चार दशक से छिनते श्रम क़ानूनी अधिकार : मजदूरों को बंधुआ बनाने के लिए आया लेबर कोड

80 के दशक में श्रम क़ानूनी अधिकारों के छिनने की चरम परिणिती के रूप में 4 मज़दूर विरोधी श्रम संहिताएं पारित हुईं, तो सरकारी-सार्वजनिक उद्योगों-संपत्तियों को बेंचने का घोड़ा मोदी ने सरपट दौड़ दिया!…

उदारीकारण यानी मेहनतकश जनता की बर्बादी के तीन दशक –चौथी किस्त

चार दशक : एस्मा, औद्योगिक संबंध आयोग से श्रम संहिताओं तक की यात्रा

उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों के लागू होने के साथ 80 के दशक से ही श्रम कानूनी अधिकारों में डकैती की शुरुआत हुई। यहां यह गौरतलब है की 70 के दशक तक क्योंकि मज़दूर आंदोलनों की एक धमक मौजूद थी, इसलिए जो भी श्रम कानून बन रहे थे या बदलाव हो रहे थे, वे मुख्यतः मज़दूरों के हित में थे। लेकिन 80 के दशक से यह मज़दूरों के ख़िलाफ़ विपरीत दिशा में तेजी से आगे बढ़े।

1980 में दमनकारी नीति ‘राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम’ (एनएसए) सामने आया और उसके बाद ‘आवश्यक वस्तु सेवा अधिनियम’ (एस्मा) 1981 में बना, जो 14 सेवा क्षेत्रों में हड़ताल पर प्रतिबंध का दस्तावेज बन गया। 80 के दशक में ही लाइसेंस राज से मुक्ति के कथित प्रयास शुरू हुए। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को बंद करने के लिए बीआइएफआर बना, जो मोदी राज (2016) में भंग हो गया और नया क़ानून एनसीएलटी बन गया।

इससे पहले ही जनता पार्टी सरकार के दौरान ट्रेड यूनियन और औद्योगिक विवाद अधिनियम में संशोधन के प्रयास हुए, ‘भूतलिंगम समिति’ की रिपोर्ट लागू हुई जोकि वेतन को उत्पादकता से जोड़ दिया।

‘ट्रेड यूनियन और औद्योगिक विवाद संशोधन विधेयक’ 1988 में राजीव गांधी के शासन काल में पेश हुआ था। वर्तमान में औद्योगिक संबंध संहिता जो बनी है इसी दिशा में प्रयास का परिणाम है। उस वक्त ही औद्योगिक संबंध आयोग बनाने की बात हुई थी और यूनियन बनाने के लिए 10% सदस्यों की बाध्यता की बात की गई थी।

इसी के साथ ‘हॉस्पिटल एंड इंस्टीट्यूशनल बिल’ भी आया था। ‘श्रम विधि (विवरण देने और रजिस्टर रखने के कतिपय स्थानों में छूट) अधिनियम 1988 प्रस्तुत हुआ। हालांकि तमाम विरोधों के बाद वीपी सिंह सरकार में ट्रेड यूनियन और औद्योगिक विवाद संशोधन विधेयक वापस ले लिया गया।

1991 में नरसिम्हा राव सरकार के आने के बाद दूसरे तरीकों से पुराने श्रम अधिनियमों में परिवर्तन की शुरुआत हुई और मुख्यतः श्रम नियमावली में मालिक पक्षीय संशोधनों को आगे बढ़ाने का काम शुरू हुआ। आगे की सरकारें भी इसी तरीके का इस्तेमाल करती रहीं। जिसके तहत अप्रेंटिस एक्ट 1961 की नियमावली में परिवर्तन, इपीएफ अंशदान में मालिकों के हित में परिवर्तन आदि शामिल हैं।

द्वितीय श्रम आयोग की रिपोर्ट, सेज और चोर रास्ते से बदलते क़ानून

1998 में अटल बिहारी वाजपयी की सरकार ने दूसरे श्रम आयोग के गठन के साथ बड़ा हमला बोला, जिसकी रिपोर्ट 2002 में सामने आई। इसने श्रम कानूनों के सभी पहलुओं पर सबसे बड़ा और घातक सिफारिशों को पेश किया। तब देश भर में विरोध के कारण बाजपेयी और बाद की मनमोहन सरकार इसको लागू नहीं कर पाई, लेकिन चोर दरवाजे से यह लागू होती रहीं। इसका एक बड़ा मॉडल विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के रूप में सामने आया।

