कश्मीर के हालत पर बनी एक बेहद संवेदनशील और प्यारी सी फिल्म है “हामिद”
फिल्म की कहानी जितनी संवेदनशील और ज़िंदगी की जद्दोजहद से भरपूर है, उतनी ही खूबसूरती से कहानी के माहौल को और इसके साथ चल रही दूसरी छोटी-छोटी कहानियों को भी परदे पर उकेरा गया है।…
सार्थक सिनेमा की बात, अजित श्रीवास्तव के साथ- 10
[ऐसी फ़िल्में जो कला की ख़ूबसूरती के साथ ज़िन्दगी की हकीक़त को बयां करती हैं, उससे जूझने का जज्बा पैदा करती हैं, उनसे परिचित कराने की शृंखला में प्रस्तुत है “हामिद”… -संपादक]
हामिद
2018 में आई फिल्म हामिद कश्मीर के हालत पर बनी एक बेहद संवेदनशील और प्यारी सी फिल्म है। ये फिल्म कश्मीर के जटिल हालात को बखूबी आपके सामने रखती है और एक 7 साल के बच्चे के नजरिए से इंसानियत को, कश्मीर की राजनीति को और वहाँ के आम जन के हालात को देखने का प्रयास करती है। धरती का स्वर्ग कही जाने वाली इस जगह पर ज़िंदगी किस कदर मुश्किल और त्रासद है, फिल्म को देखते हुए आप मह्सूस कर सकते हैं।
फिल्म एक सात साल के बच्चे हामिद के ऊपर केन्द्रित है। हामिद के पिता नावों की मरम्मत का काम करते थे। एक साल पहले घर लौटते समय उसके पिता लापता हो जाते हैं (या सुरक्षा बलों द्वारा गायब कर दिये जाते हैं।) ऐसे लापता लोगों की बीवियों को कश्मीर में आधी बेवाएँ कहा जाता है। हामिद की आधी बेवा माँ हफ्ते दर हफ्ते अपने पति की तलाश में पुलिस थाने के चक्कर काट रही है लेकिन उसने उम्मीद भी नहीं छोड़ी है। वो पति के लिए स्वेटर बुन रही है जो पति के वापस आने पर उसे पहनाएगी। उसका ध्यान अपने बच्चे पर भी नहीं है। उसकी ज़िंदगी आम कश्मीरियों की तरह संगीनों के साये में और तमाम पाबंदियों के बीच गुज़र रही है।
इसी माहौल में मासूम हमीद को पता चलता है की उसके पिता अल्लाह के पास चले गए हैं। उसे यह भी पता चलता है अल्लाह का नंबर 786 होता है। अब हामिद अल्लाह को फोन मिलाने की कोशिश करता है। इसी कोशिश के दौरान उसका फोन सेना के एक जवान को लग जाता है। हामिद उसे अल्लाह समझ कर बातें करने लगता है और इन्हीं बातों के दौरान हामिद अपने मन में चल रहे सवालों के जवाब ढूँढने की कोशिश करता है और सेना का जवान भी अपने अंदर चल रही कशमकश से निजात पाने की कोशिश करता है।
हामिद के पास दो रास्ते हैं, अपने पिता जैसा कारीगर बने और इंतजार करे कि उसके पिता घर लौट आएंगे और उसे वो सब नहीं झेलना पड़ेगा जो उसके पिता और उनके जैसे लोग झेल रहे हैं और दूसरा रास्ता प्रतिरोध कर रहे लोगों के साथ शामिल हो जाना और अलगाववादियों का साथ देना।
हामिद और उसकी पीढ़ी के तमाम बच्चे इस जद्दोजहद से गुजर रहे हैं , और इसे फिल्म में महसूस किया जा सकता है।
