उदारीकारण के 3 दशक : मुट्ठीभर अमीरजादों के बनते ऐशगाह के नीचे आमजन की बर्बादी का सामान

80 के दशक में मुनाफे का एक रुपया मालिक की जेब में जाता था तो 2 रुपए 70 पैसे मज़दूर व अधिकारियों के हिस्से आता था। हिस्से की यह राशि 2017 तक घटकर सिर्फ 27 पैसे रह गई, जो कोरोना समय और ज्यादा घट चुकी है।…

उदारीकारण यानी मेहनतकश जनता की बर्बादी के तीन दशक -सातवीं किस्त

10 फीसदी धनपतियो की बहार

1991 में नरसिंहा राव-मनमोहन सिंह सरकार ने उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की जिन नीतियों की शुरुआत खच्चर घोड़े की चाल से की थी, संयुक्त मोर्चा की सरकार ने उसे गति दी, बाजपेयी की भाजपा नीत सरकार ने उसे सरपट दौड़ाया, मनमोहन सिंह की कांग्रेस नीत सरकार ने उसे और रफ्तार दी और वर्तमान मोदी सरकार ने उसे बेलगाम बनाकर ‘बूलेट’ की गति दे दी।

हालत ये हैं कि आज पैदा होने वाला हर बच्चा हजारों रुपए कर्ज में डूबा होता है। एसबीआई की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2020-21 में भारतीय परिवारों का कर्ज बीते 6 सालों में लगातार बढ़ते हुए देश के कुल जीडीपी का 37.3% पहुँच चुका है।

आर्थिक सुधार की दिशा में 1991 से अब तक उठाये गये ये कदम किसके हित में हैं?

1- औद्योगिक लाइसेंस प्रथा की समाप्ति; 2- आयात शुल्क में कमी लाना तथा मात्रात्‍मक तरीकों को चरणबद्ध तरीके से हटाना; 3- बाजार की शक्तियों द्वारा विनिमय दर का निर्धारण (सरकार द्वारा नहीं), 4- वित्तीय क्षेत्र में सुधार; 5- पूँजी बाजार का उदारीकरण; 6- सार्वजनिक क्षेत्र में निजी क्षेत्र का प्रवेश; 7- निजीकरण; 8- उत्पाद शुल्क में कमी; 9- आयकर तथा निगम कर में कमी; 10- सेवा कर की शुरूआत; 11- शहरी सुधार; 12- सरकारी विभागों में कर्मचारियों की संख्या कम करना; 13- पेंशन क्षेत्र में सुधार (पुरानी पेंशन योजना बंद) 14- मूल्य संवर्धित कर (वैट) आरम्भ करना; 15- जनता को मिलने वाली रियायतों (सबसिडी) में कमी; 16- राजकोषीय‍ उत्तरदायित्व और बजट प्रबन्धन (FRBM) अधिनियम 2003 को पारित कराना; 17- नोटबंदी (2016) व जीएसटी (2017); 18- तीन कृषि क़ानून; 19- चार लेबर कोड; 20- बिजली संशोधन अधिनियम (2020), नेशनल मोनोटाईजेशन पाइपलाइन (2021) आदि।

परिणाम देखें-

80 के दशक में मुनाफे का एक रुपया मालिक की जेब में जाता था तो 2 रुपए 70 पैसे मज़दूर व स्टाफ/प्रबंधन के पास जाते थे, मज़दूर-स्टाफ/प्रबंधन के हिस्से की राशि 2017 तक घटकर सिर्फ 27 पैसे रह गई, जो कोरोना के समय और ज्यादा घट चुकी है। अधिकारियों का हिस्सा निकाल दें तो इसमें मजदूरों के हिस्से बेहद कम राशि आ रही है।

आज ऊपर के एक प्रतिशत के पास कुल 20.90 लाख करोड़ रुपये की संपत्ति है जो भारत के बजट के लगभग बराबर है। सन 2000 में धनपतियों के पास देश की कुल पूँजी का 37 प्रतिशत हिस्सा था जो 2005 में बढ़कर 42 प्रतिशत, 2010 में 48 प्रतिशत, 2012 में 52 प्रतिशत और “सबका साथ सबका विकास” के नारे के बाद भी यह हिस्सा 2017 में बढ़कर 58 प्रतिशत हो गया।

