उदारीकरण के तीन दशक : चुनावी मदारियों ने जनता को बनाया जमूरा; मुनाफाखोरों का हुआ वर्चस्व
एक तरफ जनता कठपुतली बना दी गई, झूठ-फ़्राड के शोर में जिंदगी के असल मुद्दे गायब होते गए, वहीं जनता की हर गतिविधि पर नजर रखने के लिए सरकारी तंत्र का मकड़जाल बिछ गया।…
उदारीकारण यानी मेहनतकश जनता की बर्बादी के तीन दशक -बारहवीं किस्त
वैश्विक लुटेरी ताकतों द्वारा जनता पर वर्चस्व बनाने का विकसित हुआ तंत्र
जनविरोधी उदारीकारण की नीतियाँ लागू होने के साथ संकट गहराता गया, ज़िंदगी बेहाल होती गई और मंदिर-मस्जिद, कश्मीर-पाकिस्तान-चीन, धर्मांतरण, गोरक्षा, धर्म-राष्ट्रीयता आदि के शोर में निजीकरण-छंटनी-बंदी, विकराल रूप लेती बेरोजगारी, भयावह महँगाई जैसे असल मुद्दे गायब होते गए।
#उदारीकरण के तीन दशक – धारावाहिक-
- पहली किस्त : उदारीकरण के तीन दशक : मेहनतकश जनता की तबाही का कौन है ज़िम्मेदार?
- दूसरी किस्त : कैसे घुसी विदेशी पूँजी, कैसे हुई मेहनतकशों पर चौतरफा हमलों के नए दौर की शुरुआत?
यह गौरतलब है कि 1995 में 21 सितंबर (गणेश चतुर्थी) को अचानक यह अफवाह फैलाई गई कि गणेश प्रतिमाएं दूध पी रही हैं। फोन और मीडिया पर सूचनाएं फैलाने लागि। देखते ही देखते मंदिरों में भीड़ लग गई। न्यूज चैनलों पर अटल बिहारी बाजपेयी समेत कई नेता गणेशजी को दूध पिलाते दिखने लगे।
1992 में बाबरी मस्जिद में भीड़ का उमड़ने से लेकर मॉबलींचीग तक अथवा 1995 में गणेश जी को दूध पिलाने के लिए उमड़ी भीड़ से लेकर गो-रक्षा व लबजेहाद के नाम पर बढ़ी लंपटता व उन्माद जनता को प्रचार तंत्र में बांध लेने की कला का विकास इसी दौर की देन है। हालत ये हैं कि महँगाई ने जीना हराम कर दिया, नौकरी मिलती नहीं, देश बिक रहा है, लेकिन इसके खिलाफ आवाज़ उठाने की जगह भारी आबादी मोदी के दिवास्वप्न में मस्त है।
यह ध्यान देने की बात है कि बड़े ही सचेतन जनता के दिमाग में घुसकर कब्जा कर लेने/राज करने की एक ऐसी कला विकसित हुई, जिसमे जनता के एक बड़ी आबादी उसमें उलझ गई।
इसके लिए मिथक यानी सच का अहसास कराता झूठ का पुलिन्दा परोसा जाता है, छलकपट से इसको जनता की चेतना में धीरे-धीरे पैठा दिये जाते हैं। शासक ताकतवर होते जात हैं, क्योंकि अधिकतर लोगों को इस बात का इल्म ही नहीं होता है कि उन्हें हेरा-फेरी का शिकार बनाया जा रहा है। इस प्रकार जनता जमुरा बनकर रह गई।
#उदारीकरण के तीन दशक – धारावाहिक-
- चौथी किस्त : चार दशक से छिनते श्रम क़ानूनी अधिकार, मजदूरों को बंधुआ बनाने के लिए आया लेबर कोड
- पाँचवीं किस्त : ‘विकास’ के ढोल के बीच नौकरियां घटती रहीं, बेरोजगारी बढ़ती रही!
- छठी किस्त : पूँजीपति-सत्ताधारी गँठजोड़ – घोटाले दर घोटाले : इस हम्माम में सभी नंगे हैं!
