उदारीकरण के 3 दशक : मेहनतकश की चुनौतियाँ विकट, वर्गीय एकता के साथ संघर्ष बढ़ाना होगा!

धारावाहिक प्रकाशित पिछले 13 किस्तों में यह साफ तौर पर सामने आया कि नवाउदारवादी नीतियों ने देश की आम जनता पर तकलीफ़ों-तबाहियों; दंगे-फसाद का कहर बरपा किया है वहीं, जनता की लूट से 15-20 फ़ीसदी आबादी के लिए विलासिता और ऐशो-आराम के टापू खड़े हुए हैं। यह मेहनतकश जनता के लिए अहम सबक देता है।…

उदारीकारण यानी मेहनतकश जनता की बर्बादी के तीन दशक -चौदहवीं (अंतिम) किस्त

मुनाफाखोर पूँजीपतियों का हित ही ‘राष्ट्रीय हित’ है

पिछले दिनों इंडियन स्पेस एसोसिएशन की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार को ‘निर्णायक सरकार’ बताते हुए तमाम सार्वजनिक कंपनियों के निजीकरण करने में सरकार की सफलता का उल्लेख करते हुए कहा कि यह उसकी प्रतिबद्धता और गंभीरता को दर्शाता है।

जनाब मोदी ने कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र के बारे में सरकार की नीति यह है कि जिन क्षेत्रों में उसकी आवश्यकता नहीं है, उन्हें निजी उपक्रमों के लिए खोला जाना चाहिए। अंतरिक्ष से लेकर रक्षा तक अनेक क्षेत्रों के द्वार निजी उद्योगों के लिए खोले जाने का जिक्र करते हुए कहा कि उनकी सरकार ने राष्ट्रीय हित तथा विभिन्न हितधारकों की आवश्यकता को ध्यान में रखा है। इसे उन्होंने ‘आत्मनिर्भर भारत’ बनाना बताया।

स्पष्ट है कि मोदी सरकार का ‘राष्ट्रीय हित’ ‘विभिन्न हितधारकों की आवश्यकता’ की पूर्ति करना है। यानी अपने पूँजीपति यारों के लिए सबकुछ न्योछावर कर देना ही ‘विकास’ और ‘राष्ट्रीय हित’ है।

#उदारीकरण के तीन दशक – धारावाहिक-

दरअसल उदारीकारण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों के लागू होने और “विकास” के नारों के तीन दशक (1991-2021) के दौरान जनता की मेहनत की लूट से मुट्ठीभर धनपतियों की मौज बढ़ती गयी है, जिसे मोदी सरकार ने खुला खेल बना दिया है।

इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए जनता को बाँटने का भी खेल तेजी से आगे बढ़ाया गया और आम मेहनतकश जनता भयंकर शोषण, लूट-खसोट, बेरोज़गारी, महँगाई, भ्रष्टाचार, अपराध, दंगे-फसाद, आपसी कलह-विग्रह, अत्याचार, दमन और उत्पीड़न की शिकार बनती गई।

बीते दशकों के दौरान देश का भविष्य “त्रिदेव” यानी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ), विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) की तिकड़ी के नुस्खा-निर्देशित नीतियों की गिरफ्त में है। सरकार किसी भी रंग-रोगन की रही हो, इसी त्रिदेव की सरपरस्ती में मेहनतकश पर कहर ढाती रही हैं, जो अब भयावह स्थिति में हैं।

इस दौरान देश की मेहनतकश करोड़ों मज़दूरों और किसानों की अथक मेहनत और उनके ख़ून-पसीने से कृषि और औद्योगिक, दोनों उत्पादनों में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन इस विकास का लाभ मुट्ठीभर मुनाफाखोर जमात को मिला और देश की व्यापक मेहनतकश आवाम के हिस्से गरीबी, बदहाली, बेकारी ही आई।

एक तरफ अस्सी फीसदी आबादी अभावों और दुःखों के अँधेरे में दिन काट रही है, दूसरी ओर पूँजीपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, अफसरों, नेताओं और बहुत बड़े परजीवी मध्य वर्ग के लिए जगमगाते मॉल, तमाम सुख-सुविधाओं वाले अपार्टमेण्ट और कोठियाँ, फ़ाइव स्टार अस्पताल खुल रहे हैं। धनपतियों के लिए विलासिता के टापू खड़े हो रहे हैं।

