विकट महँगाई के बीच पांच वर्षों में पुरुष कृषि मज़दूरों की मज़दूरी महज 15 रुपए प्रति वर्ष बढ़ी है

देश की 14 करोड़ आबादी ऐसी है जो खेतिहर मज़दूर के तौर पर काम करती है। इसमें महिलाएं भी शामिल हैं, लेकिन पुरुष श्रमिकों के मुकाबले उनको कम दिहाड़ी मिलता है।

मोदी सरकार के दौर में हर स्तर के मज़दूरों के हालात बेहद खराब हो गए हैं। एक तो महँगाई की मार, ऊपर से बेहद कम मज़दूरी। इसमे असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की स्थिति सबसे खराब है। असल में इस मज़दूर तबके को भरण पोषण का सामान खरीदने तक का वेतन भी नहीं मिलता है। इनमें ग्रामीण मज़दूर एक ऐसा तबका है, जो संख्या में बहुत ज्यादा है लेकिन वेतन बहुत कम है।

वर्तमान में देश की 14 करोड़ आबादी ऐसी है जो खेतिहर मज़दूर के तौर पर काम करती है। इसमें महिलाएं भी शामिल हैं। रिपोर्ट के मुताबिक यह मज़दूरों का ऐसा तबका है, जो मौसम के आधार पर रोज़गार करता है। इन्हें बहुत कम वेतन दिया जाता है।

श्रम मंत्रालय (पुरुष मजदूरों के लिए भारतीय रिजर्व बैंक के पास उपलब्ध आकंडे) के तहत श्रम ब्यूरो द्वारा एकत्र किए गए नवीनतम आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले पांच वर्षों में, पुरुष कृषि मज़दूरों की मज़दूरी केवल 15 रुपए प्रति वर्ष की बहुत ही कम दर से बढ़ी है। यानी पांच साल में लगभग 29 प्रतिशत या इस वर्ष में केवल 6 प्रतिशत बढ़ी है।

यह तो महज पुरुष मज़दूरों के आँकड़े हैं। खेती के काम में पुरुषों के मुकाबले महिला मज़दूरों की भागीदारी ज्यादा है और उनका वेतन उनसे काफी कम, औसतन 20 फीसदी कम मिलता है और उनकी मज़दूरी में बृद्धि भी सापेक्षिक रूप से कम बढ़े होने का अमनुमान है।

बढ़ती महँगाई के मुकाबले वेतन बृद्धि कम

गौरतलब है कि खेतिहर मज़दूर केवल मौसम के अनुसार काम करते हैं- तब, जब भी खेतों में फसल चक्र के आधार पर काम उपलब्ध होता है। उन्हें इस चक्र में लगातार 10-15 दिनों तक जुताई या रोपाई, निराई या पानी या कटाई का काम मिल सकता है, फिर वह भी हफ्तों या महीनों के अंतराल में ऐसा होता है।

इसलिए, कृषि के काम से पूरे वर्ष की औसत मज़दूरी काफी कम बैठती है और यदि उस मज़दूरी को पूरे साल में बांटकर देखा जाए तो वह मज़दूरी लगभग न के बराबर रह जाती है। अगस्त 2022 में, कुल वेतन 343 रुपये प्रति दिन था।

इसी दौरान कीमतों में लगभग 28 प्रतिशत की लगातार वृद्धि हुई है। इसके सापेक्ष में दिहाड़ी में बृद्धि वास्तव में वेतन घटा देती है। यानी महंगाई प्रभावी रूप से मजदूरी में हुई मामूली वृद्धि को बहुत कम कर देती है। दूसरे शब्दों में, ‘असली’ या वास्तविक मजदूरी स्थिर बनी हुई है या थोड़ी कम ही हुई है।

महिला मज़दूरों से वेतन में भेदभाव

महिला श्रमिक- जो कि अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों की तुलना में, कृषि मजदूरों के रूप में अधिक संख्या में काम करती हैं- वे निरंतर संस्थागत भेदभाव से पीड़ित हैं। उदाहरण के लिए, अगस्त 2022 में, जब पुरुष कृषि मज़दूर को प्रति दिन औसतन 343 रुपये मिल रहे थे, तो महिला श्रमिक को केवल औसत दैनिक वेतन 271 रुपये मिल रहा था।

यह पुरुष मज़दूरों की तुलना में 20 प्रतिशत कम है। ग्रामीण मज़दूरी में पुरुष और महिला के बीच ये अंतर सभी प्रकार के कामों में मौजूद हैं। यदपि, ऐसे कई प्रकार के काम हैं जो केवल पुरुष ही करते हैं और महिलाएं प्रायः नहीं करती हैं, जैसे प्लंबर, बढ़ई, इलेक्ट्रीशियन, लोहार, ड्राइवर आदि।

सामाजिक रूप से उत्पीड़ित वर्ग का वेतन कम

ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे कम वेतन वाली नौकरियों में से कुछ ऐसी हैं जिन्हें आमतौर पर समाज के सबसे अधिक सामाजिक रूप से उत्पीड़ित वर्ग, यानी अनुसूचित जाति (एससी) द्वारा ही किया जाता है। लेकिन उनके वेतन अन्य के मुकाबले और कम हैं।

उदाहरण के लिए, अगस्त 2022 में ‘सफाई कर्मचारियों’ की औसतन मज़दूरी 290 रुपये प्रति दिन (पुरुष) और 269 रुपये प्रति दिन (महिला) को मिलने की स्थिति है। चूंकि कृषि मज़दूरों का एक बड़ा हिस्सा अनुसूचित जाति समुदायों से आता है, इसलिए हल्के मौसम के दौरान या दैनिक आधार पर भी, वे इस काम को करके अपनी आय बढ़ाने या उसे पूरा करने की कोशिश करते हैं।

नए लेबर कोड में न सम्मानजनक वेतन का प्रावधान, न सामाजिक सुरक्षा

मोदी सरकार द्वारा लाए जा रहे नए लेबर कोड में अन्य तबकों की तरह खेतिहर मज़दूरों के लिए , न्यूनतम वेतन का कोई विशेष प्रावधान नहीं है, सम्मानजनक वेतन तो दूर की कौड़ी है। यहाँ तक कि मीडिया के तमाम दावों के बावजूद न रोजगार की गारंटी है, न कार्य स्थल की सुरक्षा है न ही सामाजिक सुरक्षा के कोई विशेष प्रावधान है।

ऐसे में खेतिहर मज़दूरों की दशा लगातार खराब होती जा रही है। साथ ही वे तमाम तरीके के लिंग आधारित, जाति आधारित शोषण के शिकार हैं। उनके लिए आर्थिक के साथ सामाजिक और सांस्कृतिक मोर्चों पर व्यापक संघर्ष का रूप मौजूद है, जो छुटपुट आंदोलनों के रूप में फूटता रहता है।

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