आइए जानें: मज़दूरों के लिए क्यों घातक हैं चार लेबर कोड; कबतक लागू होंगे?

गोदी मीडिया मजदूरों के लिए इसे बेहतरीन तोहफा बताने में पूरी जोर लगा चुकी है। हालांकि यह कितना घातक है, मीडिया भी इसे छिपा नहीं पा रही है। आइए जानें चार श्रम संहिताओं के बारे में…

मोदी सरकार ने हिंदू-मुस्लिम, जाति-मजहब, पाकिस्तान, कश्मीर, लब जेहाद, बुलडोजर की राजनीति में उलझा कर मजदूरों को बंधुआ बनाने की तैयारी पूरी कर दी है। पिछले दिनों सेना में भर्ती का फिक्स्ड टर्म लागू करके भाजपा सरकार ने अपना तेवर दिखला दिया है।

मीडिया रिपोर्टों के अनुसार अब 1 जुलाई से लंबे संघर्षों से हासिल 44 श्रम कानूनों को खत्म कर के चार श्रम संहितों (लेबर कोड्स) में बांधकर लाने की तैयारी पूरी कर चुकी है। हालांकि इसकी आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है।

मुख्यधारा की गोदी मीडिया मजदूरों के लिए इसे बेहतरीन तोहफा बताने में पूरी जोर लगा चुकी है। हालांकि यह मजदूरों के लिए कितना घातक है मुख्यधारा की मीडिया भी इसे छिपा नहीं पा रही है।

नई श्रम संहिताएँ क्यों हैं घातक?

अलग-अलग श्रम संहिताओं में मज़दूर, औद्योगिक संस्थान एवं कार्य दिवस की बातें अलग-अलग हैं। कर्मकार की परिभाषा को बदल दिया गया है और अब कर्मचारी और श्रमिक दो भागों में विभाजित करके पूर्वर्ती कामगार की परिभाषा को ही नष्ट कर दिया गया है। कर्मचारी की परिभाषा में प्रबंधकों को शामिल किया गया है, जबकि  मज़दूर की परिभाषा से  प्रशिक्षुओं को बाहर कर दिया गया है।

सबसे घातक मुद्दों में इस कानून द्वारा स्थाई रोजगार समाप्त होगा और फिक्स्ड टर्म इम्पालाइमेन्ट (नियत अवधि रोजगार) का होगा, जैसा सेना में ‘अग्निवीर’ की घोषणा। छाँटनी-बंदी आसान होगी, यूनियन बनाना, आंदोलन और समझौता लगभग असंभव होगा; श्रम न्यायालय खत्म होंगे और श्रम अधिकारी फैसिलिटेटर होंगे, जिनका काम सलाह देना होगा।

कार्यदिवस के बारे में अलग-अलग संहिताओं के माध्यम से काफी भ्रम की स्थिति बनाई गई है। सरकारों को असीमित शक्तियां प्रदान कर दी गई हैं और संहिताओं की रचना इस तरह की गई हैं, जिसका फायदा हर हाल में मालिक को ही मिले।

वेतन संहिता की धारा 13 में लिखा है कि न्यूनतम वेतन तय हो जाने के उपरांत संबंधित सरकार काम के घंटे निर्धारित कर सकती है, जो सामान्य कार्य दिवस माना जाएगा।

दूसरी तरफ लिखा है कि काम के घंटे 12 निर्धारित हो सकते हैं। जबकि साप्ताहिक 48 घंटे दर्ज है। वहीं कार्यदशा संबंधी संहिता की धारा 25 के अनुसार कार्य दिवस 8 घंटे से अधिक नहीं हो सकता है। जबकि वेतन संहिता में लिखा है की मज़दूरी घंटे, आधे दिन, दैनिक, साप्ताहिक या मासिक हो सकती है।

साफ है कि काम के घंटे मालिक की मनमर्जी होगी। वह एक घंटा काम करा कर भी घर भेज सकता है। मजेदार बात यह है कि संहिताएं ओवरटाइम के घंटों के बारे में मौन हैं। जबकि 12 घंटे काम कराने की बात से स्पष्ट है कि 12 घंटे तक के कार्य के लिए ओवरटाइम का भुगतान की बाध्यता नहीं होगी।

कितने क़ानून होंगे खत्म

एक भ्रम लगातार व्याप्त है कि इन चार श्रम संहितों से पूर्ववर्ती कितने श्रम क़ानून खत्म होंगे। कई जगह 44 श्रम कानूनों के खत्म होने की बात आ रही है, तो कई जगह 29 कानूनों के। असल मे चार संहितों मे खत्म होने वाले जिन कानूनों का जिक्र है, वो 29 हैं।

लेकिन पिछले 7-8 वर्षों के दौरान मोदी सरकार ने कई श्रम क़ानूनों को धीरे-धीरे या तो खत्म कर दिया, या फिर दूसरे कानूनों के साथ समाहित कर दिया। जैसे श्रम विधि (विवरणी देने और रजिस्टर रखने के कतिपय स्थानों को छूट) अधिनियम 1988।

इन संहिताओं से निजी कंपनियों के साथ रेलवे, खानों, तेल क्षेत्र, प्रमुख बंदरगाहों, हवाई परिवहन सेवा, दूरसंचार, बैंकिंग और बीमा कंपनी, निगम व प्राधिकरण, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम या सहायक कंपनियां सहित सभी प्रकार के नौकरी पेशा व श्रमजीवी पत्रकार प्रभावित होंगे।