#उदारीकरण के तीन दशक – धारावाहिक-

उदारीकरण का दौर : चौतरफा हमले की मार का दौर

पिछले तेरह किस्तों में प्रकाशित लेखों से यह साफ हुआ है कि देश में नवाउदारवादी नीतियों के बीते चार दशक के दौरान कैसे मज़दूर वर्ग के ऊपर एक साथ चौतरफा हमले शुरू हुए और तेज होते गए। इस दौरान जनता की तबाही-बर्बादी तेजी से आगे बढ़ती गई, जिसे मोदी सरकार ने बेलगाम बना दिया।

इसे सार रूप में कहें तो इन दशकों में-

★ 1991 से लागू उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों की शुरुआत 1980 के दशक में हुई, जिसके तहत देश के बाजार को विदेशी लुटेरी कंपनियों के लिए खोलने, देशी-बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में नीतियाँ बदलने-बनाने का खेल आगे बढ़ता गया; जनता के खून-पसीने से खड़ा किए गए सार्वजनिक उद्यमों और सरकारी संस्थानों-संपत्तियों को बेचना बेलगाम हो गया।

★ लंबे संघर्षों के दौरान हासिल सीमित क़ानूनी अधिकार भी छिनते गए और जनता अधिकारविहीन बनती गई। छंटनी-बंदी तेज हुआ, सरकारी नौकरियों में “जबरिया सेवानिवृत्ति’ योजना लागू हुई। नौकरियाँ घटती गईं, बेरोजगारी बढ़ती रही और ‘रोजगार विहीन विकास’ का मॉडल विकसित होता रहा। स्वरोजगार के भ्रमजाल में बेरोजगार नौजवान ‘स्टैन्ड अप’ हो गया।

★ इसी के समांतर फासीवादी ताकतों ने देश-समाज के राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक हर मोर्चे पर वर्चस्व कायमकर जन-मानस की चेतन में गहरी पैठ बनाई। जिसके चलते राष्ट्रवाद के नाम पर देश के भगवाकरण और विकास के नाम पर कॉरपोरेटीकरण (पूँजी की लूट को खुली छूट) की राह आसान हुई।

★ जातिय और धर्मिक उन्माद तेजी से आगे बढ़ते गए; राष्ट्र, धर्म, भाषा की परिभाषा बदलकर नफ़रत का व्यापार बन गया। इंसान को इंसान के दुश्मन के रूप में खड़ा कर दिया गया। ‘बाँटो और राज करो’ की नीति सफल रही।

★ 80 के दशक से घोटाले, घूसखोरी, जनता से उगाही बेलगाम होती गई। राजीव गांधी के शासन में जर्मन पनडुब्बी, बोफोर्स दलाली से शुरुआत होकर मोदी राज तक राफेल दलाली, पीएम केयर फंड तक भ्रष्टाचार लगातार सुरस के मुह की तरह फैलता गया और फैलता जा रहा है।

★ देश को एक फीसदी पूँजीपतियों का उपनिवेश बनाने के क्रम में निरंकुशता और दमन चरम पर पहुँच गया। तमाम दमनकारी क़ानूनों को थोपा गया। हक का संघर्ष करने वालों, मजदूरों, जनवादी अधिकार कार्यकर्ताओं यहाँ तक कि सरकार से असहमति रखने वालों को लाठी-गोली से कुचलने, फर्जी मुक़दमें, गिरफ्तारियाँ और जेल बेलगाम हुआ।

★ जनता की हर तरीके से निगरानी, निजी ज़िंदगी में भी हस्तक्षेप बढ़ता रहा और तमाम प्रतिबंधों के साथ जनता के दिलों दिमाग पर सत्ताधारियों/फासीवादी ताकतों ने कब्जा कर लिया और वे जनता को जमूरा बनाकर नचा रही हैं।

#उदारीकरण के तीन दशक – धारावाहिक-

मज़दूर-मेहनतकशों को सच्चाई को समझना होगा

आज की हक़ीक़त यह है कि 1947 में मिली आधी-अधूरी आजादी भी नवाउदारवादी इस दौर में छिनती चली गई है। देश की मेहनतकश जनता के पैरों में गुलामी की नई ज़ंजीरें जकड़ रही हैं।

