गुड़गांव-मानेसर: ठेका मज़दूरों के संघर्षों का ट्रेड यूनियन आन्दोलन पर प्रभाव

उत्पादन में अस्थायी मज़दूरों की भूमिका पहले से और भी बढ़ गयी है। स्थायी मज़दूरों पर छंटनी की तलवार लटक रही है। ऐसे में ठेका मज़दूरों के संघर्ष पूरे मज़दूर आन्दोलन में एक निर्णायक भूमिका रखेंगे।

हालांकि आज उत्पादन का बड़ा हिस्सा ठेका, अपरेंटिस और ट्रेनी मज़दूरों द्वारा ही किया जा रहा है, संगठित ट्रेड यूनियन आंदोलन में मुख्यतः स्थायी मज़दूरों की ही भागीदारी रहती है। यह ट्रेड यूनियन आन्दोलन की लंबे समय से बढ़ रही चुनौती है जो आज विकराल रूप ले चुकी है। 

ध्यानतलब है कि अधिकतर ट्रेड यूनियनों का औपचारिक हिस्सा न हो कर भी ठेका श्रमिक ना केवल लगातार संघर्ष लड़े हैं और अपने लिए अधिकार और सुविधाएं भी जीती हैं बल्कि इन संघर्षों का ट्रेड यूनियनों और स्थायी मज़दूरों पर भी प्रभाव रहा है। इस सम्बन्ध को ठीक से ना समझ पाना कुल मज़दूर आन्दोलन के विकास में एक बड़ी बाधा है। गुड़गांव-मानेसर क्षेत्र में हुए मज़दूर आन्दोलन इस बात की भरपूर गवाही देते हैं।

यूनियनों के संघर्ष और स्थायी-ठेका का बढ़ता विभाजन

2000 के पहले जब मारुति गुड़गांव प्लांट में यूनियन थी तब तक वहां एक भी ठेका मज़दूर नहीं था। अपरेंटिस आते थे फिर स्थाई हो जाते थे। उत्पादन प्रक्रिया में ठेकाकरण और तनख्वाह में इंसेंटिव का शामिल होना मारुती के 2000 के आन्दोलन के मुख्य मुद्दों में थे। 2005 में होंडा के आंदोलन में यूनियन बनाने के लिए ठेका मज़दूरों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया।

होंडा में लम्बे संघर्ष के बाद जब यूनियन बनी तो स्थाई मज़दूर ही यूनियन सदस्य बने और उन्हें कई सुविधाएं मिलीं। यूनियन के सदस्य ना होते हुए भी होंडा के ठेका श्रमिकों की स्थिति क्षेत्र के अन्य कंपनी के ठेका श्रमिक के मुकाबले बेहतर, लेकिन स्थायी मज़दूरों से कम थी। बस और रिलीवर की जो सुविधा उन्हें मिलती थी वो अधिकतर कंपनियों के पक्के मज़दूरों को भी नहीं मिलती थी।  

होंडा में यूनियन बनना एक आगे का कदम था, मगर यूनियन की नज़र आती सफलता के पीछे, मज़दूरों के अन्दर लगातार बढ़ते विभाजन की विफलता भी छिपी थी। हर समझौते के साथ यह विभाजन बढ़ता गया। स्थाई मज़दूरों को काफ़ी सुविधाएं मिल जाती तो ठेका मज़दूरों को नाम मात्र सुविधाएं ही मिलती। 

बाद में यूनियन के साथ होंडा प्रबंधन के समझौते में मांगें पूरी न होने पर ठेका मज़दूरों ने 2008 और 2010 में जब आवाज़ उठायी तो स्थाई उनका साथ नहीं दे सके। अंततः, 2019 में 650 ठेका मज़दूरों की छंटनी के ख़िलाफ़ ठेका मज़दूरों द्वारा प्लांट पर कब्ज़ा कर लेने के जुझारू कदम ने स्थायी मज़दूरों को भी धरने में शामिल होने को मजबूर किया। हालांकि तब भी आन्दोलन में स्थायी मज़दूरों की यूनियन का ही वर्चस्व बना रहा। 