यह संहिता असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों के एक बड़े हिस्से जैसे- छोटी खदानें, होटल व छोटे भोजनालय, मशीनों की मरम्मत, निर्माण, ईंटभट्टे, हथकरघे, कालीन या कारपेट निर्माण और संगठित क्षेत्रों में अनौपचारिक तौर पर काम कर रहे श्रमिकों, जिसमें नए व उभरते क्षेत्रों जैसे आईटी और आईटीईएस, डिजिटल प्लेटफॉर्म (जिसमें ईकॉमर्स समेत कई क्षेत्र शामिल हैं) को छोड़ देता है।

‘हायर एण्ड फायर’ यानी मनमर्जी काम पर रखना-निकालना

अपने पहले कार्यकाल में नरेन्द्र मोदी ने ख़ुद को ‘मज़दूर नम्बर वन’ बताया और ‘श्रमेव जयते’ जैसे जुमले की आड़ में मज़दूरों के रहे-सहे अधिकारों पर डाका डालने का काम तेज किया। देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हित में मोदी सरकार व्यापार की सुगमता यानी “ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस” पर केंद्रित है, और उसी के अनुरूप दौड़ लगा रही है।

प्रचंड बहुमत के दंभ में मोदी-2 सरकार ने पूँजीपतियों को किये गये वायदों के अनुसार अपने मज़दूर विरोधी घोड़े को सरपट दौड़ा दिया। इसके मूल में है- ‘हायर एण्ड फॉयर’ यानी देशी-विदेशी कंपनियों को रखने-निकालने की खुली छूट के साथ बेहद सस्ते दाम पर मजदूर उपलब्ध कराना।

द्वितीय श्रम आयोग की रिपोर्ट पर आधारित

दरअसल, श्रम क़ानूनी अधिकारों को ख़त्म करने का दौर 1991 में कथित आर्थिक सुधारों के साथ चल रहा है। अटल बिहारी बाजपेयी सरकार के दौर में श्रम क़ानूनों को पंगु बनाने के लिए राष्ट्रीय श्रम आयोग (2002) रिपोर्ट आई थी, तब व्यापक विरोध के कारण यह अमली रूप नहीं ले सका था। लेकिन बाजपेयी से मनमोहन सरकार के दौर तक धीरे-धीरे यह लागू होता रहा।

इसे एक झटके से ख़त्म करने का काम मोदी सरकार ने किया। नई श्रम संहिताएं उसी श्रम आयोग की ख़तरनाक़ सिफ़ारिशों पर आधरित हैं।

नए श्रम कानून अपने को सुरक्षित समझ रहे 8 फीसदी मज़दूर आबादी को भी असंगठित क्षेत्र में धकेलने की मुकम्मल तैयारी है। 

उल्लेखनीय है कि लॉकडाउन के समय 20 मई 2020 को केंद्र सरकार द्वारा आयोजित बैठक में उद्योगपतियों ने सरकार के सामने अपनी माँगों की एक लंबी फेहरिस्त सौंपी थी, जिसमें 12 घंटे कार्यदिवस, सामाजिक सुरक्षा मदों में कटौती सहित मज़दूर अधिकारों को ख़त्म करने और मालिकों को विशेष पैकेज देने की माँग शामिल थी। श्रम संहिताओं में उन सभी माँगों को पूरा किया गया है।

तमाम विरोधों के बावजूद केंद्र की मोदी सरकार ने इन संहिताओं की नियमावलियाँ भी पारित कर ली हैं। अभी तक 23 राज्य इन संहिताओं को अपनाकर उसकी नियमावलियाँ भी तैयार कर चुके हैं। अब 7 राज्य बचे हैं। केंद्र सरकार चाहती है कि सारे राज्य एक साथ इन चारों संहिताओं को लागू कर दें। ऐसा नहीं हुआ तो भी मालिकों को खुश करने को व्याकुल मोदी सरकार इसे लागू कर सकती है।

उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, अरुणाचल प्रदेश, हरियाणा, झारखंड, पंजाब, मणिपुर, बिहार, हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर उन राज्यों में शामिल हैं, जिन्होंने पहले ही अपनी नियमावलियाँ तैयार कर ली हैं।

आइए इन चारों श्रम संहिताओं के मूल बिंदुओं को जानने की कोशिश करते हैं। यह चार श्रम संहिताएं हैं- औद्योगिक संबंध संहिता 2020; मज़दूरी श्रम संहिता 2019; सामाजिक सुरक्षा संहिता 2020 और व्यवसायगत सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य स्थितियों की संहिता 2020।

औद्योगिक संबंध संहिता 2020

यह नाम में ही औद्योगिक विवाद की जगह औद्योगिक संबंध कहता है। यानी शेर और बकरी संबंध बनाएंगे!

