भयावह बेरोजगारी क्यों?

रोजगार की माँग पर दमन तेज हो जाता है। …दो करोड़ रोजगार का वायदा करके सत्ता पाने वाले जनाब मोदी ने ”पकौड़ा रोजगार“ थमा दिया और बेरोजगारों को साम्प्रदायिक जुनून में फंसा दिया।

बीते दिनों रेलवे की परीक्षा में धांधली के बाद यूपी और बिहार में नौजवान आंदोलित हुए। इलाहबाद में संघर्षरत युवाओं के पुलिसिया दमन से यह आन्दोलन और फ़ैल गया।

दरअसल, युवाओं में गुस्से की बड़ी वजह बेरोजगारी है, जो 50 सालों में सबसे अधिक है। सीएमई के अनुसार भारत में दिसंबर 2021 तक युवा बेरोजगारों की संख्या 5.3 करोड़ है। यह संख्या 2020 में देशभर में लगे लॉकडाउन के दौर से भी ज्यादा है।

स्थिति यह है कि बेरोजगारी के कारण देश में खुदकुशी लगातार बढाती जा रही है। एनसीआरबी के आंकड़ों के हवाले से गृह राज्य मंत्री ने राज्यसभा में बताया कि 2020 में बेरोजगारी के कारण 3,548 लोगों ने आत्महत्या कर ली। जबकि 2018 से 2020 के बीच बेरोजगारी के कारण 9,140 लोगों ने खुदकुशी की। इसी अवधि में 16,000 से अधिक लोगों ने दिवालिया होने या कर्ज में डूबे होने के कारण आत्महत्या कर ली।

हालांकि वास्तविकता इन आंकड़ों से क़ाफी ज्यादा है। बहुत बड़ी आबादी ऐसे लोगों की भी है जिन्हें बेरोज़गारी के आँकड़ों में गिना ही नहीं जाता, लेकिन वास्तव में उनके पास साल में कुछ दिन ही रोज़गार रहता है या फिर कई तरह के छोटे-मोटे काम करके भी वे मुश्किल से जीने लायक कमा पाते हैं।

देश में 28 लाख सरकारी पद खाली हैं। जबकि काम करने वालों की और प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है, बुनियादी सुविधाओं के विकास और रोज़गार के अवसर पैदा करने की अनन्त सम्भावनाएँ मौजूद हैं, फिर भी इस क़़दर बेरोज़गारी क्यों मौजूद है?

दरअसल बेरोजगारी पूँजीवादी समाज की आम परिघटना है। मुनाफे की अंधी हवस से बेरोजगारी बढ़ती जाती है। पूँजीवाद में बार-बार आने वाले आर्थिक संकटों के दौर में बेरोज़गारों की ”रिज़र्व सेना“ में भारी बढ़ोत्तरी होती है।

ऐसे में मज़दूरों की एक तादाद हमेशा मौजूद रहती है जिनके पास जीने के लिए अपनी श्रमशक्ति बेचने के अलावा और कोई साधन नहीं होता, मगर उन्हें कोई काम नहीं मिलता, वे बेरोज़गार होते हैं। बड़े पैमाने पर मज़दूरों-कर्मचारियों को अपने रोज़गार से हाथ धोना पड़ता है। इसीलिए आर्थिक संकट के गहराने के साथ हर दिन बेरोज़गारों की तादाद में बढ़ोत्तरी होती जा रही है।

रोजगार की माँग पर युवाओं का दमन तेज हो जाता है। रेलवे भर्ती में धांधली के ख़िलाफ आन्दोलन का दमन हो या रोजगार माँग रहे नौजवानो पर योगी सरकार का दमन। उधर दो करोड़ रोजगार का वायदा करके सत्ता की गद्दी पाने वाले जनाब मोदी ने ”पकौड़ा बेचने का रोजगार“ थमा दिया और बेरोजगार युवाओं को साम्प्रदायिक जुनून में फंसा दिया।

यह ध्यान देने की बात है कि देश के संविधान की धारा 41 में सबको नौकरी के अधिकार की बात की गई है। हालाँकि इसका पालन किसी भी सरकार ने नहीं किया। नव उदारवादी इस दौर में रोजगार देना तो दूर, छीनने का ही काम होता रहा, जो मोदी युग में चरम पर है। नए लेबर कोड द्वारा नौकरी का अधिकार खत्म किया जा रहा है। स्थाई रोजगार की जगह ”फिक्स्ड टर्म“ का क़ानून बन चुका है।

ऐसे में रोज़गार के सवाल पर एक मजबूत और व्यापक आन्दोलन खड़ा करना ज़रूरी है जो सबके लिए रोज़गार की व्यवस्था करने की सरकार की ज़िम्मेदारी पर ज़ोर दे।

लाखों खाली पड़े पदों पर भर्ती करने, बन्द कारख़ानों, खदानों आदि व सार्वजनिक निर्माण के जनोपयोगी कामों को शुरू कराने, ठेकेदारी प्रथा को ख़त्म करके नियमित रोज़गार देने, छंटनी-बंदी-फिक्स्ड टर्म पर रोक लगाने, रोजगार मिलने तक बेरोज़गारों को जीवनयापन लायक बेरोज़गारी भत्ता देने जैसी माँगों को पुरज़ोर ढंग से उठाने की ज़रूरत है।

‘संघर्षरत मेहनतकश’ अंक-46 (जनवरी-मार्च, 2022) की संपादकीय

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