निगरानी तंत्र हुआ मजबूत
बीते चार दशक के दौरान जहाँ चुनावी मदारी जनता को जमुरा बनाते गए वहीं सत्ताधारियों ने जनता पर निगरानी तंत्र मजबूत करती गई। देश की सुरक्षा और आतंकवाद के बहाने भारत की राज्यसत्ता देश के हर नागरिक की निजता को तार-तार करती रही। लोगों में आतंकवाद और आन्तरिक सुरक्षा पर ख़तरे का भय पैदा करके वास्तव में सरकारें लोगों की जासूसी के बहाने निजता पर हमला बढ़ती रही है। इसमें सबसे उस्ताद भाजपा है।
बाजपेयी सरकार के दौरान सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 आया। इसमें सबसे पहले कांग्रेस ने संशोधन किये। दिसम्बर 2008 में यूपीए सरकार ने सुरक्षा एजेंसियों को किसी व्यक्ति की जासूसी करने का असीमित अधिकार दिया था। उसने सुरक्षा की दृष्टि से कुछ भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को फ़ोन कॉल्स, मोबाइल डेटा या कम्प्यूटर डेटा के ज़रिये किसी भी नागरिक की जासूसी करने की ताक़त दे दी थी।
अब मोदी नीत भाजपा सरकार ने इसे दस एजेंसियों के हवाले कर दिया है। 20 दिसम्बर 2018 को गृह मंत्रालय के आदेश के तहत अधिनियम की शक्तियों का उपयोग सुरक्षा और ख़ुफ़िया एजेंसियाँ को भी दे दिया। इस क़ानून के मुताबिक़ एजेंसियों को सारी जानकारी न देने पर सात साल की जेल हो सकती है।
मोदी सरकार द्वारा बहुत ही सचेतन भारतीय संविधान के प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष पहलुओं को नष्ट करने के विभिन्न प्रयास जारी हैं। देश में नागरिक व मज़दूर अधिकारों पर हमले लगातार तेज होते जा रहे हैं।
सामान्य दौर हो या आपातकालीन, मोदी सरकार सबका इस्तेमाल वैश्विक पूँजी और संघ की दीर्घकालिक एजेण्डे को लागू करने और उसी अनुरूप मज़दूर और नागरिक अधिकारों पर डकैती के लिए कर रही है- चाहें वे श्रम क़ानूनी अधिकार हों, कॉरपोरेट परास्त कृषि क़ानून हों या जनतांत्रिक अधिकार। इन सबके द्वारा देश की मेहनतकश-मज़दूर जमात को आपस में बाँटना और लोकतांत्रिक संघर्षां को दबाना अहम है।
देश की सुरक्षा और आतंकवाद के बहाने भारत की राज्यसत्ता देश के हर नागरिक की निजता को तार-तार कर रही है। लोगों में आतंकवाद और आन्तरिक सुरक्षा पर ख़तरे का भय पैदा करके वास्तव में सरकार लोगों की निजता पर हमला बोल रही है।
आइए कुछ उदाहरणों पर गौर करें-
आधार : शासक वर्ग का एक ताक़तवर हथियार
आज तमाम विरोधों और सर्वोच्च अदालत के ढुलमुल फैसलों के बीच ‘आधार’ आबादी के एक बड़े हिस्से में लागू हो चुका है। यह व्यक्ति की निजी सूचनाओं को खोद कर बाहर निकालने और उन्हें जमा करने का एक अकल्पनीय ताक़तवर औजार है। आधार अधिनियम में निजता पर हमले के खि़लाफ किसी किस्म का रक्षा उपाय नहीं है।
आधार वास्तव में निजता के अधिकार के विरोध में खड़ा है। जिसके तमाम दुश्परिणाम सामने आ चुके हैं। यहाँ तक कि यह नागरिकता प्रमाणित करने के लिए भी अपर्याप्त है। लेकिन यह नागरिकों की निगरानी व निजी ज़िंदगी में दख़ल देने का उपकरण जरूर बन गया है।
आरोग्य सेतु : निजता पर बड़ा हमला
कोविड-19 संकट के बहाने मोदी सरकार के दूरगामी एजेण्डे का हिस्सा है- ‘आरोग्य सेतु ऐप’। इसे कोरोना वायरस से निपटने के लिए एक ज़रूरी कदम के रूप में प्रस्तुत किया गया। असल में यह इंसान की जिंदगी के हर कोने में प्रवेश करने का जरिया है।
कोई क्या खाता है, क्या पहनता है, किससे मिल रहा है आदि निजी ज़िदगी की सारी जानकारी यह ऐप एकत्रित करता है। कान्टै्रक्ट ट्रेसिंग तकनीक पर आधरित यह ऐप आपकी हर जानकारी लेता है। आप हर वक्त इसकी निगरानी में हैं।
