मासा का मज़दूर कन्वेंशन : लेबर कोड रद्द करो, 23-24 फरवरी की मज़दूर हड़ताल को सफल बनाओ!
मज़दूरों पर लगातार बढ़ते हमलों के दौर में कुछ एक सालाना हड़तालों की रस्म-अदयगी नहीं, हड़ताल को मजदूर वर्ग के निरंतर, जुझारू और निर्णायक संघर्ष में तब्दील करना होगा।
26 जनवरी, गणतंत्र दिवस के दिन मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान (मासा) ने ऑनलाइन मज़दूर कन्वेंशन का आयोजन हुआ। कन्वेंशन में मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों की मुख़ालफ़त के साथ मज़दूर विरोधी 4 श्रम संहिताओं को रद्द करने, निजीकरण-कॉरपोरेटीकरण की नीतियों को खत्म करने, महंगाई बेरोजगारी पर लगाम लगाने आदि की मांग बुलंद हुई। केंद्रीय ट्रेड यूनियनों की देशव्यापी हड़ताल के आह्वान को समर्थन किया गया।
मासा ने मज़दूर आंदोलन को रस्म अदायगी से बाहर निकाल कर कुछ एक सालाना हड़तालों की रस्म अदायगी से बाहर निकाल कर निरंतर जुझारू और निर्णायक संघर्ष को आगे बढ़ाने का आह्वान किया।
कन्वेंशन में वरिष्ठ अधिवक्ता और टीयूसीआई के राष्ट्रीय महासचिव कॉमरेड संजय सिंघवी ने कहा कि मोदी सरकार सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक अन्याय को बढ़ाने का काम कर रही है। ऊपर के 20 फीसदी मालामाल हो रहे हैं और नीचे की 20 फ़ीसदी आबादी रसातल में जा रही है।
उन्होंने गणतंत्र दिवस का हवाला देते हुए कहा कि जिस संविधान को 26 जनवरी के दिन लागू किया गया था उसकी धारा 39, 41, 42 जिन अधिकारों की बात करती है सरकार ने उन अधिकारों को पूरी तरह खत्म कर दिया है। चाहे सबको नौकरी और शिक्षा पाने का अधिकार हो, चाहे जीवन जीने लायक वेतन का सवाल हो।
उन्होंने कहा कि धारा 41 में सबको नौकरी के अधिकार की बात की गई है लेकिन नए लेबर कोड द्वारा नौकरी का अधिकारी खत्म किया जा रहा है सबको शिक्षा का अधिकार की बात नई शिक्षा नीति तोपकर खत्म की जा रही है। आज एक लंबा समय हो जाने के बावजूद संविधान के अनुसार जीवन जीने लायक (लिविंग) वेतन मिलने की जगह आज न्यूनतम वेतन भी नहीं मिल रहा है।
उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री लगातार अवैज्ञानिक माहौल बना रहे हैं इसलिए संघर्ष ज्यादा कठिन है और जुझारू संघर्ष की ओर आगे बढ़ना होगा।
ग्रामीण मज़दूर यूनियन बिहार के कॉमरेड अशोक ने कहा कि नव उदारवादी सुधार के साथ तीन दशक से जिस तरीके से कदम आगे बढ़ा है उसने मज़दूरों के कानूनी सुरक्षा कवच को ही खत्म कर दिया है। नए लेबर कोड में सुरक्षा के नियमों को लचर बनाया गया है।
उन्होंने स्पष्ट किया कि लेबर कोड के खिलाफ यह लड़ाई आर्थिक नहीं बल्कि राजनीतिक लड़ाई है। फासीवादी निजाम के खिलाफ यह मज़दूर वर्ग की मुक्ति की लड़ाई है, इसलिए संसदीय छाप विरोध से मुक्त होकर एक जुझारू संघर्ष की ओर आगे बढ़ना होगा। उन्होंने नोटबंदी, जीएसटी, कोरोना के बहाने मजदूरों पर हमले, जाति धर्म के बहाने मज़दूरों पर हमले को आज के दौर में बंटवारे का प्रमुख हथियार बताया।