यह विशेष रूप से उद्योगों, खदानों, दफ्तरों में काम करने वाले मज़दूरों-कर्मचारियों के लिए सबसे घातक क़ानून है। कोविड बंदिशों के दौर में बड़े ही चालाकी से मोदी सरकार ने पूर्व में प्रस्तुत औद्योगिक संबंध श्रम संहिता 2019 को वापस लेकर उससे भी खतरनाक औद्योगिक संबंध श्रम संहिता 2020 जारी करके पारित भी करा लिया। उसकी नियमावली भी पारित करा ली। 

इस क़ानून के अस्तित्व में आते ही लंबे संघर्षों से हासिल हुए अधिकार जो एक हद तक मजदूरों को यूनियन बनाने, कारखाने में काम करने, छुट्टी, माँगपत्र देने, रोजगार की सुरक्षा आदि के संबंध में जो तीन सबसे महत्वपूर्ण कानून है- ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926, औद्योगिक रोजगार (स्थाई आदेश) अधिनियम 1946 और औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 समाप्त हो जाएगा।

इससे मज़दूरों पर फर्क पड़ने वाले कुछ खास बिंदुओं की हम यहां चर्चा करते हैं-

अब मज़दूर होंगे ‘फिक्स्ड टर्म’

यह कानून स्थाई रोजगार को पूरी तरह से खत्म करने वाला है क्योंकि कर्मकार की परिभाषा में एक नया शब्द डाला गया है- फिक्स्ड टर्म इम्पालाइमेन्ट। मतलब साफ है कि अब कंपनियां स्थाई मजदूर रखने की जगह पर 3 साल, 4 साल या 5 साल के लिए एक नियत अवधि में रोजगार में रखेंगी और अवधि समाप्त होते ही बाहर कर देंगी।

संहिता में स्पष्ट रूप से लिखा है कि इस श्रेणी की मज़दूर अपने स्थायीकरण की मांग भी नहीं कर सकते। इसका ताजा उदाहरण हम केंद्र की मोदी सरकार द्वारा सेना में अग्निपथ के नाम पर 4 साल के लघु अवधि की भर्ती को देख सकते हैं।

उद्योग, मज़दूर व मालिक की परिभाषा पलटी

इस संहिता के तहत उद्योग की परिभाषा को ही बदल दिया गया है। इसके तहत चैरिटेबल संस्थाओं, रक्षा अनुसंधान संस्थानों आदि को उद्योग माना ही नहीं गया है। यानी मंदिर, मस्जिद, चर्च, धर्मशाला, अस्पताल, शिक्षण संस्थान, परमाणु ऊर्जा और रक्षा अनुसंधान आदि संस्थानों में काम करने वाले लाखों मज़दूरों को श्रम कानून के दायरे से ही बाहर कर दिया गया है।

प्लेटफॉर्म श्रमिक, प्रशिक्षु, आईटी श्रमिक, स्टार्टअप्स और लघु, कुटीर एवं मध्यम उपक्रम में कार्यरत, घर आधारित स्वनियोजित श्रमिक, असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिक, वृक्षारोपण श्रमिक व मनरेगा श्रमिक आदि लाखों नए और मौजूदा श्रेणियों को वैधानिक औद्योगिक संबंध संरक्षण के दायरे से बाहर रखा गया है।

इसी तरह मज़दूर की परिभाषा को बदला गया है जिसमें ₹18000 से कम मासिक वेतन पाने वाले को ही मजदूर कहा गया है और इसके ऊपर कमाने वालों को कर्मचारी कहा गया है। यह सिर्फ नाम का बदलाव नहीं है। साफ है कि अधिक ₹18000 से अधिक वेतन पाने वाला मज़दूर यूनियन बनाने के अधिकार सहित अपने तमाम अधिकारों से वंचित हो जाएगा।

इसके अलावा मालिक/नियोक्ता की भी परिभाषा को बदल दिया गया है। अब ठेकेदार भी मालिक होगा। यानी जिस कंपनी में मज़दूर काम कर रहा है, उस कंपनी की पीएफ, वेतन, अवकाश आदि की कोई जवाबदेही नहीं होगी। क्योंकि काम भले ही वहां कर रहा हो वह ठेकेदार का मज़दूर होगा।

इसी तरह सामूहिक समझौते की जगह मालिक एक व्यक्ति से भी समझौता कर सकता है। जिसका अर्थ किसी भी मज़दूर के लिए समझना कठिन नहीं है, विशेष रूप से मांग पत्र देने के बाद की स्थितियों को। इसका सबसे बड़ा दंड यूनियन बनाने वाले मज़दूरों पर पड़ेगा।

छँटनी-बंदी की खुली छूट

इस संहिता के तहत जहां पर 300 से कम श्रमशक्ति कार्य करती है, वहां पर लेऑफ, छँटनी, बंदी या तालाबंदी के लिए नियोक्ता को अनुमति लेने की जरूरत नहीं रहेगी। इस दायरे में मज़दूरों की एक बड़ी आबादी आ जाएगी, क्योंकि ज्यादातर कारखाने 300 से कम कार्यबल पर चलाए जाते हैं। इसके अलावा रोबोट द्वारा कार्य कराने का प्रचलन बढ़ने से मज़दूरों की संख्या और भी कम होती जाएगी।

इस कानून के तहत गैर कानूनी ठेका प्रथा को कानूनी रूप मिल जाएगा। क्योंकि अब 50 मज़दूरों से कम क्षमता वाले संस्थान में ठेकेदार को लाइसेंस लेने की अनिवार्यता भी खत्म कर दी गई है।