विकास के तमाम दावों के बीच आज देश भयावह आर्थिक संकट के दुष्चक्र में भी फंसा हुआ हुआ है, लेकिन इस संकट का बोझ भी आम मेहनतकश पर डाला जा रहा है, जो विकट महँगाई और बेरोजगारी के रूप में सामने है।

इससे ध्यान बँटाने के लिए पिछले चार दशक से कभी मंदिर-निर्माण, कभी लव-जेहाद, कभी गाय तो कभी तथाकथित देशद्रोह बनाम देशप्रेम के नाम पर जारी उन्माद पूरे देश को एक ख़ूनी दलदल की ओर धकेलता जा रहा है। धर्म व नक़ली देशप्रेम को उभाड़कर पूँजीवादी लूट, पुलिसिया दमन, बेदख़ली, बेरोज़गारी, महँगाई आदि आमजन की ज़िंदगी के बुनियादी मुद्दों पर परदा डाल दिया गया है।

इसके खिलाफ लड़ने वाली मज़दूर आबादी को आपस में ही एक-दूसरे के ख़ून का प्यासा बना दिया गया है।

#उदारीकरण के तीन दशक – धारावाहिक-

असल लड़ाई जाति-धर्म की नहीं; महँगाई-बेरोजगारी-जनविरोधी नीतियों के खिलाफ है

यह ध्यान देने की बात है कि बड़े ही सजीशाना तरीके से सत्ताधारियों, विशेष रूप से संघ-भाजपा की फासीवादी ताक़तें जहाँ एक ओर महँगाई बढ़ाकर, जनता को मिलने वाली छूटों में कटौती करके बड़े-बड़े उद्योगपतियों के मुनाफे को बढ़ाते हैं, वहीं दूसरी ओर इससे नाराज जनता को सड़कों पर उतारने से रोकने के लिए लोगों में नकली राष्ट्रवाद, मन्दिर-मस्जिद, धार्मिक झगड़े, संस्कृति व भाषा के नाम पर झगड़े आदि भड़काते हैं।

इन झगड़ों-फ़सादों के असल कारण यही है, जिसे मज़दूर-मेहनतकश को समझना पड़ेगा। इस सच्चाई को समझना पड़ेगा कि इन झगड़ों का परिणाम केवल आम जनता की तबाही होती है।

इसी के साथ टी.वी चैनलों, व्हाट्सप्प, फेसबुक आदि के फर्जी संदेशों, धर्म के ठेकेदारों, नेताओं-मन्त्रियों के भ्रमजाल से बाहर आना होगा। छंटनी-बंदी, रोजगार, स्वास्थ्य-शिक्षा, महँगाई, जैसे वास्तविक मुद्दों और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ मेहनतकश की जुझारू एकता कायम करते हुए वास्तविक मुद्दों पर संघर्ष संगठित करना होगा।

मेहनतकश जनता को आज़ादी के नए जंग की तैयारी में जुटना होगा!

तबाही के इस मुक़ाम पर, मेहनतकश आवाम को अपनी सच्ची और मुकम्मल आज़ादी के लिए लड़ाई की तैयारियों में जुटना होगा। हर पेट को रोटी, हर हाथ को काम के साथ अमन-चैन वाले उस समाज के निर्माण का रास्ता साफ करना होगा जहाँ उत्पादन बाजार और मुनाफे की जगह समाज की जरूरतों के मुताबिक होगी और आदमी द्वारा आदमी के शोषण का खात्मा होगा।

इसी आज़ादी का सपना शाहीदे आज़म भगतसिंह और तमाम क्रान्तिकारी शहीदों ने देखा था और कुर्बानियाँ दी थीं। ऐसी आज़ादी जो पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के शिकंजे से इस देश को आज़ाद करेगी।

इस लक्ष्य के साथ मज़दूर-मेहनतकश जन को अपनी वर्गीय एकता बनाने के साथ अपने रोजमर्रा के संघर्षों को आगे बढ़ाते हुए एक निरन्तरता में, जुझारू व निर्णायक लड़ाई के लिए कमर कसना होगा!

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