मज़दूर सहयोग केंद्र की ओर से कॉमरेड मुकुल ने डाइडो, इंटरार्क, माइक्रोमैक्स में दमन का हवाला देते हुए कहा कि छिनते अधिकारों के दौर में दमन भी तेज होता गया है।
कहा कि जब तक मजदूरों का संघर्ष आगे बढ़ रहा था, तब तक कानूनी अधिकार मिल रहे थे हालांकि यह कानूनी अधिकार भी एक हद तक मजदूरों को बांधने वाले थे। लेकिन 1980 के दशक से जिस प्रकार से नई नीतियां थोपने का दौर आया उसने पूंजी को बेलगाम बनाया और अधिकारों को छीनने, निजीकरण को बढ़ाने, दमन का पाटा चलाने का काम किया। डंकल प्रस्ताव के सामने घुटने टेकने के बाद विश्व व्यापार संगठन से नत्थी होकर भारत के सत्ताधारी इन्हीं नीतियों को तेजी से आगे बढ़ा रहे हैं।
आज जो चार लेबर कोड आ रहे हैं, दरअसल बाजपेयी सरकार के दौरान आई द्वितीय श्रम आयोग की रिपोर्ट को अमलीजामा पहनने का काम किया जा रहा है। इससे मज़दूरों के रोजगार, यूनियन बनाने, हड़ताल करने, स्थायीकरण सबको खत्म करके ‘हायर एंड फायर’ यानी मनर्जी रखने-निकालने की नीतियां अमल में लाई जा रही हैं।
आज मज़दूर आंदोलन एक कठिन चुनौतीपूर्ण दौर में खड़ा है और अब कुछ एक छोटी मोटी हड़ताल और आंदोलनों की जगह शतत और लंबे जुझारू आंदोलन के लिए मज़दूरों को कमर कसना होगा, जाति मजहब के सभी प्रकार के बंटवारे की दीवारों को तोड़कर वर्गीय एकता के साथ संघर्ष तेज करना होगा।
कर्नाटका श्रमिक शक्ति से कॉम बालन ने बताया कि किस तरीके से 44 श्रम कानून धीरे-धीरे छीने गए। मज़दूरों को जो 16% संरक्षण मिलता था आज वह 3% रह गया है। तेजी से निजीकरण और कानून छीनने के इस दौर में मज़दूर-मेहनतकश आबादी को 200 साल पीछे धकेल दिया है।
कहा कि आज की है लड़ाई 5% बनाम 95% की लड़ाई है, जिसका बड़ा हिस्सा दलितों का है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ ने नोटबंदी, जीएसटी, लॉक डाउन लागू कर आम मेहनतकश, विशेष रूप से दलित आबादी को बुरी तरीके से प्रभावित किया है। इसलिए पुनः संगठित करने और असुरक्षित आबादी के लिए एक व्यापक आंदोलन को आगे बढ़ाना होगा।
जन संघर्ष मंच हरियाणा के कॉम पाल सिंह ने कहा कि यह एक रस्म बन गया है कि कुछ एक विरोध प्रदर्शन कर लिया जाए, जिसके खिलाफ मासा सतत संघर्ष का जो आह्वान किया है उसे आगे बढ़ाना होगा।
उन्होंने सीएए विरोधी आंदोलन और किसान आंदोलन का जिक्र करते हुए कहा कि संघर्षों की प्रक्रिया पिछले 3 सालों से आगे बढ़ गई है, जिसे और मजबूती देना है। हमारे सामने एक चुनौती है उस चुनौती का मिलकर मुकाबला करना है।