ट्रेड यूनियन अधिकार पर बड़ा हमला

इस संहिता द्वारा बड़े हमलों में ट्रेड यूनियन अधिकार पर हमला महत्वपूर्ण है। 10% या न्यूनतम 100 (दोनों में जो कम हो) मज़दूर ही मिलकर अब यूनियन बना सकेंगे। यूनियन बनाने से पहले सभी सदस्यों के नामों का सत्यापन करवाना अनिवार्य होगा जो प्रबंधन द्वारा नियुक्त अधिकारी करेगा। साफ है कि प्रबंधन या मालिक की मनमर्जी के बगैर यूनियन बनाना ही संभव नहीं होगा।

जहाँ पर यूनियन की सदस्यता 10% या 100 मजदूरों से कम होगी तो उसका पंजीकरण भी रद्द किया जा सकता है। यदि कोई यूनियन मज़दूर अधिकारों के लिए मालिकों से बात करना चाहती है तो 51 फ़ीसदी मज़दूरों की सहमति प्राप्ति को साबित करना पड़ेगा।

संहिता की नियमावली में वर्क्स कमेटी के गठन की बात है। वर्क्स कमेटी नियोक्ता और श्रमिक प्रतिनिधियों की भागीदारी से बनेगी, जिसमें कमेटी प्रतिनिधि नियोक्ता द्वारा नामित किए जाएंगे। पंजीकृत ट्रेड यूनियन अपनी सदस्यता के अनुपात में वर्क्स कमेटी के सदस्यों के रूप में अपने प्रतिनिधि चुनेंगे। जहाँ यूनियन नहीं है, वहाँ कामगार वर्क्स कमेटी के लिए खुद प्रतिनिधि चुनेंगे।

इस वर्क्स कमेटी में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव व संयुक्त सचिव होंगे, जिसमें अध्यक्ष नियोक्ता/प्रबन्धन ही होगा और सचिव व संयुक्त सचिव का हर साल चुनाव होगा। उपाध्यक्ष कामगारों में से चुना जाएगा। यानी पूरी बागडोर नियोक्ता के हाथ में होगी

यूनियनों को कमजोर करने के लिए इस संहिता में अलग से एक और नियमावली जारी हुई है। यह यूनियन की मान्यता यानी मालिक से वार्ताकारी यूनियन अथवा वार्ता कार्यपरिषद की मान्यता और ट्रेड यूनियनों के विवाद का न्याय निर्णयन नियम 2021 है।

इसके अंतर्गत कंपनी प्रबंधन के साथ किसी भी मसले पर यहाँ तक कि माँगपत्र देने और उस पर वार्ता करने के लिए पंजीकृत ट्रेड यूनियनों की मान्यता का बड़ा खेल खेला गया है।

यह श्रमिकों की एकमात्र वार्ताकारी यूनियन के रूप में पंजीकृत यूनियन को मान्यता देने का प्रावधान है। इसके तहत पंजीकृत यूनियन के लिए उद्योग में नियोजित कुल कामगारों के कम से कम 30% सदस्य होने की बाध्यता रखी गई है जिसे एकमात्र वार्ताकार यूनियन के रूप में मान्यता मिलेगी।

नियोक्ता ट्रेड यूनियन की सदस्यता के सत्यापन के लिए एक सत्यापन अधिकारी नियुक्त करेगा। ट्रेड यूनियन को मान्यता के आवेदन के साथ यूनियन के पंजीकरण प्रमाण पत्र की प्रति, सदस्यों की सूची की प्रति, सदस्यता विवरण और ट्रेड यूनियन पंजीकार के पास जमा कराई गई नवीनतम वार्षिक विवरणी की प्रति तथा अन्य संबंधित प्रलेख जमा करने पड़ेंगे।

मान्यता की इस जटिल प्रक्रिया में सत्यापन अधिकारी सभी कागजातों का सत्यापन करेगा और बाकायदा चुनाव द्वारा गुप्त मतदान के माध्यम से यूनियन सदस्यता का सत्यापन करेगा और रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा।

सत्यापन अधिकारी द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के आधार पर नियोक्ता वार्ताकार संघ या वार्ताकार परिषद के घटक के रूप में उक्त यूनियन को मान्यता देगा, जो 3 वर्ष के लिए अधिकतम 5 वर्ष के लिए होगा।

हड़ताल क़ानूनी रूप से लगभग असंभव

अब हड़ताल करना लगभग असंभव हो जाएगा। हड़ताल के लिए नोटिस देने को कठिन बनाया गया है। पूरे समझौता वार्ता या श्रम अधिकारियों के समक्ष सुनवाई के दौरान मज़दूर यदि हड़ताल करते हैं तो वह गैरकानूनी घोषित किया जाएगा। 50 फ़ीसदी से अधिक मज़दूर यदि किसी कार्यदिवस पर अवकाश पर होंगे तो उसे भी गैरकानूनी हड़ताल का दर्जा दिया जाएगा।

गैर कानूनी हड़ताल के लिए मज़दूरों को 2 साल तक की सजा और एक लाख रुपए तक का आर्थिक दंड का प्रावधान किया गया है। साथ ही यूनियन का पंजीकरण भी रद्द किया जा सकता है।

जिस संस्थान में एक से अधिक यूनियनें होंगी, वहां नई संहिता के तहत यूनियन को 51% मजदूरों की सदस्यता साबित करके अकेली वार्ताकार यूनियन के रूप में बैठ सकती हैं। जाहिर सी बात है की प्रबंधन अपने पॉकेट यूनियन के जरिए सब कुछ कराने के लिए अधिकार संपन्न हो जाएगी।

आपराधिक कर्रवाई से मालिक मुक्त

संहिता द्वारा जहां मज़दूरों के ऊपर भारी जुर्माने और जेल का प्रावधान है, वहीं मालिकों के वेतन, पीएफ, बोनस जैसे डकैती पर भी आपराधिक वाद समाप्त कर दिए गए है और केवल आर्थिक दंड का प्रावधान कर दिया गया है।

श्रम अधिकारी बनेगा फैसिलिटेटर

अब श्रम अधिकार फैसिलिटेटर होंगे। इसका मतलब ही है सुविधा देने वाला। जैसा नाम, वैसा काम! यानी उनका मुख्य काम होगा सुविधा देना, सलाह देना!