इस संघर्ष को स्थायी मज़दूरों द्वारा मिले समर्थन के पीछे यह सच्चाई भी थी कि यूनियन के साथ प्रबंधन ने बीते डेढ़ साल से माँगपत्र पर कोई बात नहीं की थी। आंदोलन से ठेका मज़दूरों को मिलने वाले मुआवज़े में अर्थपूर्ण बढ़ोतरी हुई। जिसके बाद कंपनी ने यूनियन प्रधान सुरेश गौड़ सहित स्थायी मज़दूरों की बड़ी संख्या को जबरन वीआरएस दे दिया। ज़ाहिर है कि ठेका मज़दूरों के संघर्ष ने स्थायी मज़दूरों पर गिरने वाली वीआरएस की गाज को भी कुछ समय तक रोके रखने में भूमिका निभाई।

संघर्ष से सबक लेते रहे ठेका मज़दूर

2011 से चले मारुती आन्दोलन में होंडा के ठेका मजदूरों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। मारुती में स्थाई हुए कई मज़दूर पहले होंडा में ठेका मज़दूर थे। इससे उन्होंने आंदोलन का अनुभव भी पाया था, संघर्ष से मिलने वाली शक्ति का एहसास भी किया था, व ठेका मज़दूरों के यूनियन से बाहर रह जाने की निराशा भी देखी थी।

मानेसर प्लांट में पहली हड़ताल करने वाली यूनियन का नेता शिव कुमार खुद होंडा का ठेका मज़दूर रहा था। होंडा में ठेका मज़दूरों का अनुभव मारुती आन्दोलन में ठेका प्रथा के ख़िलाफ़ मज़दूरों में बनी तीख़ी भावना का एक महत्वपूर्ण आधार था।

मज़दूरों की यह सोच थी कि ठेके के साथियों को आंदोलन में पीछे नहीं छोड़ेंगे, मगर यह नहीं समझ पाए कि कंपनी द्वारा बनाए गए विभाजन की जटिलताओं को पार करके उन्हें कैसे जोड़े रखें। पीछे मुड़ कर देखें तो एहसास होता है कि यूनियन में ठेका मज़दूरों की औपचारिक सदस्यता ना हो पाने के कारण हमारी यूनियनें अपनी सभी मजबूती, जुझारूपन और एकता के बावजूद शुरू से ही कमज़ोर रहीं।

जो विभाजन प्रबंधन ने बनाया वही आन्दोलन के अन्दर भी बना रहा। मज़दूरों में यह व्यापक सोच थी कि स्थाई मज़दूर ही यूनियन के सदस्य हो सकते हैं। ठेका मज़दूरों में भी निकाले जाने का डर था।

ठेका प्रथा का अंत मारूति आंदोलन की एक प्रमुख मांग थी। 2012 तक प्रबंधन के साथ बने टकराव में यूनियन और स्थायी मज़दूर अपनी बात पर दृढ़ता से डटे रहे। 2012 की घटना के बाद मारुति ने सच में पुराने रूप में ठेका प्रथा ख़त्म कर दी और अलग अलग प्रकार के ट्रेनी, एफटीसी, अपरेंटिस इत्यादि की और भी विभाजित व्यवस्था बना दी।

आज इस औद्योगिक क्षेत्र में 2005 के बाद चले स्थायी मज़दूरों की यूनियनों के संघर्ष काफ़ी हद तक दमन और कमज़ोरी के दौर में हैं। उत्पादन में अस्थायी मज़दूरों की भूमिका पहले से और भी बढ़ गयी है। स्थायी मज़दूरों पर हर समय छंटनी की तलवार लटक रही है। ऐसे में इस क्षेत्र में ठेका मज़दूरों के संघर्ष पूरे मज़दूर आन्दोलन में एक निर्णायक भूमिका रखेंगे। 

होंडा के अतिरिक्त, अस्ति, मारुति मानेसर और हीरो में ठेका मज़दूरों के महत्वपूर्ण संघर्ष रहे। हाल में ही हिताची और सनबीम के ठेका मज़दूरों में भी छंटनी के ख़िलाफ़ कुछ सक्रियता बनी है। अब तक के अनुभव से साफ़ है कि यह संघर्ष ठेका मज़दूरों को अपने बल पर लड़ते हुए अपने बीच से पूरे क्षेत्र के लिए एक नए नेतृत्व को जन्म देना होगा।

खुशी राम

‘संघर्षरत मेहनतकश’ अंक-48 (नवम्बर-दिसंबर, 2022) में प्रकाशित

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