उन्होंने शहीद ए आजम भगत सिंह का उदाहरण देते हुए कहा कि उन्होंने ट्रेड डिस्प्यूट व सेफ्टी बिल के खिलाफ जिस तरीके से बम का धमाका किया था आज उसी जज्बे की जरूरत है और उनके अधूरे सपने को आगे बढ़ाने के लिए एकजुट होने की जरूरत है।
आईएफटीयू के कॉम एस वी राव ने कहा कि सही माँगों पर कोई भी एक मज़दूरों की हड़ताल होती है तो असहमतियों के बिंदु पर हम उसे क्रिटिकल सपोर्ट करते हैं। उन्होंने तेलंगाना के सिंगरेनी कोल माइंस का उदाहरण देते हुए बताया कि 4 कोल माइंस के निजीकरण के खिलाफ पिछले दिनों तीन दिन की जो प्रदेश व्यापी हड़ताल हुई थी, उसमें सबकी सामूहिक भागीदारी से राज्य सरकार समर्थित ट्रेड यूनियन से लेकर केंद्र सरकार समर्थक बीएमएस को भी समर्थन में उतरने के लिए मजबूर होना पड़ा।
उन्होंने कहा कि आज यूनियन बनाने, समझौता वार्ता करने, वेतन, स्थाई के हक, सब पर हमला हुआ है। ऐसे में 2 दिन की हड़ताल से कुछ खास नहीं होगा। वर्गीएकता के साथ संघर्ष को मुकम्मल तौर पर आगे बढ़ाना होगा और अनिश्चितकालीन हड़ताल की ओर आगे बढ़ना होगा।
इंकलाबी मज़दूर केंद्र के कॉम श्यामबीर ने कहा कि पिछले 3 दशक के दौरान नवउदारवादी नीतियों के तहत लगातार अधिकार छीने गए हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन, बैंक, बीमा सभी का निजीकरण तेजी से किया जा रहा है। हालात यह है कि छोटी-छोटी घटनाओं पर भी नौकरी छीनने, बर्खास्त करने का प्रचलन आज मालिकों का मुख्य हथियार बन गया है। नए लेबर कोड आने के बाद हालात क्या होंगे इसे समझा जा सकता है।
उन्होंने कहा कि आज मज़दूर आबादी को 100 साल पीछे धकेला जा रहा है। आज संगठित क्षेत्र में भी असंगठित मज़दूर यानी ठेका, ट्रेनी, अप्रेंटिस आदि यह बड़ी आबादी संगठित नहीं है, जिसे संगठित करके आगे बढ़ाने की जरूरत है। तमाम विभाजनों को तोड़कर वर्गीएकता को मजबूत करते हुए एक मुकम्मल लड़ाई के लिए आगे बढ़ना होगा।
स्ट्रगलिंग वर्कर्स कोआर्डिनेशन कमेटी (एसडब्लूसीसी) पश्चिम बंगाल से कॉम मुनमुन ने कहा कि जहां-जहां मज़दूर संघर्ष कर रहे हैं, उसे ध्यान में रखना होगा। उन्होंने पश्चिम बंगाल के जूट मिल, चाय बागान और बीएसएनएल मज़दूरों के संघर्षों का हवाला दिया और वहां के मज़दूरों के हालात को रखा।
उन्होंने कहा कि आज ऐतिहासिक तौर पर मज़दूरों की भूमिका को पीछे धकेला जा रहा है। कानून रहते भी संकट है और नए कानून लागू हो जाने के बाद तो संकट और भी भयावह होगा। ऐसे में किसान आंदोलन ने सिखाया है कि यदि कानून छिन जाएंगे तो जन संघर्ष का ही एक रास्ता है।
उन्होंने कहा कि देश की 97% आबादी असंगठित क्षेत्र में और असंरक्षित है। नए संघर्षों के फ्रेम में इनको लेकर आना होगा। आज तरह-तरह के जो काम के नए तरीके निकले हैं उसने भी एक बड़ी आबादी को असंगठित क्षेत्र में पैदा किया है। पिछले दिनों स्विजी और अर्बन प्लेटफार्म वर्कर के जुझारू आंदोलन का हवाला देते हुए कहा कि संघर्ष हर तरफ आगे बढ़ रहा है ऐसे में ट्रेड यूनियन आंदोलन की सीमा को समझना होगा और मजदूरों के व्यापक संघर्ष की दिशा में आगे बढ़ना होगा।
