“आक्रोश” : हाशिये पर खड़े लोगों के अमानवीय हालात और सत्तातंत्र के सामने लाचारी दर्शाती फिल्म

इस फिल्म को देखते हुए लगातार एहसास होता है कि किस प्रकार करोड़ों लोग प्रभुत्वशाली वर्ग के शोषण और अन्याय का शिकार हैं और इंसान होने के मूलभूत अधिकारों तक से वंचित हैं।

सार्थक सिनेमा की बात, अजित श्रीवास्तव के साथ- 13

“आक्रोश”

1980 में आई गोविंद निहलानी की फिल्म “आक्रोश” हाशिये पर धकेल दिये गए लोगों के अमानवीय हालात और उनके लिए न्याय व्यवस्था की विफलता की कहानी है। ग्रामीण भारत के रेशे रेशे में गुंथे अमानवीय अत्याचार, भ्रष्टाचार और आम आदमी की इस सत्ता तंत्र के सामने लाचारी इस फिल्म का केंद्रीय कथानक है, और इसके रिलीज के चार दशक बाद भी इस फिल्म में आज के दलित- आदिवासी वर्ग की दुर्दशा और उनके आक्रोश को साफ देखा जा सकता है।

इस फिल्म को देख पाना और महसूस कर पाना आज भी उतना ही कठिन है, जितना इसके रिलीज के समय था। इतने वर्षों में सरकारें बदलीं हैं, नियम कानून बदले हैं, पर हाशिये पर खड़े समाज की दुर्दशा और उनपर होने वाले अत्याचार और सत्ता तंत्र के सामने उनकी लाचारी नहीं बदली है। 

आक्रोश का सबसे दमदार चेहरा ओम पुरी, पुण्यतिथि पर विशेष

इस फिल्म के शुरुआती दृश्य में एक आदिवासी औरत की लाश चिता पर रखी हुई है और पुलिस की हथकड़ी में जकड़ा उसका पति चिता को आग दे रहा है। इसको देखते हुए हाथरस कांड के वाइरल वीडियो अचानक याद आने लगते हैं जहां एक रेप पीड़िता के परिजनों को अंतिम संस्कार तक की इजाजत प्रशासन द्वारा नहीं दी गई। न्याय व्यवस्था में दलित, आदिवासी और गरीब तबके के लोगों के लिए शायद इतना ही बदलाव आया है। न्याय व्यवस्था तब भी उनकी मूक दर्शक थी और आज भी उसकी आँखें बंद हैं।

यह फिल्म एक आदिवासी युवक भीखू लाहण्या (ओम पुरी) की कहानी है जो एक मजदूर है, उसकी पत्नी (स्मिता पाटिल) का गाँव के रसूखदार लोगों द्वारा बलात्कार किया जाता है और वह कुएं में कूदकर आत्महत्या कर लेती है। उसकी हत्या के जुर्म में भीखू को गिरफ्तार कर लिया जाता है और उसके ऊपर मुकदमा चलाया जाता है।

भीखू के लिए सरकार की तरफ से नियुक्त वकील भास्कर कुलकर्णी (नसीरुद्दीन शाह) की लाख कोशिशों के बाद भी भीखू खामोश है। उसे अंदाजा है कि उसे न्याय दिला पाना इस न्याय व्यवस्था के अंदर संभव नहीं है। उसकी खामोशी इस समाज व्यवस्था और इस न्याय व्यवस्था के प्रति गहरे विक्षोभ और उससे भी गहरे आक्रोश का प्रतीक बन जाती है जिसकी तहों में जाने का प्रयास भास्कर करता है।




निर्देशक: गोविंद निहलानी; अदाकारी: ओम पूरी, स्मिता पाटील, नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पूरी

