जनस्वास्थ्य से खिलवाड़: रामदेव के गाय के घी में मिलावट; घूस देकर बेची गई डोलो-650

रामदेव की पतंजलि के गाय के घी का सैंपल जांच में फेल रहा तो बुखार की दवा डोलो-650 बनाने वाली कम्पनी ने बिक्री बढ़ाने के लिए डॉक्टरों को 1000 करोड़ के गिफ्ट बांटे…

पिछले दिनों भारत में जनस्वास्थ्य से खिलवाड़ की दो बड़ी खबरें सामने आईं। पहली यह कि स्वामी रामदेव की नामी-गिरामी कंपनी पतंजलि आयुर्वेद (जो अपने को स्वदेशी के प्रति समर्पित बताती नहीं थकती) के गाय के घी का उत्तराखंड के टिहरी जिले में लिया गया सैंपल केन्द्रीय प्रयोगशाला की जांच में भी फेल रहा, जिसे लेकर उत्तराखंड का खाद्य संरक्षा और औषधि विभाग उसके खिलाफ वाद दायर करने जा रहा है।

खबर के अनुसार उक्त विभाग द्वारा गत वर्ष दीपावली पर उक्त जिले के घनसाली में एक दुकान से भरे गये इस सैंपल की पहले राज्य की प्रयोगशाला में जांच की गई। उसके इस जांच में फेल पाये जाने पर नोटिस जारी किया गया तो पतंजलि ने प्रयोगशाला की रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर ही सवाल उठा दिये। तब वही सैंपल केंद्रीय प्रयोगशाला भेजा गया तो राज्य की प्रयोगशाला की रिपोर्ट पर मुहर लगाते हुए उसने पाया कि सैंपल का घी न सिर्फ मिलावटी व अधोमानक बल्कि मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी है।

दूसरी खबर के अनुसार फेडरेशन ऑफ मेडिकल रिप्रजेंटेटिव्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर एक याचिका में केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के दावे के हवाले से कहा गया है कि कोरोना काल में खूब बिकी डोलो-650 नामक बुखार उतारने का एलोपैथी टेबलेट बनाने वाली कम्पनी ने उसकी बिक्री बढ़ाने के लिए अनैतिक आचरण पर उतर कर डॉक्टरों को 1000 करोड़ से ज्यादा के गिफ्ट बांटे, ताकि वे जिन मरीजों को देखें, उनके पर्चे पर बुखार उतारने के लिए इसी दवा का नाम लिखें।

यह बात कही गई तो याचिका की सुनवाई कर रहे जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ को याद आया कि जब उन्हें कोरोना हुआ था, तो डॉक्टर ने उन्हें भी डोलो-650 टैबलेट ही दी थी। इस पर उन्होंने एसोसिएशन के वकीलों संजय पारीक व अपर्णा भट्ट से कहा कि उनके शब्द उनके कानों में बजने लगे हैं और यह एक ‘गम्भीर मुद्दा’ है, जिसकी तह तक जाना जरूरी है। इसके बाद कोर्ट की पीठ ने अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज को 10 दिनों में अपना जवाब यानी सरकार का पक्ष दाखिल करने को कहा और अगली सुनवाई 29 सितम्बर को करना तय किया। 

आगे बढ़ने से पहले याद कर लेना चाहिए कि योग गुरू कहलाने वाले बाबा रामदेव ने कोरोना काल में पतंजलि की बनाई कोरोनिल नामक दवा का प्रमोशन करते हुए एलोपैथी व उसके डॉक्टरों के बारे में कुछ ओछी व अस्वीकार्य टिप्पणियां (मसलन: एलोपैथी स्टुपिड साइंस यानी बकवास अथवा दिवालिया विज्ञान और कोरोना से हुई लाखों मौतों की जिम्मेदार है।) करके मामले को आयुर्वेद बनाम एलोपैथी बनाकर बढ़त लेनी चाही थी, तो एलोपैथ डॉक्टरों की इंडियन मेडिकल एसोसिएशन किस कदर आहत हो उठी थी। उसने बाबा रामदेव को कानूनी नोटिस भेज दिया था, जिसके बाद तत्कालीन केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने, जो खुद भी कोरोनिल के प्रमोशन का हिस्सा बनने से नहीं बच पाये थे, बाबा को कड़ा पत्र लिखा था।

इसके बावजूद बाबा रामदेव ने एक वीडियो में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन और फार्मा कम्पनियों से एक के बाद एक पच्चीस अवांतर, असुविधाजनक और अपमानजनक सवाल पूछे थे। यह भी कि जब एलोपैथ कोरोना के टीके की दोनों खुराकें लेने के बावजूद खुद अपनी जान नहीं बचा पा रहे तो वे भला काहे के डॉक्टर हैं? तब इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की ओर से कहा गया था कि बाबा के सवाल उनके योग या आयुर्वेद सम्बन्धी पांडित्य का नहीं, उन ग्रंथियों का पता देते हैं, जिनके शिकार वे पतंजलि द्वारा कोरोनिल के रीलॉन्च के अवसर पर एसोसिएशन द्वारा उठाये गये सवालों से हुए थे।

उन दिनों पतंजलि का दावा था कि कोरोनिल को सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (जो ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया के तहत आता है) के आयुष सेक्शन की तरफ से सर्टिफिकेट ऑफ फार्मास्यूटिकल प्रोडक्ट प्राप्त है, जो उसे विश्व स्वास्थ्य संगठन की सर्टिफिकेशन स्कीम के तहत दिया गया था। यह दावा बाद में वैसे ही फेल हो गया, जैसे अब उसके गाय के घी का सैंपल।