श्रम कानूनों में परिवर्तन के तहत जारी श्रम संहिताओं के अनुसार केंद्र व राज्य में श्रम आयुक्त, अतिरिक्त श्रम आयुक्त, उप श्रमायुक्त, सहायक श्रम आयुक्त और लेबर इंस्पेक्टर की जगह चीफ फैसिलिटेटर, एडिशनल फैसिलिटेटर, डिप्टी फैसिलिटेटर, असिस्टेंट फैसिलिटेटर और फैसिलिटेटर होंगे। यह महज नाम परिवर्तन नही है, बल्कि अधिकार भी सीमित हो गए हैं।

नये प्रावधानों के तहत नियोक्ता हर चीज को स्वतः प्रमाणित करेगा, जिसे फैसिलिटेटर मानने को बाध्य होगा। मज़दूर साल में एक बार ही शिकायत दर्ज करा सकता है। कंपनियों में सीधे जाँच करने की जगह किसी शिकायत पर फैसिलिटेटर द्वारा ‘वेब आधारित जाँच’ होगी। जिला मजिस्ट्रेट फैसिलिटेटर की निगरानी करेंगे। 

औद्योगिक विवादों का निपटारा श्रम न्यायालय द्वारा नहीं बल्कि एक ऐसी औद्योगिक न्यायाधिकरण द्वारा किया जाएगा जिसमें प्रशासन का हस्तक्षेप होगा।

मजदूरी श्रम संहिता 2019

कहने के लिए तो यह न्यूनतम मज़दूरी निर्धारण की संहिता है, लेकिन इस संहिता में वेतन निर्धारण का कोई मानदंड या प्रारूप नहीं बनाया गया है। और पुराने वेतन बोर्ड आदि को समाप्त कर दिया गया है।

अवकाश, कार्य के घंटों आदि की हेरा फेरी वाली इस संहिता से मज़दूरी भुगतान अधिनियम 1936; न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम 1948; बोनस भुगतान अधिनियम 1965 और समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 समाप्त हो जाएंगे।

संहिता में तर्क दिया गया है कि विभिन्न श्रम कानूनों में वेतन की 12 परिभाषाएं हैं, जिन्हें लागू करने में कठिनाइयों व मुकदमेबाजी को बढ़ावा मिलता है। इसको सरल बनाया गया है, जिससे मुकदमेबाजी कम हो और एक नियोक्ता के लिए इसका अनुपालन सरलता हो। यानी न्यूनतम वेतन के लिए क़ानूनी संघर्ष का रास्ता भी बन्द होगा।

वेतन निर्धारण के पुराने मानदंड ही खत्म

संहिता में वेतन निर्धारण के लिए काम की जगह और मज़दूर के कौशल को आधार बनाया गया है। इसकी नियमावली में न्यूनतम वेतन निर्धारण के लिए देश को तीन भौगोलिक क्षेत्रों में बांटने की बात है। पहले वर्ग में 40 लाख या ज्यादा आबादी वाले मेट्रोपोलिटन शहर, दूसरे वर्ग में 10 से 40 लाख आबादी वाले नॉन मेट्रोपोलिटन शहर और तीसरे वर्ग में ग्रामीण इलाकों को शामिल किया गया है।

संहिता में न्यूनतम मज़दूरी तय करने वाले बोर्ड का प्रारूप भी स्पष्ट रूप से मालिकों के पक्ष में बना दिया गया है। बोर्ड में नियोक्ता, सरकार के प्रतिनिधि, कुछ स्वतंत्र व्यक्ति और मज़दूर प्रतिनिधि शामिल होंगे। इसकी नियमावली में न्यूनतम वेतन निर्धारण पर कुछ नहीं कहा गया है, यह काम भावी एक्सपर्ट कमिटियों के जिम्मे है। 

मज़दूरी तय करने का वह फार्मूला पूरी तरह से बदल दिया गया है, जिसे 15वें भारतीय श्रम सम्मेलन में तय किया गया था। यानी मालिक मनमर्जी न्यूनतम वेतन निर्धारित करने के लिए कानूनी रूप से मजबूत हो जाएंगे।

सरकार की मंशा इसी से समझा जा सकता है कि 2019 में जब यह संहिता पारित हुई थी, तब केंद्र की मोदी सरकार ने ₹178 दैनिक (यानी करीब साढ़े पाँच हजार रुपए मासिक) वेतन निर्धारण की थी।

