ये फैसले का वक़्त है, तू आ क़दम मिला!

इस कठिन चुनौतीपूर्ण दौर में सभी तबके के मेहनतकशों को गोलबंद करके एक सशक्त आंदोलन को खड़ा करना होगा। मज़दूर वर्ग के वास्तविक सम्मान की बहाली को पाने के लिए भी संघर्ष को अंतिम मुकाम तक जारी रखना होगा!

10 साल पहले देश में एक माहौल बन रहा था मज़दूर-मेहनतकश जनता के ऊपर गंभीर संकट और तबाही को खत्म करने के नाम पर परिवर्तन की आंधी बह रही थी। साल 2014 में परिवर्तन हुआ लेकिन पुरानी बोतल मे नई शराब भर गई। मज़दूर मेहनतकश जनता के संकट का नया दौर शुरू हुआ।

नोटबंदी का कहर बरपा हुआ, जनता लंबी-लंबी कतारों में लगकर पिसती और मरती रही, लेकिन काला धन वापस नहीं आया। जीएसटी ने आम जनता की बुनियादी ज़रूरतों के सामान व आटा-चावल-दूध को भी अपने दायरे में लेकर महँगाई बेलगाम बना दिया। कोविड-महामारी के बहाने भयावह कहर बरपा हुआ और जनता पर संकटों का पहाड़ और ज्यादा लद गया। जबकि पूँजीपतियों को भरपूर टैक्स छूट मिलती रही, हजारों करोड़ का बैंक लोन माफ़ होता रहा।

नीम ट्रेनी के नाम पर फोकट के मज़दूर भर्ती होने लगे, स्थाई नौकरी की जगह सेना तक में ‘फिक्स्ड टर्म’ थोप दिया गया। मज़दूरों के संघर्षों से हासिल श्रम कानूनी अधिकार खत्म करके चार लेबर कोड से मज़दूरों को बंधुआ बनाने का इंतजाम हो गया। सरकारी और सार्वजनिक उद्योग व संपत्तियाँ तेजी से बिकती रहीं। आम जनता कंगाल होती रही और अडानियों व अंबानियों की पूँजी बेइंतहा बढ़ती चली गई।

ऐसे ही समय में देश भर के किसानों ने अपने जुझारू आंदोलन से मोदी सरकार को कॉरपोरेटपरस्त काले कृषि क़ानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया। उसके पहले सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन मोदी सरकार के सामने चुनौती पेश कर चुकी थी। लेकिन अयोध्या में ‘भव्य मंदिर’ बनाने, मथुरा-काशी फतह करने, नफरत की आंधी के बीच मोदी सरकार का मज़दूर विरोधी-जन विरोधी घोड़ा सरपट दौड़ता रहा, जिसे ‘प्रचंड बहुमत’ ने और बेलगाम बनाया।

इसी दौर में मज़दूर आबादी छँटनी, बंदी, रोजगार, महँगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के खिलाफ लगातार संघर्षों में डटी रही। मारुति-होंडा-प्रिकोल-एलाइड निप्पन, माइक्रोमैक्स, इंटरार्क से लेकर बेंगलुरु में गारमेंट मज़दूरों, केरल के चाय बागान मज़दूरों, आर्डिनेंस-खदान श्रमिकों, आशा-आंगनवाड़ी कर्मियों, प्लेटफ़ॉर्म और गिग मज़दूरों का जुझारू संघर्ष चलता रहा।

स्थापित केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें अपनी कमजोरी, समझौतापरस्त नीति के चलते मज़दूरों के ऊपर बढ़ते दमन और छिनते अधिकारों के बीच साल भर में एक या दो हड़तालों की कुछ रस्में पूरी करने तक आंदोलन को सीमित कर दिया। जिसने मज़दूरों में निराशा भी बढ़ाई। हालांकि किसान आंदोलन ने कॉर्पोरेट-पक्षीय कृषि कानूनों के खिलाफ निरंतर जुझारू आंदोलन चलाने का उदाहरण पेश किया है।

ऐसे में देशभर के संघर्षशील मज़दूर संगठनों ने 2016 में मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान (मासा) का गठन किया। मासा का मानना है कि आज के इस कठिन चुनौतीपूर्ण दौर में सभी तबके के मेहनतकशों को गोलबंद करके एक सशक्त आंदोलन को खड़ा करना होगा, जो निरंतरता में जुझारू और मज़दूर वर्ग के निर्णायक आंदोलन की दिशा में आगे बढ़ सके। मासा ने 3 मार्च 2019 को दिल्ली के रामलीला मैदान से संसद भवन तक एक बड़ी रैली करके अपनी आवाज बुलंद की थी। कोविड-पाबंदियों के दौर में जब मोदी सरकार के हमले तेज हो रहे थे, संघर्षों को रोकने के लिए तमाम अवरोध खड़े हो रहे थे, तब भी मासा ने अपनी आवाज निरंतरता में जारी रखी।

अब जब मोदी सरकार लेबर कोड लागू करने के लिए पूरी मुस्तैद है, तब मासा ने 13 नवंबर को मज़दूर आक्रोश रैली का आह्वान किया। मासा का मक़सद सिर्फ चार लेबर कोड को वापस करने का नहीं है बल्कि मज़दूरों के हित में श्रम कानूनों में परिवर्तन, छँटनी-बंदी पर क़ानूनन रोक, नीम ट्रेनी-फिक्स्डटर्म जैसे अस्थाई और संविदा आधारित रोजगार पर प्रतिबंध, हर हाथ को सम्मानजनक काम, स्थाई-अस्थाई हर तबके के मज़दूरों को सम्मानजनक वेतन, सामाजिक और कार्यस्थल की सुरक्षा मिले।

स्पष्ट है कि जब-तक मुनाफे पर आधारित नीतियां बनती और लागू होती रहेंगी, तब-तक मेहनतकश मज़दूर आबादी को सम्मान नहीं मिल सकता है, इसलिए मज़दूर वर्ग के वास्तविक सम्मान की बहाली को पाने के लिए भी संघर्ष को अंतिम मुकाम तक जारी रखना होगा!

‘संघर्षरत मेहनतकश’ अंक-48 (नवम्बर-दिसंबर, 2022) का संपादकीय

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