देश की ऊपर की 10 फीसदी आबादी के पास 80 फीसदी धन-संपदा है और बाकी की 90 फीसदी जनता के पास सिर्फ 20 फीसदी है; देश के सबसे अमीर 1 फीसदी अमीरजादों के पास देश की 60 फीसदी धन-संपदा है। मात्र 57 लोगों के पास उतनी संपत्ति है, जितनी देश के नीचे के 70 फीसदी (91 करोड़) लोगों के पास है। 2014 में इस एक प्रतिशत बड़े वर्ग के पास मात्र 22 प्रतिशत पूँजी आई थी। -विश्व असमानता रिपोर्ट

सन् 1991 में देश में केवल 2 खरबपति थे, जिनकी संख्या बढ़कर 101 हो गई! अरबपतियों की तादाद के मामले में भारत दुनिया में तीसरे नम्बर पर पहुँच गया है। करोड़पतियों की संख्या में भी भारी बढ़ोत्तरी हुई है। साल 2016-18 (2 साल) में शीर्ष धनपतियो की संख्या 339 से बढ़कर 831 हो गई, जिनकी कुल संपत्ति बढ़कर 719 अरब डॉलर हो गई, जो देश के सकल घरेलू उत्पाद का चौथाई है।

ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2017 में जो पूँजी पैदा हुई उसमें ऊपर के एक प्रतिशत लोगों के पास देश की 73 प्रतिशत पूँजी आई, जबकि 99 प्रतिशत लोगों के पास मात्र 27 प्रतिशत पूँजी पहुँची।

ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट बताती है कि कोरोना काल के लॉकडाउन में भी भारत के चन्द अरबपतियों की सम्पत्ति में 35 फीसदी तक वृद्धि हुई है। सन् 2009 से अब तक इन अरबपतियों की सम्पत्ति में 90 फीसदी बढ़ोत्तरी हो चुकी है, यानी पिछले 12 साल में इनकी दौलत लगभग दोगुनी हो गयी है।

कोरोना काल के बीते डेढ़ साल में अंबानी, अडाणी, प्रेमजी, नडार, लक्ष्मी मित्तल, राधाकिशन दमानी, साइरस पूनावाला सहित तमाम धनपतियों की संपत्ति में बेतहाशा तेजी आई है। ब्लूमबर्ग बिलिनेयर इंडेक्स में अंबानी और अडाणी भारत के पहले और दूसरे पायदान पर हैं।

ब्लूमबर्ग बिलेनियर इंडेक्स के अनुसार कोरोना काल में अडाणी की संपत्ति में कुल 35.20 अरब डॉलर की तेजी आई है तो 19 अन्य रईसों की संपत्ति कुल 24.50 अरब डॉलर बढ़ी है। 23 मई ,2021 को मुकेश अंबानी संपत्ति 77 बिलियन डॉलर पर थी, जो और बढ़कर 83.2 बिलियन डॉलर पर पहुंच गई।

बिगड़ते गए सामाजिक हालात

मानव विकास सूचकांक में भारत काफी नीचे 131 वें स्थान पर पहुंच गया। देश में हर साल जन्म लेने वाले 20 लाख बच्चे 5 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते अकाल मृत्यु के शिकार हो जाते हैं। 50% बच्चे कुपोषित हैं, 75% बच्चों में खून की कमी है। 28 लाख लोग हर साल टीबी के चपेट में आते हैं।

मोदी राज में ग़रीबी, भुखमरी, दवा-इलाज की कमी और जीवन की गुणवत्ता के तमाम सूचकांकों पर भारत दुनिया के सबसे ग़रीब देशों के साथ बिल्कुल निचली पायदानों पर पहुँच गया है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़, लगभग 30 प्रतिशत आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे है। हालांकि देश के प्रमुख अर्थशास्त्री यह साबित कर चुके हैं कि ग़रीबी रेखा का पैमाना ग़लत है, वास्तव में लगभग आधी आबादी ग़रीबी में जी रही है।

भारत में औसत आयु चीन और श्रीलंका के मुकाबले 7 वर्ष कम और भूटान के मुकाबले भी 2 वर्ष कम है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर चीन के मुकाबले तीन गुना, श्रीलंका के लगभग छह गुना और यहाँ तक कि बंगलादेश और नेपाल से भी ज़्यादा है।

