उत्तराखंड की महिलाओं का सुप्रीम कोर्ट के बाहर प्रदर्शन, किरण नेगी के हत्यारों को बरी करने से आक्रोश

उत्तराखंड: तिलक मार्ग थाने से भारी पुलिस फोर्स मौके पर पहुंची जिसके बाद प्रदर्शन कर रही महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
भारतीय न्यायिक संस्थाओं के बेतुके फैसलों से आहत उत्तराखंड की महिलाओं का आक्रोश किरण नेगी के हत्यारों को बरी किए जाने के बाद फूट पड़ा। गुरुवार 10 नवंबर को उत्तराखंडी महिलाओं ने सुप्रीम कोर्ट के बाहर प्रदर्शन न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपने गुस्से का इजहार किया। सुप्रीम कोर्ट पर प्रदर्शन की जानकारी मिलते ही दिल्ली पुलिस के हाथ पांव फूल गए। खबर लिखे जाने तक गिरफ्तार इन महिलाओं को निजी मुचलके पर रिहा कर दिया गया है।
गौरतलब है कि कि मूल रूप से उत्तराखंड के पौड़ी जनपद निवासी किरण नेगी की ग्यारह साल पहले दिल्ली में तीन युवकों ने बलात्कार के बाद क्रूरता के साथ हत्या कर दी थी। अपराधियों द्वारा किरण के साथ की गई क्रूरता का यह आलम था की ट्रायल कोर्ट ने इसे फांसी से कम का मामला नहीं माना था। हाईकोर्ट ने एक कदम और आगे बढ़कर टिप्पणी की थी कि यह हत्यारे सड़क पर शिकार की तलाश में घूम रहे थे। इन पर रहम का अर्थ न्याय की गरिमा को नुकसान पहुंचाना है। निचले स्तर की अदालतों की इतनी प्रतिकूल टिप्पणियों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने आश्चर्यजनक रुख अपनाते हुए इन सजायाफ्ता अपराधियों को जुर्म से ही बरी कर दिया।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किरण नेगी के हत्यारों को छोड़े जाने के खिलाफ उत्तराखंड में उबाल आ गया। राज्य की विस्फोटक स्थिति को देखते हुए खुद राज्य सरकार को इसमें बयान देने के लिए मजबूर होना पड़ा। मौजूदा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने खुद इस मामले में केंद्रीय कानून मंत्री से बात की तो पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण घटना बताया। इसके साथ ही उत्तराखंड मूल के अधिवक्ता भी इस मामले में रिव्यू पिटिशन दायर करने के लिए लामबंद होने लगे। इतना ही नहीं दिल्ली स्थित उत्तराखंड के लोगों के संगठनों में भी कोर्ट के इस निर्णय के खिलाफ विरोध के स्वर उभरने लगे।
गुरुवार को सर्च माई चाइल्ड की अध्यक्ष कुसुम कंडवाल भट्ट की अगुवाई में उत्तराखंड मूल की महिलाएं देश के सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ सड़कों पर ही उतर पड़ी। सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ महिलाओं के प्रदर्शन की खबर जैसे ही दिल्ली प्रशासन को लगी, समूचे प्रशासन में हड़कंप मच गया। आनन फानन में निकटवर्ती तिलक मार्ग थाने से भारी पुलिस फोर्स मौके पर पहुंच गया। मौत के बाद किरण नेगी और उसके परिवार को इंसाफ दिलाए जाने के मकसद से सड़कों पर उतरी उत्तराखंडी महिलाओं का रौद्र रूप देखकर दिल्ली पुलिस के अधिकारी भी सकते में आ गए।
अधिकारियों ने महिलाओं को समझाने का काफी प्रयास किया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से महिलाएं इतनी आक्रोशित थीं कि अधिकारियों की कोशिश सफल नहीं हो पाई। महिलाओं का दो टूक सवाल था कि जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा छोड़े गए इन सजायाफ्ता अपराधियों ने किरण की हत्या नहीं की है तो, किरण की मौत का जिम्मेदार आखिर है कौन।
घंटों की जद्दोजहद के बाद आंदोलित इन महिलाओं को गिरफ्तार कर तिलक मार्ग थाने ले जाया गया। जहां से दो घंटे बाद इन्हें निजी मुचलके पर रिहा कर दिया गया। इस दौरान आंदोलन करने वालो में दीपिका ध्यानी, रोशनी, दीपा, प्रेमा धौनी, दीपक, किरण लखेड़ा, लक्ष्मी रावत सहित कई महिलाएं मौजूद रही।
इस मामले में सर्च माई चाइल्ड की कुसुम कंडवाल भट्ट ने बताया कि एनसीआर क्षेत्र में करीब 30 लाख लोग उत्तराखंड मूल के हैं, लेकिन एकजुटता के अभाव में इनका कोई सशक्त प्रतिरोध न होने की वजह से उत्तराखंडी मूल के लोगों के खिलाफ अपराधों की बाढ़ सी आई हुई है। उत्तराखंड के लोग मेहनत के दाम पर अपनी रोजी रोटी कमा रहे हैं। लेकिन ऐसी घटनाओं की रोकथाम के लिए उन्हें अपनी एकजुटता के लिए भी सचेत रहना होगा।
गुरुवार 10 नवंबर को देश के सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ सड़कों पर उतरी उत्तराखंडी महिलाओं को देखकर मौजूदा अदालती सम्मान के कारण भले ही इसे उनका दुस्साहस समझा जा रहा हो, लेकिन यह उत्तराखंड के स्वभाव में पहले से ही है। अपनी अस्मिता पर चोट लगने पर राज्य के लोग पहले भी न्यायिक संस्थाओं के सामने न केवल डटकर खड़े हो चुके हैं, बल्कि अदालतों को अपना फैसला बदलने पर भी मजबूर कर चुके हैं।
उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने भी साल 2002 में ऐसे ही उत्तराखंडी अस्मिता के सवाल से जुड़े एक मामले में मुजफ्फरनगर कांड के दोषी तत्कालीन जिलाधिकारी अनंत कुमार सिंह को बरी कर दिया था, जिससे पूरा उत्तराखंड सकते में आ गया था। उस समय भी अदालत के सम्मान की भावना के चलते इस मामले में लोग मुखर नहीं हो पा रहे थे, लेकिन राज्य आंदोलकारियों ने हाई कोर्ट के इस निर्णय का विरोध करते हुए हाईकोर्ट घेराव का कार्यक्रम आयोजित कर देशभर को चकित कर दिया था। जनभावनाओं को देखते हुए न्यायालय को अपना यह निर्णय बदलना पड़ा था।
जनज्वार से साभार