कार्य दिवस में घालमेल; काम का बोझ ज्यादा

इस संहिता में कार्य दिवस के संबंध में काफी घालमेल प्रस्तुत किया गया है और हेराफेरी की गई है। इसमें लिखा है कि केंद्र अथवा राज्य सरकार कार्य के घंटों का निर्धारण कर सकती है जो एक सामान्य कार्य दिवस बनते हैं। संहिता में दैनिक 12 घंटे काम करने का प्रावधान भी कर दिया गया है। हालांकि साप्ताहिक कार्य 48 घंटे लिखा है।

इसी घालमेल का फायदा उठाकर तमाम मीडिया उछाल रहे हैं कि अब सप्ताह में 4 या 5 दिन काम करना होगा। लेकिन दरअसल ऐसा नहीं है, बल्कि बगैर ओवर टाइम भुगतान मनमर्जी काम कराने की छूट दी गई है।

जबतक काम पूरा नहीं होता, मज़दूर काम छोड़कर नहीं जा सकता। इसकी नियमावली में सिर्फ उन कर्मियों को ओवरटाइम भुगतान का जिक्र किया गया है जो छुट्टी के दिन काम करते हैं।

घंटे के हिसाब से मज़दूरी; ओवर टाइम के घंटे बढ़े

इस संहिता के तहत कच्चा माल, बिजली आदि की अनुपलब्धता के बहाने कभी भी मज़दूर को वापस लौटाया जा सकता है। मज़दूरी घंटे, आधे दिन भी देने की बात दर्ज है। यानी घंटा- दो घंटा भी काम करवाकर मालिक मज़दूर को मुक्त कर सकता है, और वेतन भी पूरी देने की बाध्यता नहीं रहेगी।

यही नहीं, ओवरटाइम के घंटों को भी एक तिमाही में 50 घंटे से बढ़ाकर 125 घंटे कर दिया गया है। दूसरी ओर कंपनियां खुद को घाटे में दिखाकर बोनस जैसे अहम देनदारी से भी बच सकती हैं।

‘समान काम-समान वेतन’ गायब; बाल श्रम को बढ़ावा

यह संहिता में मज़दूरों को बंधुआ मज़दूरी को बढ़ावा देने वाले प्रावधानों को चुपके से शामिल कर दिया गया है। अग्रिम वेतन के नाम पर छोटी फैक्ट्रियां, ईट भट्ठे और ऐसे तमाम संस्थाओं के मालिक अग्रिम भुगतान करके बंधुआ मज़दूरी कराने के लिए कानूनी रूप पा जाएंगे। इस संहिता में यह भी लिखा है कि कोई भी अदालत इसके अधीन आने वाले विवादों का संज्ञान नहीं ले सकती है।

समान काम का समान वेतन में गोलमाल है। यह बाल श्रम को बढ़ावा देने वाला है। इसमें घर से चलने वाले तमाम कामों व अन्य कामों 15 साल से कम उम्र के बालश्रमिकों को काम पर रखने की छूट दी गई है।

तमाम अन्य तरीके के कामों जैसे मनरेगा मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी के दायरे से बाहर रखा गया है। आशा वर्कर, आंगनवाड़ी, भोजन माता, स्वास्थ्य मिशन आदि स्कीम वर्कर को तो सरकार मज़दूर के दायरे में ही नहीं रखती है, तो न्यूनतम वेतन का सवाल ही नहीं पैदा होता है। इसके अलावा घरेलू कामगारों, गिग और प्लेटफ़ॉर्म मजदूर आदि के वेतन के बारे में यह संहिता कुछ नहीं कहती है।

सामाजिक सुरक्षा संहिता 2020

देखने में यह सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने वाली संहिता है। लेकिन दरअसल इससे ज्यादातर मज़दूरों की सामाजिक सुरक्षा और भी कठिन हो जाएगी।

इस संहिता के तहत कर्मचारी मुआवजा अधिनियम 1923; कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम 1948; कर्मचारी प्रोविडेंट फंड अधिनियम 1952; रोजगार कार्यालय (रिक्तियों की अनिवार्य अधिसूचना) अधिनियम 1959; मातृत्व लाभ अधिनियम 1961; ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम 1972; सिने वर्कर्स वेलफेयर फंड अधिनियम 1981; भवन और अन्य निर्माण श्रमिक कल्याण उपकर अधिनियम 1966; असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम 2008 जैसे नौ कानून समाप्त हो जाएंगे।

मुआवजा, ईएसआई, ईपीएफ में घपला

इस संहिता के जरिए कर्मचारियों के मुआवजा की अब तक मौजूदा परिभाषा ही बदल दी गई है। कार्यस्थल पर चोट लगने पर मुआवजा मालिक के रहमो करम पर होगा और मुआवजा देने की बाध्यता समाप्त कर दी गई है।

वैसे भी ईएसआई के दायरे में आने वाले कर्मचारी मुआवजा अधिनियम से पहले ही बाहर थे।

ईएसआई के तहत पहले की तरह सुरक्षा की गारंटी समाप्त कर दी गई। ईएसआई में मालिक के योगदान को 4.75 से घटाकर 3.25% कर दिया गया है। हालांकि मज़दूरों का भी योगदान 1.75 से घटकर 0.75 ही रह गया है। लेकिन मुख्य लाभ मालिक को ही होगा। यही नहीं मालिक द्वारा अपना हिस्सा जमा नहीं करने पर जेल का प्रावधान समाप्त करके केवल मामूली जुर्माना लगेगा।