फिल्म में जहां आम कश्मीरियों की पीड़ा को छोटे छोटे दृश्यों और संवादों के जरिये मुख्य कहानी के साथ-साथ दिखाया गया है वहीं शेष भारत से गए सेना के जवानों की कुंठा और उनकी दुविधा की भी झलक विश्वसनीयता के साथ दिखाई पड़ती है। फिल्म देखते हुए कई बार आपको चीजें असहनीय लगने लगती हैं और आप किसी सुखद मोड़ की तलाश करने लगते हैं लेकिन कश्मीरी लोगों के लिए ये सब किसी फिल्म नाकी वरन उनकी रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है और यही बात फिल्म देखते समय आपको बहुत बेचैन करती है।
अगर आप कश्मीर को लेकर किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं तो भी आपको ज़रूर यह फिल्म देखनी चाहिए ताकि आप वहाँ के हालात और वहाँ के जन जीवन की एक झलक देख सकें और हो सकता है कि ये फिल्म देखते देखते आपके पूर्वाग्रह थोड़ा टूटें और ज़िंदगी और मानवता पर आपका भरोसा थोड़ा और गहरा हो जाए।
इस फिल्म की कहानी जितनी संवेदनशील और ज़िंदगी की जद्दोजहद से भरपूर है, उतनी ही खूबसूरती से इस कहानी के माहौल को और कहानी के साथ चल रही दूसरी छोटी-छोटी कहानियों को भी परदे पर उकेरा गया है। उम्मीदें किस तरह टूटती हैं और किस तरह टूटने के बाद भी कायम रहती हैं, ये इस फिल्म के केंद्र में है।
कश्मीर जैसे उलझे और पेचीदा विषय पर फिल्म बनाना आसान नहीं है क्योंकि इसके कई सारे पक्ष हैं और उन सबको जगह देने और सबकी कहानी कहने के चक्कर में कहानी इतनी उलझ सकती है कि मुख्य मुद्दा यानि कश्मीरी लोग और उनकी एक सामान्य अमन चैन की जिंदगी जीने की चाहत से ही ध्यान भटक सकता है। शायद इसीलिए फ़िल्मकार कश्मीर जैसा है वैसा दिखाने की तो कोशिश तो करता है लेकिन किसी भी मुद्दे की गहराई तक जाने की कोशिश नहीं करता।
फिल्म बहुत कुछ कहने की जगह चीजों को महसूस कराने की कोशिश करती है और इसमें पूरी तरह कामयाब भी हुई है। बेहद खराब से खराब हालात में भी किरदारों के अंदर बची हुई इंसानियत को फिल्म बड़ी खूबसूरती से पहचान पाने और दिखा पाने में कामयाब हुई है।
फिल्म का निर्देशन एजाज खान ने किया है और इसे 2019 में सर्वश्रेष्ठ उर्दू फीचर फिल्म तथा सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकर हेतु राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए थे। अभी यह फिल्म नेटफ्लिक्स सहित कई डिजिटल प्लेटफार्म पर मौजूद है।
आइए सार्थक फिल्मों को जानें–
- इसे भी देखें– ज़िंदगी को खुलकर जीने का नाम है फिल्म “102 नॉट आउट”
- इसे भी देखें– “गमन” : प्रवासी मेहनतकशों के दर्द की दास्तान
- इसे भी देखें– भारत में किसानों की अंतहीन दुर्दशा की कहानी : दो बीघा जमीन
- इसे भी देखें– यथार्थ की जमीन से सामना कराती है “आर्टिकल-15”
- इसे भी देखें– एक बेहतरीन ब्लैक कॉमेडी फिल्म : न्यूटन
- इसे भी देखें– “मिर्च मसाला” : महिलाओं के प्रतिरोध और संघर्ष की गाथा
- इसे भी देखें– इंसानी जज़्बे और जीवटता की मिसाल है “मांझी : द माउंटेन मैन”
- इसे भी देखें– निराशा के दौर में उम्मीद देती फिल्म- “मैं आज़ाद हूँ”
- इसे भी देखें– मार्डन टाइम्सः महामंदी की अद्भुत दास्तान
- इसे भी देखें– “थप्पड़” : जो हर औरत के जीवन की खामोश तहों का गवाह है