15 साल का संघर्ष: मुंबई हाईकोर्ट से इप्का लेबोरेटरीज़ के श्रमिकों की सवेतन कार्यबहाली का आदेश

साल 2007 में माँगपत्र पर औद्योगिक विवाद और आईआर कार्यवाही के दौरान 4 श्रमिक बर्खास्त हुए थे। हाईकोर्ट में अधिवक्ता जेन कॉक्स की जोरदार पैरवी से मज़दूरों की शानदार जीत मिली।

सिलवासा। बॉम्बे हाईकोर्ट की डिवीज़न बेंच ने केंद्र शासित प्रदेश सिलवासा में स्थित फार्मा कंपनी इप्का लेबोरेटरीज़ में 15 साल पहले निकाले गए चार श्रमिकों को पुनः कार्यबहाली करने का आदेश दिया है। साथ ही पिछले 15 साल का वेतन ब्याज़ समेत देने का भी आदेश दिया।

उच्च न्यायालय ने इस आदेश को लागू करने के लिए कंपनी को तीन महीने की मोहलत दी है। पीड़ित श्रमिक अवधेश सिंह यादव, शंकर सी वसावा, चेतन एम पटेल, अश्विनी आर सिंह हैं। श्रमिकों का कहना है कि उनका कंपनी पर अभी तक कुल 27 से 30 लाख रुपये तक बकाया है जिसे कंपनी को देना होगा।

15 साल की बेरोज़गारी के दौरान इन श्रमिकों के लिए रोज़मर्रे का जीवन काफी संघर्षमय हो गया था। बच्चों को पढ़ाने, शादी ब्याह करने और घर चालने के लिए दिहाड़ी मजदूरी कर किसी तरह खर्च पूरा करने की कोशिश करते थे। यूपी के रहने वाले अवधेश सिंह यादव की हालत सबसे बुरी थी। इस बीच उन्हें गांव जाकर खेती बाड़ी करके गुजारा करना पड़ा।

माँगपत्र पर विवाद; मज़दूरों की बर्खास्तगी

साल 2007 में कंपनी में मजदूरों और प्रबंधन के बीच वेतन समझौता वार्ता चालू थी। इसी दौरान प्रबंधन और मजदूरों में तनाव अधिक बढ़ गया था। कंपनी ने आरोप लगाया कि उसके एक अधिकारी को चार मज़दूरों ने पीटा है और घरेलू जांच बैठा दी।

मज़दूरों ने कहा कि इस घरेलू जांच कमेटी में क्रांतिकारी कामगार यूनियन के एक प्रतिनिधि को शामिल किया जाना चाहिए ताकि नैसर्गिक न्याय की शर्तों को पूरा किया जा सके। उल्लेखनीय है कि क्रांतिकारी कामगार यूनियन के ये मज़दूर सदस्य थे।

लेकिन प्रबंधन का कहना था कि केंद्र शासित प्रदेश में क्रांतिकारी कामगार यूनियन रजिस्टर्ड नहीं थी इसलिए जांच कमेटी में उनके लिए जाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। कथित जांच के बाद इन चारों श्रमिकों को बर्खास्त कर दिया गया।

गौरतलब है कि वेतन समझौता के लिए श्रम विभाग में वार्ता/आईआर कार्यवाही जारी थी और औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत आईआर कार्यवाही के दौरान कोई भी कार्रवाई करने से पूर्व कंपनी को संबंधित श्रम अधिकारी से अनुमति/अनुमोदन लेना अनिवार्य है। इस मामले में श्रम अधिकारी ने बगैर कोई प्रक्रिया पूरी किए कंपनी को मंजूरी दे दी थी और चार श्रमिकों को बर्खास्त कर दिया गया।

क्रांतिकारी कामगार यूनियन के सेक्रेटरी आर.डी. जादव ने वर्कर्स यूनिटी को बताया कि जब कंपनी मंजूरी के लिए आवेदन करती है तो पूरी कार्यवाही होती है। मज़दूरों से जवाब मांगा जाता है और दोनों पक्ष सबूत पेश करते हैं। लेकिन प्रबंधन के आवेदन पर बिना मजदूरों का पक्ष जाने अनुमति दे दी गई।

मजदूरों ने इस मनमानी कार्यवाही के ख़िलाफ़ बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाज़ खटखटाया। इस मामले में 2009 में हाईकोर्ट ने मज़दूरों के पक्ष में फैसला सुना दिया। लेकिन कंपनी ने रिव्यू पेटीशन दाखिल कर दिया जिसे कोर्ट ने सुनवाई के लिए स्वीकार भी कर लिया। तबसे मुकदमा चल रहा था। 23 नवंबर 2022 को हाईकोर्ट ने अपना आदेश पारित कर दिया।

अधिवक्ता जेन कॉक्स की जोरदार पैरवी; मज़दूरों की शानदार जीत

आर.डी. जादव ने कहा – “सिलवासा में जो अंधा कानून चल रहा था और मजदूरों के खिलाफ़ प्रशासन और प्रबंधन मिलीभगत से जो बर्ताव कर रहे थे, इस फैसले ने उनके मुंह पर तमाचा मारा है।”

उनका कहना है कि मज़दूरों के पक्ष में आज तक ऐसा फैसला नहीं हुआ, ये मजदूरों के लिए बड़ी जीत है। मज़दूरों की तरफ़ से जानी मानी वकील जेन कॉक्स ने पैरवी की थी।

क्रांतिकारी सुरक्षा रक्षक संगठना के उपाध्यक्ष गजानंद गोविंद सालुंके का कहना है कि “जेन कॉक्स ने मज़दूरों के लिए अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी।” वो मज़दूरों के ही मुकदमे लेती हैं और उनको न्याय दिलाने की पूरो कोशिश करती हैं।

उन्होंने बताया कि, “जेन इंग्लैंड से लॉ की डिग्री हासिल की और फिर इंडिया आ गईं और महाराष्ट्र में उन्होंने मज़दूरों के बीच काम करना शुरू किया।” ठेका मजदूरों के लिए खासकर उन्होंने कई महत्वपूर्ण क़ानूनी लड़ाई लड़ी। वो बहुत मामूली फ़ीस पर मज़दूरों के मुकदमे लड़ती हैं। अधिकांश मामले में उन्हें जीत हासिल हुई।

साभार: वर्कर्स यूनिटी

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