भगत सिंह के समय ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट और आज लेबर कोड: बहरे कानों तक आवाज़ कैसे बुलंद हो?

शाहीदे आज़म भगत सिंह के जन्म दिवस (28 सितंबर) पर: क्या था ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट जिसके खिलाफ भगत सिंह और बटूकेश्वर दत्त ने संसद में बम का धमाका किया? नए लेबर कोड से क्या समानता है?

28 सितंबर शहीदे आज़म भगत सिंह का जन्म दिवस है। यह जन्मदिवस हम एक ऐसे दौर में हम मना रहे हैं जब देश के हालात भगत सिंह के दौर से भी ज्यादा भयावह स्थिति में पहुंच चुके हैं।

आज देश की मेहनतकश जनता देसी-विदेशी पूंजी की गुलामी में बुरी तरह पिस रही है और तबाही की मार झेल रही है। मजदूरों के लंबे संघर्षों से हासिल श्रम कानूनी अधिकार को छीनकर मोदी सरकार ने 4 लेबर कोड में बदल दिया है और वह मज़दूरों को बंधुआ बनाने का पूरा इंतजाम कर चुकी है।

ऐसे में याद करें शहीदे आज़म भगत सिंह का दौर जब अंग्रेजों ने मज़दूर आबादी के लिए खतरनाक ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट बनाया था, जिसके खिलाफ भगत सिंह और साथियों ने एसेंबली में बम फेंककर बहरे कानों तक अपनी आवाज बुलंद की थी।

बहरे कानों को सुनाने के लिए धमाकों की जरूरत

8 अप्रैल 1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में, पूरी तरह भरी दर्शक दीर्घा व हाल में, वायसराय ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ पेश कर रहे थे। जैसे ही बिल प्रस्तुत हुआ, सदन में एक जोरदार धमाका हुआ। असेंबली हॉल में अंधेरा छा गया। पूरे भवन में अफरातफरी मच गई।

अपने संगठन हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ (एचएसआरए) की रणनीत व योजना के तहत शहीद-ए-आज़म भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने यह धमाका किया था। इस बात का ध्यान रखा कि किसी की जान का नुकसान न हो। उधर डरे हुए लोग भाग रहे थे और दोनों क्रांतिकारी वहीं खड़े रहे।

इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए उन्होंने साथ लाए कुछ पर्चे भी सदन में फैला दिए। पर्चे में लिखा था, “बहरे कानों को सुनाने के लिए धमाकों की जरूरत पड़ती है।”

पर्चे में मज़दूरों के ख़िलाफ़ लाए जा रहे ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल की कड़ी निंदा की गई थी। साथ ही पब्लिक सेफ़्टी बिल और लाला लाजपत राय की मौत का ज़िक्र किया गया था।

संगठन द्वारा निर्धारित काम पूरा करने के बाद दोनों क्रांतिकारियों ने खुद को पुलिस के हवाले कर दिया और जेल मे रहकर आंदोलन चलाया, कोर्ट में पैरवी के दौरान अपने क्रांतिकारी विचारों और सच्ची आजादी के मकसद को जनता तक पहुँचाने का काम किया। जो उनके शहादत तक जारी रही।

जिस ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल के ख़िलाफ़ भगत सिंह ने ग़ुलाम भारत की असेंबली में बम फेंका था, उसी संसद में आज मज़दूरों को बंधुआ बनाने वाले और उससे भी खतरनाक चार श्रम संहिताएं (लेबर कोड्स) पास किए जा चुके हैं और मोदी सरकार उसे पूरे देश में एक साथ लागू करने में जुटी है।

उस खतरनाक कानून में क्या था?

ये क्रांतिकारी ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ का विरोध कर रहे थे।

‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ पहले ही पास किया जा चुका था जिसमें मज़दूरों द्वारा की जाने वाली हर तरह की हड़ताल पर पाबंदी लगा दी गई थी। इसमें साफ़ लिखा गया था कि औद्योगिक विवाद के अलावा किसी और उद्देश्य से की गई हड़ताल गैरक़ानूनी होगी। औद्योगिक विवाद को भी केवल कोर्ट के मार्फ़त सुलझाया जाएगा।

‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ में सरकार को संदिग्धों पर बिना मुकदमा चलाए हिरासत में रखने का अधिकार दिया जाना था। दोनों बिल का मकसद अंग्रेजी सरकार के खिलाफ उठ रही आवाजों को दबाना था।

कीर्तिमें बिल के विरोध में भी छपा लेख

अंग्रेजों द्वारा जिस वक़्त ये बिल लाए जा रहे थे उस वक़्त ‘किरती’ पत्रिका में एक लेख अज्ञात नाम से अहम लेख छपा, जिसके बारे में कहा जाता है कि उक्त लेख भगत सिंह ने लिखा था। किरती का ये लेख ‘विविध सामाजिक राजनीति प्रश्र: कुशाग्र विश्लेषक दृष्टि’ पुस्तक में प्रकाशित हुआ।

लेख के अनुसार, उस समय इंग्लैंड की हुकूमत में रूढ़िवादी दल ताकत में था और इस ताक में था कि कैसे मज़दूरों की बढ़ती ताकत को रोका जाए। इसकी एक वजह ये भी थी कि तब तक रूस में बोल्शेविक पार्टी ने क्रांति कर मज़दूरों का राज कायम कर लिया था, जिसका असर पूरे विश्व के मज़दूर आंदोलन पर पड़ा।

