निजीकरण में कल्याणकारी राज्य कहां हैं?

निजीकरण तथा सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियों के मुद्रीकरण के अपने एजेंडे के साथ मोदी सरकार, संविधान में ऐसा ही मौलिक बदलाव करने में लगी है। उसकी योजना यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र का करीब-करीब बोरिया-बिस्तर ही बांध दिया जाए…

  • प्रदीप श्रीवास्तव

केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद से सरकारी संपत्ति को बेचने का काम ज़ोर-शोर से चल रहा है। अपने-आप को देश का प्रधान सेवक कहने वाले पीएम मोदी सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण का जोरदार तरीके से समर्थन कर चुके हैं। अभी पिछले ही दिनों कहा कि व्यवसाय करना सरकार का काम नहीं है। उनकी सरकार रणनीतिक क्षेत्रों को छोड़कर बाकी क्षेत्रों में सभी सरकारी इकाइयों का निजीकरण करने को प्रतिबद्ध है।

नीजिकरण की शुरूआत 1990 से ही हो चुकी है, लेकिन इसकी गति को तेज़ करने का काम हमेशा भाजपा की सरकार ने ही किया है। 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में बनाए गए विनिवेश मंत्रालय ने भारत एल्यूमिनियम कंपनी, हिंदुस्तान जिंक, इंडियन पेट्रोकेमिकल्स कॉर्पोरेशन लिमिटेड और विदेश संचार निगम लिमिटेड जैसी सरकारी कंपनियों को बेचा था।

समय-समय पर कई अन्य कंपनियों में भी रणनीतिक रूप से बेचा गया। जैसे सीएमसी लिमिटेड, होटल कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, एचटीएल लिमिटेड, आईबीपी कॉर्पोरेशन लिमिटेड, इंडिया टूरिज्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड, लगान जूट मशीनरी कॉर्पोरेशन लिमिटेड, मारुति सुजुकी इंडिया, टाटा कम्युनिकेशन लिमिटेड आदि।

निजीकरण तथा सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियों के मुद्रीकरण के अपने एजेंडे के साथ मोदी सरकार, संविधान में ऐसा ही मौलिक बदलाव करने में लगी है। उसकी योजना यह है कि गैर-रणनीतिक क्षेत्रों में सार्वजनिक क्षेत्र का करीब-करीब बोरिया-बिस्तर ही बांध दिया जाए और रणनीतिक क्षेत्रों में उसकी मौजूदगी तो बनाए रखी जाए, लेकिन संकेतिक रूप में।

भारत में सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण कई कारणों से किया गया था। मसलन, देश के कच्चे माल संसाधनों का नियंत्रण विदेशी पूंजी से छुड़ाकर, देश के हाथों में लाने के लिए, जैसे तेल क्षेत्र में। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को आगे बढ़ाने के लिए, ताकि विदेशी पूंजी पर निर्भरता से तथा इसलिए विदेशी पूँजी की आधीनता से बचा जा सके, जैसे हैवी इलैक्ट्रिकल्स। आवश्यक सेवाएं जनता को कम दाम पर या मुफ्त मुहैया कराने के लिए, जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली आदि।

ऐसे साधन मुहैया कराना, जिनके जरिए ऐसे खास-खास क्षेत्रों में सार्वजनिक संसाधनों का निवेश किया जा सके,  जिनमें निजी संसाधन या तो लग ही नहीं रहे थे या पर्याप्त मात्रा में नहीं लगने वाले थे, जैसे कि बुनियादी ढांचा। किसानी खेती को मदद देने के लिए उचित दामों पर उसकी पैदावार की खरीदी के लिए, जैसे भारतीय खाद्य निगम। लघु उत्पादन क्षेत्र को, जिसे अन्यथा ऋण नहीं मिले थे, ऋण मुहैया कराने के लिए, जैसे कि सार्वजनिक क्षेत्र बैंक।

सार्वजनिक क्षेत्र के निर्माण के ये सभी कारण, संविधान में सूत्रबद्घ किए गए, शासन की नीति के निर्देशक सिद्घांतों के जरिए सूत्रबद्घ की गयी भविष्य कल्पना के अनुरूप थे।

सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण का अनिवार्य रूप से अर्थ है, इन परिसंपत्तियों का चंद बड़े इजारेदार घरानों या अंतरराष्ट्रीय बड़ी पूंजी के हाथों बेचा जाना, क्योंकि और किसी में इसका बूता ही नहीं है कि इन परिसंपत्तियों की खरीद के लिए आवश्यक संसाधन जुटा सके। और इसका अर्थ है, कल्याणकारी राज्य द्वारा अपने दायित्व से हाथ खींचा जाना।

आम लोग मोदी सरकार की निजीकरण की विकराल योजनाओं के पक्ष में तो कोई दलील नहीं देते हैं, बस साधारण रूप से निजीकरण का यह फायदा बताते हैं कि इससे सरकार के बजट के लिए संसाधन मिलते हैं। लेकिन, यह दलील तार्किक रूप से ही पूरी तरह से गलत है।

सच्चाई यह है कि संसाधन जुटाने के उपाय के रूप में निजीकरण, अपने वृहदार्थिक परिणामों के लिहाज से राजकोषीय घाटे के उपाय से रत्तीभर भिन्न नहीं है, निजीकरण के दूसरे घातक परिणाम ऊपर से हैं। अलबत्ता, नेता और मोटी तनख्वाह पाने वाले निजीकरण के पक्ष में झूठी दलीलें देते हैं। मज़ेदार बात यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियां खरीदने के लिए, पूँजीपति ही बैंकों से ऋण लेते हैं और यह पैसा सरकार को सोंप देते हैं, जिससे वह खर्च कर सकती है।

अपने वृहदार्थिक परिणामों के लिहाज से, सरकार के लिए वित्त जुटाने के इस बाद वाले, अप्रत्यक्ष तरीके से बैंकों से सरकार के खर्चे के लिए वित्त जुटाने के तरीके और सरकार के बैंकों से सीधे वित्त जुटाने के तरीके में, कोई अंतर नहीं है। इससे भी सकल मांग में उतना ही इजाफा होता है और संपदा असमानता में उतनी ही बढ़ोतरी होती है। राजकोषीय घाटे का सहारा लिया जाता है तो निजी क्षेत्र के हाथों में, प्रत्यक्ष रूप से या बैंकों के जरिए परोक्ष तरीके से, सरकारी बांडों के रूप में सरकार पर, कागजी दावेदारी आ जाती है, जबकि निजीकरण का सहारा लिए जाने की सूरत में निजी क्षेत्र के हाथों में सार्वजनिक क्षेत्र कंपनियों की हिस्सा पूँजी और इसलिए उन पर नियंत्रण आ जाता है।

इस तरह, जहां वृहदार्थिक परिणाम दोनों ही सूरतों में एक जैसे होते हैं, वहीं निजीकरण से निजी कंपनियों को इसका मौका मिलता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का संचालन अपने हाथों में ले लें और उनका संचालन, सार्वजनिक लाभ के बजाए, अपने मुनाफों के लिए करें।

कभी-कभी यह दलील भी दी जाती है कि जहां राजकोषीय घाटे से सरकार पर कर्ज चढ़ता है, निजीकरण से सरकार पर कोई कर्जा नहीं चढ़ रहा होता है और इसलिए, सरकार पर ब्याज संबंधी भुगतान की कोई जिम्मेदारी नहीं आ रही होती है। लेकिन, इस तरह की दलील देने वाले यह भूल जाते हैं कि निजीकरण के जरिए, संबंधित सार्वजनिक परिसंपत्तियों के कमाई के प्रवाह, निजी हाथों में दिए जा रहे होते हैं, जबकि ऐसा न होने पर ये प्रवाह सरकार के खजाने में जा रहे होते।

इस तरह सरकार कमाई के जिन प्रवाहों का परित्याग कर रही होगी, ऋणों के लिए ब्याज का भुगतान करने जैसा ही मामला है और इस तरह दोनों ही स्थितियों में सरकार के आय प्रवाह में से तो हिस्सा कट ही रहा होगा। आय प्रवाह की यह हानि तो उसी सूरत में बच सकती है, जब सरकार आय या संपदा पर कर लगाने के जरिए संसाधन जुटाए। निजीकरण से संसाधन जुटाने की सूरत में आय के प्रवाह की हानि से नहीं बचा सकता है।

कुल मिलाकर नीजिकरण में कल्याणकारी राज्य का खात्मा कर मुनाफ़े के लिए कमाने वाले मुठ्ठी भर पूँजीपतियों के लिए पूरी व्यवस्था तैयार की जा रही है।

‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिकाअंक-47 (जुलाई-सितम्बर, 2022) में प्रकाशित

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