“विकास” के दावों के बीच देश में ग़रीबों, बेरोजगारों, बेघर लोगों की तादाद लगातार बढ़ती गयी है। देश की लगभग 47 करोड़ मज़दूर आबादी में से 93 फीसदी (43 करोड़) मज़दूर असंगठित क्षेत्र में धकेल दिये गये हैं जहाँ वे बिना किसी क़ानूनी सुरक्षा के ग़ुलामों जैसी परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर हैं।

आजादी के बाद, विकास के नाम पर देश में 6.5 करोड लोग विस्थापित हुए हैं। जबकि 1947 में विभाजन के समय में सिर्फ एक करोड़ लोग विस्थापित हुए थे। पिछले 30 सालों में दंगे खूब बढ़े हैं। सन् 2013 में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में 6.5 करोड़ लोग टेंटों में गुजर-बसर कर रहे थे, उनमें 40% दलित थे और 40% आदिवासी।

देश की 30% जनता निरक्षर है। 42% बच्चे आज भी स्कूल नहीं जा पाते, 50% सरकारी स्कूलों में टॉयलेट तक नहीं है, एक चौथाई स्कूलों में पीने का पानी नहीं मिलता है। शिक्षा पर जीडीपी का मात्र आधा प्रतिशत ही खर्च किया जाता है, उच्च शिक्षा का बजट केवल 33000 करोड़ रुपए का है।

67 प्रतिशत किसान और खेतिहर मज़दूर के लिए दो जून की रोटी की व्यवस्था मुहाल हो रही है। पिछले 20 सालों में तीन लाख से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की, इसमें महिला किसानों और खेतिहर मज़दूरों की संख्या शामिल नहीं है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार भारत में 2019 में हर दिन औसतन 381 लोगों ने आत्महत्या की और इस तरह पूरे साल में कुल 1,39,123 लोगों ने खुद ही अपनी जान ले ली। आंकड़ों के अनुसार, 2018 के मुकाबले 2019 में आत्महत्या के मामलों में 3.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

अमीरी-गरीबी की बढ़ती खाई : आंकड़ों की जुबानी

★ भारत के 100 अरबपतियों की कुल संपदा 32.964 अरब रुपये (492 अरब डॉलर) थी। (वर्ष 2018 की फोर्ब्स की रिपोर्ट)। 100 अरबपति देश की पूरी जनसंख्या की एक साल की कमाई से भी ज़्यादा संपदा पर क़ब्ज़ा रखते हैं।

★ नोटबंदी के बाद वर्ष 2017-18 में रुपये की कीमत गिर रही थी, बेरोज़गारी बढ़ रही थी; बेरोजगार व किसान आत्महत्या कर रहा था, वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) के आगाज़ ने अर्थव्यवस्था को झटका दिया था; उसी दौरान भारत के 2.5 लाख सबसे अमीर परिवारों ने 2200 करोड़ रुपये प्रतिदिन के हिसाब से कमाई की। (फोर्ब्स की रिपोर्ट)

★ वर्ष 2017-18 में भारत के अरबपतियों ने 20,913 अरब रुपये की कमाई की। यह राशि भारत सरकार के बजट के बराबर थी। (ऑक्सफेम की रिपोर्ट)

★ देश के सबसे अमीर और श्रमिक की कमाई में 1/60 करोड़ गुना का अंतर है। भारत में उच्च अधिकारी को 8600 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से वेतन मिलता है। मुकेश अंबानी की संपत्ति हर रोज़ 300 करोड़ रुपये के हिसाब से बढ़ी।

★ भारत की कुल संपदा (38,818 खरब रुपये) में से 78 प्रतिशत पर देश के सबसे संपन्न 20 प्रतिशत लोगों का नियंत्रण था। (क्रेडिट सुईस वैश्विक संपदा रिपोर्ट, 2018)। इसके नीचे के 40 प्रतिशत लोगों (मध्यम वर्ग) के पास 8695.2 खरब रुपये (22.4 प्रतिशत) की संपदा थी। सबसे ग़रीब 20 फीसदी लोग पूरी संपदा से वंचित हैं, जिनकी संपदा ऋणात्मक 349.36 खरब रुपये है।

क्रमशः जारी… अगली कड़ी में पढ़ें- कैसे 134 करोड़ लोगों का देश एक प्रतिशत पूँजीपतियों का उपनिवेश बना…

आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें-

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