उस लेख में लिखा है कि हम चाहते हैं कि न सिर्फ ये बिल ही असफल करा दें, वरन इस मौजूदा सरकार को भी उलट दें। इसने यह कानून पेश कर राज करने के सभी अधिकार गंवा दिए हैं।

इस समय जरूरत है कि मज़दूरों के अपने घर में भी किसी तरह की फूट न हो ओर मज़दूरों के नरम और गरम गुटों के सब लोग एकजुट हो जाएं ताकि साझे जोर से इस मौजूदा सरकार का डटकर मुकाबला किया जा सके और इसे ऐसे चने चबाए जाएं कि सारी उम्र ही इस वक्त को याद कर करके हाथ मला करें।

लेख में अंत में लिखा था कि यह बिल पास हो गया तो मज़दूर बुरी तरह जंजीरों में जकड़े जाएंगे और उन जंजीरों को तोड़ना आसान नहीं होगा। इसलिए श्रमिकों को वक्त रहते संभलना चाहिए और ऐसा जोरदार आंदोलन करना चाहिए कि इस पूंजीपति गुट को, जो मज़दूरों को गुलामी से छूटने नहीं देना चाहता, नानी याद आ जाए।

असम्बली में वितरित पर्चे में क्या लिखा था?

विदेशी सरकार ‘सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक‘ (पब्लिक सेफ्टी बिल) और ‘औद्योगिक विवाद विधेयक‘ (ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल) के रूप में अपने दमन को और भी कड़ा कर लेने का यत्न कर रही है। इसके साथ ही आनेवाले अधिवेशन में ‘अखबारों द्धारा राजद्रोह रोकने का कानून’ (प्रेस सैडिशन एक्ट) जनता पर कसने की भी धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करनेवाले मज़दूर नेताओं की अन्धाधुन्ध गिरफ्तारियाँ यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैये पर चल रही है…

…जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेण्ट के पाखण्ड को छोड़ कर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जाएं और जनता को विदेशी दमन और शोषण के विरूद्ध क्रांति के लिए तैयार करें। हम विदेशी सरकार को यह बतला देना चाहते हैं कि हम ‘सार्वजनिक सुरक्षा’ और ‘औद्योगिक विवाद’ के दमनकारी कानूनों और लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं।

आज शाहीदे आज़म को याद करने, प्रेरणा लेने का वास्तविक अर्थ

जब देश में आज़ादी के 75 साल पूरे हो रहे हैं और मोदी सरकार देश में “अमृत महोत्सव” मना रही, तब देश की मेहनतकश जनता भयावह तबाही का दंश झेल रही है। गुलामी की नई बेड़ियाँ जनता को जकड़ चुकी हैं। नोटबंदी से कोरोना महामारी तक मोदी सरकार की पूंजी परस्त नीतियाँ से जहां अडानी-अंबानी की मुनाफाखोर जमात पूंजी की बादशाह बन गई है, वहीं आम जनता रसातल में चली गई है।

यह ऐसा दौर है जब स्थाई नौकरी की जगह फिक्स्ड टर्म लागू हो रहा है; न्यूनतम मज़दूरी, यूनियन बनाने, आंदोलन करने के अधिकारों को छीना जा रहा है; तरह-तरह से ठेका, ट्रेनी जैसे रोजगार को मान्यता दी जा रही है; सामाजिक व कार्यस्थल की सुरक्षा खत्म हो रही है; मनमर्जी रखने-निकालने की पूँजीपति जमात की माँगों के अनुरूप कानून बनाया जा रहा है। 4 लेबर कोड उसी का काला दस्तावेज है।

दूसरी ओर जनता के खून-पसीने से खड़े सरकारी-सार्वजनिक उद्योगों-संपत्तियों को अडानियों-अंबनियों को औने-पौने दामों में लुटाया जा रहा है। दमन तेज है और विरोध के हर स्वर को कुचल जा रहा है। बुलडोजर से रौंदा जा रहा है। आम जनता की आमदनी घट रही है और बेलगाम महँगाई-बेरोजगारी के नित नए रिकार्ड बन रहे हैं।

देश की मेहनतकश जनता बुरी तरह त्रस्त है और तबाह हो रही है। और यह सबकुछ जनता को धरमोन्माद में उलझकर हो रहा है। राष्ट्र-धर्म-जाति के फसाद तीखे हो चुके हैं। फ़सादी नसे की खुराक से जनता के दिमाग को बंधुआ बना दिया गया है। फासीवादी निरंकुशता अपने चरम पर है।

ऐसे में जब, मज़दूरों को अधिकारविहीन बनने के लिए मोदी सरकार और तमाम राज्य सरकारें जुटी हैं और आरएसएस-भाजपा द्वारा पूँजीपतियों की चाकरी खुलकर सामने है। तब हमें एक बार फिर बुनियादी हक़ के लिए अपनी संग्रामी एकता को मजबूत करना होगा, अपनी मुक्तिकमी आवाज़ को बुलंद करना होगा!

शाहीदे आज़म भगत सिंह को याद करने, प्रेरणा लेने का यही अर्थ हो सकता है। तभी सत्ता के बहरे कानों तक आवाज़ बुलंद होगी!

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