इस संहिता में ईपीएफ में पहले की सुरक्षा को कम कर दिया गया है। मजदूरों को अपने ईपीएफ जमा राशि को निकालने में कई रुकावटें बनाई गई है, क्योंकि अब इपीएफ शेयर मार्केट पर आधारित कर दिया गया है। और शेयर मार्केट डूब गया तो कर्मचारी का क्या होगा इस पर यह संहिता खामोश है।

ईपीएफ में मालिक का योगदान 12% से घटाकर 10% कर दिया गया है। यही नहीं मालिक 50 फ़ीसदी मज़दूरों से हस्ताक्षर करवाकर पीएफ में पैसा जमा करने के झंझट से भी मुक्त हो जाएगा।

इस संहिता के तहत अब रोजगार कार्यालय किस राज्य में कितने पद खाली हैं या होने वाले हैं उसका ब्यौरा देने से भी बच जाएगी। इसके निजीकरण के कारण कितनी भर्ती होगी, कितने मज़दूर निकाले जाएंगे, यह सब फैक्ट्री मालिक तय करेंगे।

मातृत्व लाभ, ग्रेच्युटी का ढकोसला

मातृत्व लाभ का जो शोर मचाया जा रहा है वह लाभ भी संगठित क्षेत्र की मात्र 7 फ़ीसदी महिला श्रमिकों को मिलेगा और 93 फीसदी असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाएं इससे वंचित होंगी या मामूली राहत मिलेगी। यानी 6 महीने के मातृत्व अवकाश में ₹1000 प्रति माह मिलेगा, वह भी कहां से मिलेगा, कैसे मिलेगा स्पष्ट नहीं है।

ग्रेच्युटी भुगतान के संबंध में भी काफी शोर मचाया जा रहा है। लेकिन 5 साल की जगह 2 साल कर देने से मज़दूरों को कितना लाभ होगा, इसको इस तरीके से समझा जा सकता है कि 2 साल में ग्रेच्युटी ही कितनी बनेगी?

और इसको फिक्स्ड टर्म इंप्लॉयमेंट से अगर जोड़ कर देखा जाए तो उसी तरीके से है जैसे सेना में अग्नि वीरों की भर्ती में सरकार में गिनाया है।

उनको 4 साल जो वेतन मिलेगा उसका 30 फ़ीसदी काटकर और उतनी राशि सरकार अपने पास से मिलाकर 4 साल के बाद देगी। लेकिन निजी क्षेत्र में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, तो 2, 3 या 4 साल नौकरी के बाद उसे ग्रेच्युटी कितनी मिलेगी, अंदाजा लगाया जा सकता है।

यही नहीं अब जैसा कि ठेका प्रथा में होता है, मज़दूरों को 11 महीने से अधिक की भर्ती ही नहीं की जाएगी तो ग्रेच्युटी का लाभ ही पाने का भी कोई रास्ता नहीं रह जाएगा।

इस संहिता के तहत अब 2 साल तक काम करने के बाद ही किसी श्रमिक को स्थाई होने का हक मिलेगा, लेकिन फिक्स्ड टर्म एंप्लॉयमेंट इसके ठीक विपरीत है।

कर्मकार की परिभाषा से गायब

नीम ट्रेनी के नाम पर बड़े पैमाने पर जो फोकट के मज़दूरों से काम कराने का धंधा चल रहा है उसमें ना तो वह कर्मकार की परिभाषा में आता है न ही न्यूनतम मज़दूरी का प्रावधान उस पर लागू होता है और ना ही किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा का वह हकदार है।

इसी तरह से असंगठित क्षेत्र में स्कीम वर्कर, ऑन लाइन ऐप आधारित काम करने वाले गिग व प्लेटफार्म मज़दूर, अंतर राज्य प्रवासी मज़दूर के लिए विशिष्ट सामाजिक सुरक्षा का प्रावधान नहीं है। गिग और प्लेटफार्म वर्कर तो कर्मकार की परिभाषा के दायरे से भी बाहर हैं। खेत मज़दूर, बीड़ी मज़दूर, घरेलू कामगार आदि भी इस दायरे से बाहर हैं।

व्यवसाय की सुरक्षा स्वास्थ्य एवं कार्य दशाओं की संहिता 2020

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है यह संहिता व्यवसाय की सुरक्षा पर आधारित है।

इसके तहत कारखाना अधिनियम 1948; बागान श्रमिक अधिनियम 1951; खान अधिनियम 1952; श्रमजीवी पत्रकार एवं अन्य समाचार पत्र कर्मचारी (सेवा शर्तें एवं विविध प्रावधान) अधिनियम 1955; श्रमजीवी पत्रकार (वेतन दरों का निर्धारण) अधिनियम 1958; मोटर परिवहन कामगार अधिनियम 1961; बीड़ी और सिगार श्रमिक (रोजगार की शर्तें) अधिनियम 1966; ठेका श्रमिक (नियमन और उन्मूलन अधिनियम 1970; बिक्री संवर्धन कर्मचारी (सेवा शर्तें) अधिनियम 1976; अंतर राज्य प्रवासी श्रमिक (रोजगार और सेवा शर्तों का नियमन) अधिनियम 1979; सीने कामगार एवं सिनेमा थियेटर कामगार अधिनियम 1981; गोदी कामगार (सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कल्याण) अधिनियम 1986; भवन निर्माण और अन्य संनिर्माण श्रमिक (रोजगार एवं सेवा शर्तों का नियमन) अधिनियम 1996 सहित 13 कानून खत्म हो जाएंगे।

