक सत्ता का केंद्रीकरण ही बहुत अधिक बढ़ा है.

अपना विकास खुद तय करने के राज्यों और जिलों के अधिकार भी लगभग खत्म हो गए हैं, ग्राम सभाओं के बारे में तो ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता. मंदुरी हवाई अड्डा परियोजना में जिन आठ गांवों की जमीनें जा रही हैं, वहां बसे ग्रामीणों से तो दूर, सरकार के किसी प्रतिनिधि ने कभी यहां के ग्राम प्रधानों तक से सलाह-मशविरा नहीं किया.

13 अक्टूबर को जब जिला प्रशासन की टीम गांवों में घुसी, तो उन्होंने ग्राम प्रधानों के साथ भी बदसलूकी की और घंटों उन्हें बंधक बनाए रखा. इससे गांव वालों का गुस्सा और भी ज्यादा बढ़ गया.

2013 में यूपीए सरकार द्वारा लाए गए ‘भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास कानून’ में एक महत्वपूर्ण बदलाव किया गया था कि जमीन अधिग्रहण यदि निजी परियोजना के लिए किया जा रहा है, तो अधिग्रहण की जाने वाली ज़मीन पर बसे 80 प्रतिशत लोगों की सहमति आवश्यक होगी और यदि अधिग्रहण पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप वाली परियोजना के लिए किया जा रहा है तो 70 प्रतिशत लोगों की सहमति आवश्यक होगी.

हालांकि इस कानून में भी सरकार के पास ‘राष्ट्रहित’ में किसी भी जमीन के अधिग्रहण की शक्ति दे दी गई थी, फिर भी यह जमीनों की मनमानी लूट पर एक हद तक रोक लगाती थी. लेकिन 2014 में बनी नरेंद्र मोदी की सरकार ने सत्ता में आते ही नया भूमि अधिग्रहण बिल लाकर किसानों से सहमति लेने वाले प्रावधान को खत्म कर दिया था.

इस पर तीखा विरोध हुआ और कृषि कानून की तरह मोदी सरकार को इस बिल को भी वापस लेना पड़ा था. इसके बाद भी सरकार वापस लिए गए बिल के प्रावधानों को ही लागू करते हुए बिना किसानों से बात किए, बिना उनकी सहमति के जमीनों के अधिग्रहण की कार्रवाई शुरू रही है. यह मौजूदा कानून के खिलाफ है.

इस हवाई अड्डे के लिए अधिग्रहण की जाने वाली जमीनों के मालिकों से कभी भी कोई बात नहीं की गई बल्कि 13 अक्टूबर को सीधे भारी पुलिस बल के साथ डीएम, एसडीएम और राजस्व विभाग के अधिकारियों ने नापजोख का काम शुरू कर दिया. संवैधानिक और कानूनी दोनों ही लिहाज से यह अधिग्रहण गलत है.

ग्रामीणों ने बताया कि उन्हें 12 तारीख के पहले नहीं पता था कि हवाई अड्डे के लिए उनकी ज़मीनें ली जानी हैं. 12 तारीख की रात से सोशल मीडिया पर यह खबर घूमने लगी थी कि इन गांवों में भी अधिकारी सर्वे के लिए आएंगे. 13 तारीख को 11 बजे सुबह कई गाड़ियों में भरकर महिला और पुरुष पुलिस वाले, जिले के अधिकारी और कानूनगो, लेखपाल सभी आ गए और नापजोख शुरू कर दी.

गांव वालों ने यह देखा, तो डरने की बजाय सर्वे की जगह पर दौड़ पड़े, जिसमें खेतों पर काम कर रहीं औरतें आगे थीं. सबने एक दूसरे को फोन करके बुला लिया. एमए में पढ़ने वाली सुनीता ने अपने खेतों में नापने का फीता देखा तो दौड़ पड़ी और उसे उठाकर फेंक दिया, पुलिस वालों ने उसे रोकना चाहा और वज्र वाहन की ओर घसीटकर ले जाने लगे, लेकिन दूसरी औरतों ने उसे छुड़ा लिया.

इसके बाद और औरते भी आ गईं. लोग बढ़ने लगे तो पुलिस ने लोगों को मारना-पीटना शुरू कर दिया, जिसमें कई लोगों को चोटें आईं, कुछ को गंभीर चोट भी आई. जो लोग इन घटनाओं का वीडियो बना रहे थे, पुलिस वालों ने उन्हें भी पीटा. सुनीता भारती, फूलमती, प्रभादेवी, ज्ञानमती को काफी चोटें आईं. 6 ग्रामीणों को पुलिस वालों ने 24 घंटे थाने में बंद रखा. पुरुष पुलिसकर्मियों ने महिलाओं को अश्लील गालियां दीं और अभद्र टिप्पणियां कीं.

शाम तक ग्रामीणों और पुलिस वालों के बीच यह गुरिल्ला युद्ध चलता रहा. फिर सभी वापस लौट गए, लेकिन रात में पुलिसकर्मी डीएम की टीम के साथ फिर आए. पुलिस वाले लोगों के घरों में बाहर से कुंडी बंद करने लगे, लेकिन लोग बाहर निकल आए, इस समय भी पुलिस वालों ने लोगों को लाठियों से पीटा.

इस घटना के बाद से गुस्साए लोग धरने पर बैठ गए. बात सब जगह फैल गई जिसके कारण उसके बाद सर्वे के लिए नहीं आए, लेकिन बताया गया है कि कभी पुलिस के अधिकारी ग्रामीणों के पास रासुका लगाने की धमकियां भिजवा रहे हैं, तो कभी भाजपा सांसद घुटना तोड़ने, जेल में डालने की धमकी दे रहे हैं.

26 नवंबर को संविधान दिवस पर जब संयुक्त किसान मोर्चा ने ‘लखनऊ चलो’ का आह्वान दिया था, तब एक दिन पहले ही इन गांवों में पुलिस बल तैनात कर दिया गया, ताकि यहां से लोग लखनऊ न जा सकें.

इन सबके बीच दुखहरन राम, राम नारायण, राजेश आज़ाद, राजीव यादव के नेतृत्व में ‘जमीन-मकान बचाओ संघर्ष मोर्चा’ के तहत ग्रामीणों का धरना न सिर्फ जारी है, बल्कि उनके समर्थन का दायरा भी बढ़ता जा रहा है. उन्हें आज़मगढ़ के सामाजिक कार्यकर्ताओं, संयुक्त किसान यूनियन, एनएपीएम, सहित बड़े और छोटे संगठनों का समर्थन मिल चुका है.

धरने को समर्थन देने के लिए मेधा पाटकर, राकेश टिकैत, गुरनाम सिंह चढ़ूनी, संदीप पांडेय सहित कई जाने-माने व्यक्तित्व खिरिया का बाग पहुंच रहे हैं. लेकिन सरकार का कोई भी प्रतिनिधि अब तक वार्ता के लिए नहीं पहुंचा है.

सरकार ने इस प्रोजेक्ट को नाक का सवाल बना लिया है, तो जनता के लिए यह जीने मरने का सवाल है. महिलाएं इस आंदोलन का मजबूत हिस्सा हैं. वे बिना झुके इस आंदोलन को लंबे समय तक चलाने की ठान चुकी हैं. वे हर रोज घर के काम आदि निपटाकर धरने को सफल बना रही हैं. वे नारे लगा रही हैं, भाषण दे रही हैं और हर आने वाली परिस्थिति से दो-चार करने की योजना बना रही हैं.

द वायर से साभार

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