तब इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने स्वास्थ्य मंत्री से भी सफाई मांगी थी कि उनका झूठे तरीके से गढ़े गये पतंजलि के अवैज्ञानिक प्रोडक्ट कोरोनिल को लोगों के लिए रिलीज करना कितना उचित है? उसके पूछे उन सवालों में से अब तक किसी एक का भी जवाब नहीं दिया गया है- न बाबा की ओर से और न सरकार की ओर से। इन सवालों में सबसे बड़ा यह था कि अगर बाबा या पतंजलि ने आयुर्वेद व योग के रास्ते कोरोना का कोई सफल इलाज ढूंढ लिया है, जैसा कि वे दावा कर रहे हैं, तो उन्हें इस बाबत किये गये शोधों की वैज्ञानिकता प्रमाणित करने से परहेज क्यों है? यह क्या कि इंडियन मेडिकल एसोसिएशन कोरोनिल पर सवाल उठाये तो वे उस पर पत्थर उछालते हुए समूची एलोपैथी को स्टुपिड साइंस बताने लग जाते हैं?

लेकिन अब इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, कम से कम इन पंक्तियों के लिखने तक, अपने डॉक्टरों पर एक हजार करोड़ रुपयों के ‘तोहफे’ लेकर अतार्किक डोज काम्बीनेशन वाले डोलो-650 टेबलेटों के प्रमोशन के मामले में इस कदर मौन साधे हुए है जैसे डॉक्टरों के इस तरह के आचरण से एलोपैथी की प्रतिष्ठा को कोई नुकसान न पहुंचता हो, उलटे उसकी श्रीवृद्धि होती हो। जबकि ऐसा कतई नहीं है और डोलो-650 टेबलेट की निर्माता माइक्रोलैब्स द्वारा अपनी सफाई में एक हजार करोड के तोहफे बांटने के आरोपों को असंभव बताने के बावजूद आईएमए के मौन से उन लोगों को बड़ा झटका लगा है, जिन्होंने उसके और बाबा रामदेव के टकराव के वक्त थोड़ा आगे बढ़कर यह सवाल भी पूछ डाला था कि चिकित्सा पद्धतियों में यों वैर बढ़ाने से भला किसका हित साधन होगा?

किसे नहीं मालूम कि संसार में देशी-विदेशी जितनी भी चिकित्सा पद्धतियां हैं, सबके समर्थक उनकी श्रेष्ठता का दावा करते ही रहते हैं-एलोपैथी के भी, आयुर्वेद के भी, तिब्बती के भी, यूनानी के भी और होम्योपैथी वगैरह के भी। कई बार बहस मुबाहिसों में वे दूसरी चिकित्सा पद्धतियों को उनकी सीमाएं भी बताने ही लग जाते हैं-यह भूलकर कि उन सबकी अपनी-अपनी सीमाएं हैं।

कई अन्य लोगों ने परम्परा से चले आ रहे इस भोले विश्वास की रक्षा पर भी जोर दिया था कि अपनी सारी सीमाओं के बावजूद सारी चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सक ‘सर्वे भवंतु सुखिनः। सर्वे संतु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यंतु। मां कश्चित् दुःख भाग्भवेत।।’ की भावना के प्रति समर्पित होते हैं। हां, उनके लिए दवाएं बनाने वाली कम्पनियां भी और डॉक्टरों द्वारा ली जाने वाली ‘हिप्पोक्रेटिक ओथ’ भी कुछ ऐसी ही बात कहती है।

लेकिन इस टिप्पणी के शुरू में उल्लिखित खबरों की रौशनी में देखें तो क्या यह पारम्परिक विश्वास खंडित होकर नहीं रह जाता? यह नहीं लगता कि अब क्या आयुर्वेद और क्या एलोपैथी, दोनों पद्धतियों के चिकित्सक और दवा निर्माता कम्पनियां ‘सर्वे भवंतु सुखिनः। सर्वे संतु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यंतु। मां कश्चित् दुःख भाग्भवेत’ से ज्यादा, जैसे भी बने इलाज के बाजार पर कब्जा जमाकर अकूत मुनाफा कमाने में ज्यादा रुचि रखती हैं?

ऐसा नहीं है तो जिस योग को तन ही नहीं मन को भी बलवान बनाने का उपाय माना जाता है, उसके किसी ‘पैरोकार’ का मन इतना खराब कैसे हो सकता है कि वह गाय के घी के नाम पर अधोमानक, मिलावटी और जनस्वास्थ्य के लिए हानिकारक वस्तु बाजार में बेचे? यह भी क्यों कर हो सकता है कि एलोपैथी डॉक्टरों की जो एसोसिएशन बाबा रामदेव की एलोपैथी विरोधी टिप्पणियों को लेकर उन पर पिल पड़ी थी, अपनी जमात के डॉक्टरों के विरुद्ध डोलो-650 बनाने वाली कम्पनी से एक हजार करोड़ के तोहफे लेकर उसका अवांछनीय ब्रिकी संवर्धन करने के आरोप को लेकर कहने के लिए उसके पास एक भी शब्द न  रह जाये? या कि वह जानबूझकर कुछ भी कहने से परहेज बरत ले?

जो भी हो, सवाल है कि सामान्य लोगों के लिए इसका क्या अर्थ है? अगर यह कि आयुर्वेद हो या एलोपैथी, दोनों के कुंओं में एक जैसी भांग पड़ गयी है तो पूछना होगा कि कोरोनाकाल में बाबा रामदेव और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन जो लड़ाई लड़ रहे थे, उसमें इस देश का आम मरीज कहां था-और अब कहां जा पहुंचा है?

जनचौक से साभार

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