आईएफटीयू (सर्वहारा) के कॉम कन्हाई बर्नवाल ने कहा कि मज़दूर कठिन दौर से गुजर रहा है और मोदी के युग में फासिस्ट दौर और तेज हो गया है। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीयकरण व निजीकरण दोनों ही पूंजीवाद की जरूरत है जब उन्हें जरूरत थी उन्होंने राष्ट्रीयकरण का रास्ता अपनाया और अब बेलगाम पूंजी के लिए निजीकरण जरूरी है तो वह इस दिशा में तेजी से बढ़ रहे हैं। विशेष रुप से सोवियत रूस के पराभव के बाद हमले और तेज बढ़े हैं। मज़दूरों में गुस्सा है लेकिन संगठित करने वाले कम है।
उन्होंने किसान आंदोलन का हवाला देते हुए कहा कि मज़दूर सड़क पर उतरेंगे तो 1 साल नहीं बल्कि जल्द ही आर पार का निर्णय हो जाएगा। इसलिए आने वाला दौर संघर्षों का दौर होगा। आज देसी-विदेशी पूंजी और फासिस्ट सत्ताधारियों के खिलाफ जोरदार आंदोलन की जरूरत है।
मज़दूर सहायता समिति के कॉम मोहित ने कहा कि सबसे पहले यह स्पष्ट करना होगा कि चुनौतियां क्या है और हमारे कार्यभार पूरे कैसे किए जाएं। उन्होंने कहा कि आज ज़रूरत इस बात की है कि मज़दूरों के बीच जमीनी स्तर पर काम को बढ़ाया जाए, क्योंकि आज शासक वर्ग ने मज़दूर आबादी को वहां पहुंचा दिया है, जहां पर अब लड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। छोटे-छोटे सुधारपरक काम और छोटे-छोटे आंदोलनों से आगे बढ़ते हुए आर्थिक लड़ाई से राजनीतिक लड़ाई की ओर जाना होगा।
उन्होंने मज़दूरों के पहले राज पेरिस कम्यून का हवाला देते हुए कहा कि उस समय किसी विद्वान ने लिखा था यदि पेरिस कम्यून कुचल दिया गया तो भी मज़दूर लड़ते रहेंगे जब तक कि वह मुक्त नहीं हो जाते हैं। 1871 में पेरिस कम्यून कुचल दिया गया लेकिन जल्द ही 1886 में मई दिवस के रूप में मज़दूरों का झंडा फिर से बुलंद हो गया।
मासा की ओर से कार्यक्रम का संचालन कर रहे कॉम सिद्धांत ने सारी बातों का निचोड़ रखते हुए 23-24 फरवरी, 2022 की हड़ताल (जो अब 28-29 मार्च, 2022 हो गया है) को मासा द्वारा समर्थन देने के साथ उसे सफल बनाने का आह्वान किया।
उन्होंने कहा कि रस्म-अदयगी नहीं, हड़ताल को मजदूर वर्ग के निरंतर, जुझारू और निर्णायक संघर्ष में तब्दील करना होगा।
उन्होंने मासा की ओर से माँग की कि मज़दूर विरोधी 4 लेबर कोड रद्द करो; सभी मजदूरों के लिए ₹25,000 न्यूनतम मजदूरी, श्रम कानूनों की सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा, यूनियन का अधिकार, हड़ताल का अधिकार और कार्य का सम्मानजनक-सुरक्षित माहौल सुनिश्चित करो; ठेकेदारी प्रथा खत्म करो! स्थायी काम पर स्थायी मजदूर और समान काम का समान वेतन लागू करो; सार्वजानिक संपत्तियों का निजीकरण-मुद्रीकरण फौरन बंद करो!