अब तो इसे बाध्यकारी भी बना दिया गया है। फैक्ट्री, कम्पनी या निजी सरकारी दफ्तरों में काम के लिए, यात्रा व एक से दूसरे राज्य जाने, फंसे लोगों को पास जारी करने आदि के लिए ‘आरोग्य सेतु’ ऐप से जुड़ना अनिवार्य और बाध्यकारी बनाया गया है।
यह आधार नम्बर से भी ज्यादा ख़तरनाक है और उसी खेल का हिस्सा है। एक ने सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के नाम पर पैठ बनाई, तो दूसरा कोरना वायरस के नाम पर घुसपैठ बना रहा है।
नया तंत्र यानी सेन्ट्रल मॉनिटरिंग सिस्टम
सेन्ट्रल मॉनिटरिंग सिस्टम एक डेटा संग्रह प्रणाली है जिसका संचालन भारत सरकार द्वारा किया जाता है। यह संसद में 2012 में प्रस्तावित हुआ तथा अप्रैल 2013 से इसने काम करना शुरू किया। यह अमेरिकी सरकार के विवादास्पद प्रोग्राम ‘प्रिज़्म’ की तरह लोगों के निजी जीवन में हस्तक्षेप करने जैसा है।
यह भारत सरकार को फ़ोन पर हो रही बातचीत पढ़ने, फ़ेसबुक, ट्विटर या लिंकडिन के पोस्ट पर निगरानी रखने और गूगल की खोजों पर नज़र रखने में मदद करता है। जनता की हर गतिविधि पर नजर रखने की खतरनाक प्रणाली है।
फिंगर प्रिण्ट के बहाने कब्जेदारी
अभी सारे मोबाइल फोन जैसे उपकरण फिंगर और चेहरे की पहचान पर आधरित हैं। ड्राइवरी लाइसेंस बनाने से लेकर तमाम कामों में इसका तंत्र लागू है। यह बेहद ख़तरनाक है। सारे डाटा और निजी जानकारियाँ कम्पनियों के पास पहुँच रही हैं, वहीं यह निगरानी तंत्र का भी जरिया बनी हैं।
पुलिस बलों ने नियमित रूप से फ़िंगरप्रिण्ट और चेहरे पहचानने के सॉफ़्टवेयर का प्रयोग तेज कर दिया है। सीएए, एनआरसी के खि़लाफ़ चले विरोध प्रदर्शनों के दौरान लोगों की जासूसी और निगरानी हुईं।
प्रदर्शनों पर निगरानी रखने के लिए ड्रोनों का इस्तेमाल हुआ। लॉकडाउन के दौरान निगरानी के लिए ड्रोन कैमरों का इस्तेमाल काफी बढ़ा है। लोगों के कथित आपराधिक गतिविधियों की जाँच करने के लिए फ़िंगरप्रिंट का इस्तेमाल तेजी से बढ़ता गया है।
#उदारीकरण के तीन दशक – धारावाहिक-
- आठवीं किस्त : उदारीकारण के तीन दशक : 134 करोड़ लोगों का देश एक प्रतिशत पूँजीपतियों का उपनिवेश
- नौवीं किस्त : तीन दशक में महँगाई आसमान पर : यात्रा, दवा-इलाज ही नहीं, जनता से दाल-रोटी भी छिनी
वैश्विक लुटेरी ताकतों का जनता पर वर्चस्व बनाने का तंत्र
आज संचार माध्यम दैत्याकार उद्योग का रूप ले चुके हैं। लोकप्रिय संस्कृति के सभी नए-पुराने रूप – टीवी, एनिमेटेड कार्टून, फिल्में, कॉमिक, बड़े पैमाने पर होने वाले खेल, समाचार पत्र और पत्रिकाएं, मोबाइल, नेटवर्क सर्चिंग आदि इस काम में लगे हुए हैं। जहॉं सुनियोजित तरीके से सामाजिक यथार्थ और अतंरविरोध गायब रहते हैं।
कम्प्यूटर-मोबाइल-इंटरनेट के इस युग में, जहॉं बेब सर्चिंग से लेकर ईमेल, फेसबुक, ट्यूटर तक उपलब्ध हैं, हक़ीक़त यह है कि जनता असलियत से वास्तविक समाचारों और जानकारियों से लगातार कटती जा रही है। यह यूँ ही नहीं है कि सूचना-समाचार पर दुनिया की पॉच बड़ी एजेंसियों का कब्जा है। गूगल, फ़ेसबुक जो चाहेगा, वही प्रसारित होगा!
आज वैश्विक लूट की शक्तियों ने एक ऐसा तंत्र बना रखा है, जो जनता के दिमाग को एक मिनट भी सोचने नहीं देतीं। इन शक्तियों का फण्डा है कि दिमाग में घुसकर बैठ जाओ, हाथ व दिल उनके अनुरूप काम करने लगेंगे।
क्रमशः जारी…
अगली कड़ी में पढ़ें- उदारीकरण की जनविरोधी नीतियों से फासीवादी उभार का रिस्ता…