वाजपेयी सरकार के दौरान अप्रैल 2000 में विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) नीति की घोषणा हुई और बाद में मनमोहन सरकार के दौरान 2005 में विशेष आर्थिक क्षेत्र ने कानूनी रूप ले लिया। इसके तहत लगने वाले तमाम कारखानों के लिए भारी सब्सिडी और तमाम टैक्सों में व्यापक छूट के साथ इन क्षेत्रों को श्रम कानूनों से मुक्त कर दिया गया।

यहाँ श्रम कानून लागू होने या ना होने का दायित्व सेज के विकास आयुक्त के निर्णय व विवेक पर छोड़ दिया गया। यानी यहां पर किसी भी प्रकार का श्रम कानून लागू होने की स्थिति नहीं रह गई। यह एक बड़ा प्रयोग था।

इसी दौर में श्रम सुधार के नाम पर श्रम कानूनों को खत्म करने की दिशा में प्रयास होते रहे। नए इलाकों में जो नए कारखाने लगे, उनमें तमाम तरीके से श्रम क़ानूनों को कमजोर किया गया। उद्योगों में पुलिस हस्तक्षेप बढ़ता गया। कई मामले ऐसे आए जो बाजपेयी और मनमोहन सिंह सरकारों के दौरान सुप्रीम कोर्ट का सहारा लेकर लागू होते रहे और मजदूरों के अधिकार छिनते रहे।

मोदी युग, यानि पूर्णतः अधिकार विहीन बनाता मज़दूर

2014 में नरेंद्र मोदी सरकार भारी बहुमत के साथ जब सत्ता में आई तो उसने ‘मेक इन इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’ के नारों के साथ 92 सूत्री चार्टर प्रस्तुत किया। जिसके तहत देसी-विदेशी मालिकों के हित में कानूनों को तेजी से बदलने के लिए ‘इज ऑफ डूइंग बिजनेस’ का फंडा अपनाया गया।

अपने पहले कार्यकाल में नरेन्द्र मोदी ने ख़ुद को ‘मज़दूर नम्बर वन’ बताया और ‘श्रमेव जयते’ जैसा जुमले की आड़ में मज़दूरों के रहे-सहे अधिकारों पर डाका डालने का काम बदस्तूर जारी रहा। मोदी-1 सरकार ने पूँजीपतियों को किये गये वायदों के अनुसार तमाम मज़दूर विरोधी क़दम उठाए। इनमें सबसे प्रमुख हैं लंबे संघर्षों के दौरान हासिल श्रम कानूनों को मालिकों के हित में बदलना। इसके मूल में है- ‘हायर एण्ड फॉयर’ यानी देशी-विदेशी कंपनियों को रखने-निकालने की खुली छूट के साथ बेहद सस्ते दाम पर मजदूर उपलब्ध कराना।

इसी जुगत में लगी मोदी सरकार कौशल विकास के नाम पर फोकट के मज़दूर नीम ट्रेनी, स्थाई रोजगार की जगह फिक्स टर्म और इसी प्रक्रिया में मौजूदा श्रम कानूनों को खत्म करके चार श्रम संहिताओं में बांधने की प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ी।

प्रचंड बहुमत से हौसले और बुलंद

प्रचंड बहुमत से लौटी मोदी-2 सरकार के हौसले और बुलन्द हो गए। राजसिंहासन संभालते ही एनडीए सरकार ने मेहनतकश वर्ग पर ताबड़तोड़ हमले के साथ मालिकों के हित में विकास के घोडे़ को सरपट दौड़ा दिया। सरकार ने 4 श्रम संहिताओं को वर्तमान बजट का हिस्सा बनाया। आनन-फानन में चार में से एक- मज़दूरी पर श्रम संहिता-2019 परित करके अपने प्रचंड बहुमत का करिश्मा भी दिखा दिया।

आपदा बना अवसर

हालात ये हैं कि मज़दूरों को बंधुआ बनाने और मुनाफे की लूट मनमाना करने के लिए मोदी सरकार ने लंबे संघर्षों के दौरान हासिल 29 श्रम क़ानूनों को ख़त्म करके 4 श्रम संहिताओं में बची तीन संहिताओं को एक झटके में पारित करने में खुली मनमानी की। यूनियन व हड़ताल के अधिकारों पर पाबंदियों के साथ स्थाई रोजगार की जगह फिक्स टर्म व नीम ट्रेनी लेने लगा। खेती-किसानी को पूरी तरह मुनाफाखोर कॉरपोरेट के हवाले करने के लिए तीन कृषि क़ानून थोप दिए हैं। ये फेर-बदल मोदी सरकार द्वारा ‘ईज आफ डूयिंग बिजनेस’ के तहत गुलामी के दस्तावेज हैं।