ये सभी कानून अलग-अलग कार्य क्षेत्रों को समेट लेता है। इसमें उद्योगों में काम करने वाले मज़दूरों से लेकर खानों, खदानों, बागानों आदि में काम करने वाले मज़दूरों से लेकर पत्रकारों, मीडिया कर्मियों और सिनेमा में कार्य करने वाले मज़दूर कर्मचारी तक शामिल हैं।

कारखाने की परिभाषा बदली

इस नई श्रम संहिता का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि इसमें कारखाने की परिभाषा को बदल दिया गया है, जो व्यापक मज़दूरों के विरुद्ध है। संहिता के तहत बिजली से चलने वाले संस्थानों में 20 तथा बिजली के बिना चलने वाले संस्थानों में 40 मजदूर होने पर ही उसे फैक्ट्री माना जाएगा। यानी बड़े कारखानों का एक दायरा है जो पूरी तरीके से कारखाने की परिभाषा से बाहर हो जाएगा।

इस संहिता जुमलेबाजी यह कि जहां नियोक्ता को कार्यस्थल की सुरक्षा के तमाम प्रावधान लागू करने की बात की गई है, वहीं मज़दूर उन सुविधाओं को हासिल कैसे करेगा यह गायब है।

इसके तहत सुरक्षा समितियां बनाने की बात की गई है, जिसमें 500 से अधिक मज़दूरों वाले कारखानों और 250 से अधिक काम करने वाले खतरनाक उद्योगों में ही सुरक्षा समितियां गठित होंगी। यानी सामान्य तौर पर 500 से कम संख्या वाले कारखानों में सुरक्षा का प्रावधान नियोक्ताओं की मनमर्जी होगा। क्योंकि बेहद कम कारखाने ऐसे हैं जहां 500 से अधिक श्रमशक्ति कार्य करती है।

इस संहिता के तहत 50 मज़दूरों तक की आपूर्ति करने वाले ठेकेदार नियमों से मुक्त रहेंगे। बगैर किसी उचित सुरक्षा प्रावधान के इस संहिता के तहत अब रात्रि पाली में भी महिला मज़दूरों से काम कराए जाने की खुली छूट दे दी गई है।

इस संहिता के तहत भी कार्य दिवस की सीमा बढ़ाकर 12 घंटे कर दी गई है। तमाम दावों के बावजूद यह संहिता मज़दूरों के स्वास्थ्य और जानमाल के लिए नए खतरे पैदा करने वाली है जो संविधान में प्रदत्त सम्मानजनक रोजगार और जिंदगी जीने की गारंटी का भी उल्लंघन करती है।

मोदी सरकार जितनी तेज गति से देशी-विदेशी मुनाफाखोरों के हित में मज़दूरों को अधिकार विहीन व बंधुआ बना रही है, उससे सरकार की मालिकों के प्रति पक्षधरता दिन के उजाले की तरह साफ़ है। लेकिन मज़दूरों के एक हिस्से के बीच अभी भी मोदी को लेकर भ्रम कायम है, बल्कि यह अंधभक्ति की सीमाओं को भी लाँघ चुकी है।

अब लड़ाई है कठिन, लेकिन होगी आर-पार की

यह याद रखने की बात है कि मोदी सरकार जिन क़ानूनों को मनमाने तरीके से खत्म कर रही है, वे खैरात में नहीं मिले थे, बल्कि लंबे संघर्षों के दौरान तमाम शहादतें और कुर्बानियाँ देकर हमारे पुरखों ने हासिल की थीं। आज मज़दूर आंदोलन की कमजोर स्थिति और मज़दूर जमात को जाति-धर्म-राष्ट्र के जुनूनी माहौल में उलझाने का लाभ उठाकर ऐसा हो रहा है।

इतिहास गवाह है कि मज़दूर आबादी के ऊपर आए गंभीर संकट उनको आर-पार के संघर्ष के लिये खड़ा करेंगी। यह भी ध्यान देने की बात है कि जब कोई क़ानून नहीं थे, तब भी लाखों-लाख मज़दूर सड़कों पर उतरे थी और अपने तमाम हक हासिल किए थे।

आज पूँजी के सामने दंडवत लेटी मोदी सरकार और पूँजीपतियों की राह आसान बना रही आरएसएस-भाजपा के उन्मादी फिजा से मेहनतकश आवाम बाहर निकालकर अपने अस्मिता के लिए सड़कों पर उतरेगी! जैसा कि 13 महीने के संघर्षों के दौरान इस देश के किसानों ने किया।

मज़दूर-मेहनतकश जनता का संघर्ष अब महज पुराने अधिकारों को बचाने का नहीं होगा, बल्कि उससे भी आगे जाकर उत्पादन, राजकाज और पूरे सामाजिक ढांचे पर मेहनतकश वर्ग के नियंत्रण में लेने का होगा! जो मेहनतकश को सभी ज़ुल्मों से आजादी दिलाएगा।

मज़दूर साथियों के लिए यह अबतक का सबसे विकट दौर है, इसे समझना होगा! उन्हें राष्ट्र-धर्म के जुनूनी माहौल से बहार निकलना होगा और संघर्ष को सही दिशा में आगे बढ़ा रही ताक़तों के साथ कन्धा मिलाना होगा!

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