यह विडम्बना ही है कि सरकारी वकील दुसाने (अमरीश पुरी) भी आदिवासी तबके से है, जो हर हाल में भीखू को सजा दिलवाना चाहता है, क्योंकि भीखू के पक्ष में कोई सबूत और गवाह नहीं हैं। जिस तरह न्याय प्रणाली में सबूत और गवाह खरीदे और बनाए जाते हैं, वह भीखू के लिए तब भी संभव नहीं था और अब भी संभव नहीं है। दुसाने भले ही सरकारी वकील है और अब तथाकथित संभ्रांत वर्ग में शामिल हो चुका है, पर उसे भी धमकियाँ मिल रही है और उसे भी उसकी जात याद दिलाई जा रही है।

इस केस की पड़ताल करते हुए जिन सच्चाईयों से भास्कर का सामना होता है, वह उसके लिए भी चौंका देने वाली हैं। फिल्म के आखरी दृश्य में भीखू हथकड़ियों में जकड़ा चिता को आग देने को खड़ा है और फोरमैन (जो उसकी पत्नी के बलात्कार में शामिल था) की आँखों में अपनी बहन का भी भविष्य अपनी पत्नी के जैसा ही देखता है और कुल्हाड़ी लेकर अपनी बहन की हत्या कर देता है। निस्सीम असहायता के इस कृत्य के बाद वह आसमान को देख चीखता है और यहीं फिल्म समाप्त हो जाती है।

“आक्रोश” फिल्म की कहानी बताने या सुनाने लायक नहीं बल्कि देखने और महसूस करने वाली कहानी है, इसलिए इस से ज्यादा कहानी बता पाना संभव नहीं।   

फिल्म में एक सीन है जहां भास्कर “इन लोगों” की “खामोशी” पर झल्लाता है तो सामाजिक कार्यकर्ता बोलता है की “इन लोगों के सांस लेने तक पर पाबंदी है और आप इनसे बोलने की उम्मीद कर रहे हैं।” यह सीन ही असल में इस फिल्म की केंद्रीय थीम बन गई है। आज़ादी के इतने वर्षों बाद जिस तबके को आवाज मिल जाना था, न्याय के दरवाजे जिस तक खुल जाने थे, वह तबका न्याय व्यवस्था से और इंसान होने के बुनियादी अधिकारों से और दूर धकेल दिया गया है।

फिल्म में एक या दो सीन को छोड़ कर बाकी पूरी फिल्म में भीखू खामोश है और उसके चेहरे पर वेदना और आक्रोश को साफ पढ़ा जा सकता है। यह आक्रोश किसी एक व्यक्ति पर नहीं बल्कि उस व्यवस्था पर है जो इंसान के बुनियादी अधिकारों तक से उसके हक को मिटा चुकी है और करोड़ों लोगों को शोषण और अन्याय के साये में बिना न्याय की किसी उम्मीद के ज़िंदा रहने पर मजबूर कर दिया है।

फिल्म को देखते हुए लगातार एहसास होता है कि किस प्रकार करोड़ों लोग प्रभुत्वशाली वर्ग के शोषण और अन्याय का शिकार हैं और इंसान होने के मूलभूत अधिकारों तक से वंचित हैं। प्रभुत्वशाली तबका इनको इंसान समझता ही नहीं है। और जहां तक न्याय व्यवस्था और कानून का सवाल है, वे भी समाज के ढांचों में बंधे हुए अपने पूर्वाग्रहों के साथ काम करते है, और इसीलिए यह फिल्म और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि इसमें जातीय और वर्गीय आधार पर मुख्यधारा के ये पूर्वाग्रह बहुत ही विश्वसनीय तरीके से चित्रित किए गए हैं।

फिल्म आपको निरंतर विचलित करती है और अंत तक आते आते नायक की उस करूण चीत्कार के साथ आप अपने अंदर भी उसी बेबसी और गुस्से को भरा हुआ पाते हैं।

यह फिल्म प्राइम वीडियो और यूट्यूब पर उपलब्ध है और जरूर देखी जानी चाहिए।

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