इस पूरी प्रक्रिया की चरम परिणिती के रूप में पारित 4 मज़दूर विरोधी श्रम संहिताएं हैं- मजदूरी पर श्रम संहिता, औद्योगिक संबंध श्रम संहिता, सामाजिक सुरक्षा व कल्याण श्रम संहिता तथा व्यवसायिक सुरक्षा एवं कार्यदशाओं की श्रम संहिता। इनकी नियमावली भी ज्यादातर बन चुकी है और उसे लागू करने की जोर आजमाइश जारी है।

सरकारी-सार्वजनिक संपत्तियाँ बेचने का घोड़ा बेलगाम

1980 के दशक में बीआइएफआर के गठन के साथ जनता के खून-पसीने से खड़े 58 सर्वजनिक उद्योगों (करीब 350 कारखानों) को बीमार बनाकर बंद करने-बेचना का खेल शुरू हुआ। विदेशी पूँजी के प्रवेश के साथ 1990 के दशक में दूर संचार संचार जैसे विभागों को तोड़कर निगम बनाना, सरकारी/सार्वजनिक कम्पनियों को बेचना/बन्द करना गति पकड़ने लगा। बाजपेयी और मनमोहन सरकार में मुनाफे वाली नवरत्न कंपनियां भी बिकने लगीं।

मोदी युग में यह ‘खुला खेल फर्रूखावादी’ बन गया। देशी-बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में लगातार सक्रीय मोदी सरकार सरकारी क्षेत्र की कंपनियों व विभागों को तेजी से निजी मुनाफाखोरों को सौंपने के साथ बेलगाम लूट के रास्ते बना चुकी है।

जमीन के भीतर कोल खदान हो, सड़क पर चलने वाले परिवहन हों या रेल सेवाएं, आकाश में उड़ने वाली हवाई सेवाएं हों, प्रक्षेपण संस्थान इसरो हो या इनको दौड़ाने वाले डीजल-पेट्रोल-गैस हो – मोदी जमात ने ज़मीन के भीतर से लेकर आकाश तक – सबको निजी हाथों में सौंपने की रफ्तार तेज कर दी।

हद यह है कि अति संवेदनशील रक्षा क्षेत्र के उद्योगों को भी निजी हाथों में सौपाने की तैयारी के साथ मोदी सरकार ने एस्मा के तर्ज पर जून 2021 में आवश्यक रक्षा सेवा अध्यादेश 2021 लाकर हड़तालियों व हड़ताल समर्थकों पर भारी जुर्माने व एक साल से लेकर दो साल तक की जेल की सजा का प्रावधान कर कर्मचारियों से हड़ताल करने के मौलिक अधिकार को ही छीन लिया।

सार्वजनिक व सरकारी उद्यमों-संस्थाओं और सरकारी-सार्वजनिक संपत्तियों को औने-पौने दामों में देशी-विदेशी कंपनियों को सौंपने ने गति पकड़ी, जिसका सबसे बड़ा लाभ अड़ानियों-अंबनियों को मिल रहा है। मालिकों को खुलेआम मुनाफा पहुंचाने और मज़दूरों का और ज्यादा खून निचोड़ने की खुली छूट दी। सरकारी हो या निजी हर क्षेत्र में छँटनी-बंदी खुला खेल बन गया है।

मोदी सरकार के देश बेचो अभियान के तहत अब रेल, सड़क, एयरपोर्ट गैस पाइपलाइन, स्टेडियम, बिजली और गोदाम को निजी हाथों में देने की घोषणा हो गई है। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ऐलान के साथ कहा कि इस योजना के जरिए 4 साल में केंद्र सरकार 6 लाख करोड़ रुपए का मुनाफा कमाएगी। 

यानि औने-पौने दामों में देश की जनता के खून-पसीने से खड़ी अरबों की संपत्ति पूँजीपति मुनाफाखोरों के हवाले हो जाएगी। मजेदार यह है कि सरकार इसको बेचना नहीं बल्कि किराए पर देना बोल रही है! मतलब बाकी सारी व्यवस्था और खर्चा सरकार जनता के ऊपर और टैक्स थोपकर करेगी और मुनाफा उसके यारों की झोली में जाएगी!

क्रमशः जारी…

अगली किस्त में पढ़ें- किस प्रकार उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण का पूरा दौर रोजगार विहीन विकास का दौर है? क्यों सरकारें बदलती रहीं और बेरोजगारी बढ़ती रही?

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