आंगनवाड़ी की 2 कार्यकर्ता से जानिए उत्तर प्रदेश में आगनवाड़ी के कामकाज का पूरा माहौल

उत्तर प्रदेश की आगनवाड़ी कार्यकर्ताओं का महीने का मेहनताना महज़ 5,500 रुपए के आसपास है। अब आप ख़ुद सोचिए कि उनका हाल क्या होगा?

उत्तर प्रदेश की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता चमन आरा कहती हैं, “साल 2001 में हमें महज़ 500 रुपए प्रति महीने की तनख्वाह मिलती थी। अब यह बढ़कर 5500 रुपए महीने हो गई है। मगर असलियत में कहें तो आज का 5500 रुपया उस समय के 50 रुपये के बराबर भी नहीं है। हमारी तनख्वाह तब भी कम थी, अब तो बहुत कम है। आटा, दाल, चावल, नमक,चीनी, सब्ज़ी, पढाई-लिखाई, स्वास्थय सुविधाओं जैसे जीवन की बुनयादी जरूरतों का खर्चा जोड़कर उसका हिसाब 5500 रुपया महीना से लगाइये। आप खुद अंदाज़ा लग जाएगा कि 5500 रूपये का मतलब क्या होता है?”

दिल्ली का जंतर-मंतर लाल रंग में पटा पड़ा है। यहाँ पर कर्नाटक, केरल, आंध्र-प्रदेश से लेकर उत्तर -प्रदेश, बिहार, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश या कह लीजिये की देश भर की आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं का हुजूम अपने हक की बात करने के लिए इकठ्ठा हुआ है। इनका तीनों दिनों का महापड़ाव है। यह महापड़ाव  ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ़ आंगनवाड़ी वर्कर्स एंड हेल्पर्स के बैनर तले आंगनवाड़ी अधिकार महापड़ाव नाम से 26 जुलाई से लेकर 29 जुलाई तक चलेगा।

28 जुलाई को दिल्ली का मौसम कड़कड़ाती हुई धूप का था। जिसमें खड़े होने का मतलब था खुद को झुलसने के लिए सौंप देना। ऐसी धूप की छत तले महज एक सामियाने की आड़ में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं का देश भर से आया हुजूम अपने अधिकारों को मनवाने के लिए बैठकी लगाए हुआ था। गर्मी इतनी थी कि थोड़ी सी राहत पाने के लिए तकरीबन ज्यादातर आंगनवाड़ी कार्यकर्ता पंखा हांकने में लगी हुई थी। साथ में मंच से आ रही अपने हक के लिए जा रही बात पर भी कान लगायीं हुई थी। हर उस नारे में सुर से सुर मिला रही थी जो उनकी जायज वेतन के मांग से जुडी हुई थी। इस तरह के नजारे को देखकर ऐसा लगा कि लोकतंत्र को जीवंत बनाने का काम वैसी आस्थाएं ही करती है जो बिना परिणाम की परवाह किए दीर्घकालीन संघर्ष के लिए तैयार हो सके। शायद यही आस्था थी उनके साथ बैठकर और खड़ाहोकर गर्मी कम लग रही थी और संघर्ष के आवाज ज्यादा सुनाई दे रहे थे।

उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद की चमन आरा मंच से भाषण दे रही थीं। उनके भाषण की बारीकियों को सुनकर ऐसा लगा कि उनसे इत्मीनान से बात करनी चाहिए। जब वह मंच से उतरी तो उनसे बातचीत शुरू हुई। मैने पहला सवाल यही पूछा कि हम आंगनवाड़ी का नाम तो सुनते हैं लेकिन कभी मुक्कमल तरीके से नहीं जान पाए कि इसका मतलब क्या होता है? उन्होंने जवाब दिया, “साल 1975 में इंदिरा गांधी के शासन के दौरान आंगनवाड़ी योजना की शुरूआत हुई थी। इस योजना के तहत हम जैसी आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को गर्भवती महिला के जीवन पर तब तक ध्यान देना होता है जब तक उसका ढंग से प्रसव ना ही जाए। बच्चे के जन्म लेने से लेकर 6 साल की उम्र तक बच्चे के समग्र विकास पर ध्यान देना होता है। इसमें बच्चे के पोषण, सेहत, से लेकर लालन पोषण और शुरुआती पढ़ाई लिखाई से जुड़े हर हिस्से पर ध्यान देना होता है। इसके साथ बच्चे के छह साल की उम्र तक मां के शारीरिक जीवन पर ध्यान देने का काम भी हमारा ही होता है। इन सबके अलावा वह बच्चियां जो स्कूल नहीं जाती हैं। उनके स्वास्थ्य और पोषण के देखभाल की जिम्मेदारी हमारी होती है।”

यह बात हो ही रही थी तो अचानक से गोंडा की मीनाक्षी खरे जी आई। उन्होंने बताया कि हम घर-घर जाती हैं। घर – घर जाकर पता करती हैं कि अगर बच्चे हैं तो बच्चों का हाल क्या है? अगर गर्भवती औरतें हैं तो उनकी स्थिति क्या है? हम पोषण की जानकारी के लिए गांव देहात में जाकर कैंप लगाते हैं। स्कूल में भी सेंटर लगते हैं। चमन आरा ने कहा, “कुल मिला कर हम छह तरह की सेवाएं करती है। पहली प्राइमरी स्कूल सेवाएं, दूसरी टीकाकरण, तीसरी संदर्भ सेवाएं, चौथी अनुपूरक पोषाहार, पांचवी स्वस्थायें सेवाएं छठवीं वजन और वृद्धि निगरानी। यह छह सेवाएं जिन्हें हमें करना होता है। मगर इसके आलावा हमसे तमाम तरह के काम करवाएं जाते हैं। हमरी ड्यूटी राशन कार्ड बनवाने से लेकर वोटर आईडी कार्ड में लगा दी जाती है। पल्स पीलियों अभियान से लेकर संचारी रोगों के पहचाने में लगा दी जाती है। हमें ऐसे तमाम काम करने पड़ते हैं जिसके बारे में आप सोच भी नहीं सकते।”

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आदेश दिया कि स्वच्छ भारत योजना को लागू करने के लिए आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की मदद ली जाएगी। हमें काम सौंपा गया कि सुबह  – सुबह चार बजे उठकर हम उन्हें रोकने का काम करेंगी जो खुले में जाकर शौच करते है। उन पर पत्थर चलाएंगी। सोचकर देखिए यह कितना आमनवीय है। हंसी भी आती है और दुख भी होता है की सरकार हमें क्या समझ रही है? एक और उदाहरण देखिए। उत्तर प्रदेश सरकार ने कहा कि जो आवारा गाय हैं उन्हें आंगनवाड़ी कार्यकर्ता आश्रय देंगी। उन्हें अपने यहां रखेंगी। ऐसा करने वाली आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की खातों में सरकार की तरफ से 900 रुपए का भुगतान किया जाएगा। इन गायों के जरिए कुपोषित बच्चों को दूध देने का काम किया जाएगा। अब इस योजना से जुड़े पहलुओं और एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के बारे में सोचते चले जाइए। सोचिए कि एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता से क्या करवाया जा रहा है?

एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता बनने के लिए दसवीं क्लास का सर्टिफिकेट चाहिए होता है। दसवीं क्लास के सर्टिफिकेट के साथ प्राथमिकता का क्रम निर्धारित होता है। 21 साल से 45 साल के बीच की विधवा औरतों को सबसे पहले प्राथमिकता दी जाती है। उसके बाद दिव्यांग औरतों का नंबर आता है और उसके बाद अनुसूचित जाति और जनजाति से जुड़ी औरतों का नंबर आता है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को नौकरी देने के वक्त इस प्राथमिकता के क्रम में बहुत अधिक धांधली होती है। ऐसा संभव है कि पैसे के चलते उन महिलाओं को पहले नौकरी दे दी जाए जो विधवा, विकलांग और अनुसूचित जाति और जनजाति के श्रेणी में नहीं आती हैं। जहां तक प्रमोशन की बात है तो प्रमोशन नहीं मिलता है। यह भी होता है कि रिटायरमेंट के बाद भी आंगनवाड़ी कार्यकर्ता काम करती रहती है। जब उन्हें पता चलता है कि उन्हें मानदेय नहीं मिल रहा है तब उन्हें पता चलता है कि उनकी नौकर नहीं रही। ऐसे कई मामले आए हैं, जहां पर आंगनवाड़ी कार्यकर्ता रिटायर हो गई और उसके बाद एक दो साल तक काम करती रहीं।  

खरे बताती हैं, “अगर महीने की सैलरी की बात की जाए तो कई कई महीने तक ऐसा होता है कि खाते में पैसा नहीं आता है। उत्तर प्रदेश में आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को सबसे कम पैसा मिलता है। ईमानदारी से काम किया जाए तो पूरा दिन कामकाज में निकल जाता है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता बहुत निचले स्तर पर काम करती हैं इसलिए हमसे काम बहुत अधिक करवाया जाता है। केवल संडे की छुट्टी होती है। इन सब कामों के लिए उत्तर प्रदेश सरकार महज 5500 रुपए महीने का देती है। आज के जमाने में यह कुछ भी नहीं है। दक्षिण के केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं का हाल अच्छा हैं जिन्हें महीने में 15 से लेकर 18 हजार रूपये की सैलरी दी जाती है।”

चमन कहती हैं, “कुपोषण खत्म करने के नाम पर सरकार की तरफ से महीने में केवल एक बार 3 साल तक के बच्चे के लिए एक किलो का दलिया, दाल और तेल  देने का प्रावधान है तो ऐसे में सोचिए कि क्या इसी तरह से कुपोषण से लड़ा जा सकता है? सरकार हमें जिम्मेदारी देती है कि संस्थागत प्रसव करवाएं। यानी  सरकारी अस्पताल में प्रसव हो। लेकिन गरीब औरतों के साथ यहां बहुत दिक्कत होती है। सरकारी अस्पताल में वह सुविधाएं नहीं है कि ढंग से प्रसव हो पाए।”

आंगनवाड़ी को लेकर जिस तरह का लचर रवैया है, उससे लगता है कि सरकार इससे पिंड छुड़ाना चाहती है। NGO के जरिए यह काम कराना चहती हैं। उत्तर प्रदेश के कई इलाके में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं का कामकाज  NGO संभालने लगे हैं। देश भर में कुल 27 लाख के आस पास आंगनवाड़ी कार्यकर्ता काम कर रही है। कई राज्यों में इन्हें सरकारी कर्मचारी के तौर पर नहीं देखा जाता हैं। इन्हें सरकारी कर्मचारी की मान्यता नहीं मिली है। कोरोना के दौरान जब सारा देश खुद को बचाने के लिए चारदीवारी से बाहर नहीं निकल रहा था तब ये फ्रंटलाइन वर्कर के तौर पर आगे बढ़कर कामकाज संभाल रही थीं। उनके साथ सरकार का अलगाव का रवैया कहीं से भी न्याय सम्मत नहीं कहा जा सकता है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की मांग है कि जहां कहीं भी उन्हें जायज वेतन नहीं मिलता है, वहां जायज वेतन मिले। कामकाज के नाम पर जो अनर्गल किस्म के काम करवाएं जाते है, उससे दूर रखा जाए। सरकारी कर्मचारी की मान्यता मिले। और ऐसा न हो कि जब वह रिटायर हों तो सरकार की तरफ से उन्हें कुछ भी न मिले। बुढ़ापा दूर करने के लिए उन्हें भी कुछ न कुछ दिया जाए।

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