छिनते अधिकार, बढ़ता भ्रष्टाचार, बढ़ती महँगाई, बढ़ते दंगे, बढ़ता दमन

देश में विदेशी पूँजी के सामने समर्पण बढ़ने के साथ केवल मुनाफे की लूट ही नहीं बढ़ी, बल्कि जनता को बाँटने के लिए दंगे-फसाद तेज हुए, सत्ता का दमन तंत्र मजबूत होता गया तो भ्रष्टाचार भी नये रिकॉर्ड बनाते गये!…

उदारीकारण यानी मेहनतकश जनता की बर्बादी के तीन दशक -तीसरी किस्त

कैसे यह चौतरफा हमला है?

पहला, इंदिरा सरकार द्वारा 1981 में अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से पहली बार कर्ज लेने के साथ हुए समझौते के तहत एक तरफ विदेशी पूँजी के लिए भारतीय बाजार को खोलने की शुरुआत हुई, बीआईएफआर का गठन कर सार्वजनिक कम्पनियों को घाटे के बहाने बन्द करने की शुरुआत हुई, शिक्षा नीति पूरी तरह कॉर्पोरेट के हित में बनाने की शुरुआत हुई, अमेरिकी नीतियों के सामने समर्पण के तहत डंकल प्रस्ताव की ख़तरनाक़ नीतियों पर झुकाव बढ़ा। तबसे एक के बाद एक सभी चुनावी पार्टियों की सरकारें बनीं, सभी सरकारें इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाती रहीं।

दूसरी ओर, बाबरी मस्ज़िद/रामजन्म भूमि के बहाने साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ते गये, मंडल के बहाने जातिय विद्वेश तेज हुए। धर्म, जाति, राष्ट्र के नाम पर पूरा देश दंगे फसाद की आग में झुलसता चला गया। जिसका विस्तार लबज़ेहाद और गो-रक्षा के बहाने उन्मादी भीड़ की बर्बर हत्याओं तक पहुँच गया।

तीसरी ओर, भ्रष्टाचार के रोज नित नये रिकॉर्ड बनने लगे। बोफोर्स, हवाला, जैन डायरी, चारा, ताबूत, संचार, कोयला, टूजी से होते हुए रॉफेल तक का सफर तेज होता गया। हर नया घोटाला पिछले से काफी बड़ा होता गया। जैसे रॉफेल के सामने बोफोर्स की कोई औकात नहीं ठहरी!

चौथा, दमन तंत्र मजबूत होता गया, लाठी-डंडे-गोलियों और फर्जी आरोपों में गिरफ्तारियों से विरोध की हर आवाज़ को कुचलने में तेजी आती गई। तेजी से तकनीक बदलने के साथ जनता को मानसिक रूप से गुलाम बनाना आसान हुआ। इसी के साथ जनता की निजता छिनती गई और उसकी निगरानी/जासूसी का विस्तार होता गया। 

धनपतियों की मौज, मेहनतकशों की बर्बादी

1991 में उदारीकरण के बयार के साथ मज़दूर विरोधी नीतियों को थोपने का नया दौर शुरू हुआ! आम जनता को मिलते राशन-तेल आदि में भी मिल रही सब्सिडियों में कटौती और पूँजीपतियों की सब्सिडियाँ बढ़ाने की शुरुआत हुई। यह गौरत़लब है कि 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने बेबाकी के साथ कहा था कि ‘विकास’ के लिए अब जनता को पेट पर पट्टी बांधनी होगी।

पिछले तीन दशक में- सरकारें बदलती रहीं, परंतु कारनामे एक रहे-

★ 1991 से अबतक तीन दशकों में 15 साल कांग्रेस तो 13 साल भाजपा (जो जारी है) व 3 साल संयुक्त मोर्चा (वाम पार्टियों सहित) की सरकारें रहीं!

– विदेशी निवेश के लिए रास्ते और खोलना, श्रम अधिकारों में कटौतियां बढ़ाना, रुपए का अवमूल्यन, सीमा शुल्क में कमी और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की बाधाएं कम कराना, संचार जैसे विभागों को तोड़कर निगम बनाना, सरकारी/सार्वजनिक कम्पनियों को बेचना/बन्द करना, शिक्षा को कॉरपोरेट के हवाले करना, डंकल प्रस्ताव पर घुटने टेक कर विश्व व्यापार संगठन में शामिल होना आदि (राव-मनमोहन की कांग्रेसी सरकार)

-विश्व व्यापार संगठन से साझीदारी बढ़ाना, निगमीकरण/निजीकरण को बढ़ावा, कुख्यात पांचवें वेतन आयोग द्वारा सरकारी क्षेत्र में कर्मचारियों व अधिकारियों के वेतन में भारी असमानता के साथ 3.5 लाख रिक्त पदों को समाप्त करने की संस्तुति, जनता को मिलने वाली सब्सिडी को घटाने के लिए “स्वेत पत्र” आदि (वामपंथी पार्टियों से युक्त संयुक्त मोर्चा की सरकारें)

-बीमा क्षेत्र में निजी भागेदारी का रास्ता खोलना (आईआरडीए बिल); मज़दूर विरोधी दूसरा श्रम आयोग; शिक्षा व चिकित्सा के निजीकरण के लिए बिड़ला-अम्बानी कमेटी; सरकारी कर्मचारियों का पेंशन बन्द करना, वायदा कारोबार द्वारा खाद्य सामग्री तक में सट्टेबाजी की शुरुआत, विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के बहाने मज़दूरों को पंगु बनाना, जनता की सुविधाएं घटाने, मुनाफाखोरों के बढ़ाने आदि (बाजपेयी की भाजपा नीत सरकार)

-श्रम कानूनी अधिकारों पर हमले तेज, निजीकरण को बढ़ावा, लाभकारी सार्वजनिक कम्पनियों के विनिवेश को और गति, विदेशी पूँजी के हित में कानूनों में बदलाव तेज, सर्विस टैक्स के बहाने अप्रत्यक्ष करों का नया बोझ, वायदा कारोबार का विस्तार जरूरी खाद्य सामग्री तक करना आदि (मनमोहनी कांग्रेस सरकार)

-श्रम कानूनों को पूर्णतः पंगु बनाने के लिए 4 श्रम संहिताएं लाना; अंबनियों-अडानियों के हित में कोलमाइन्स, बीएसएनएल, बैंक, बीमा, रेल, परिवहन, बिजली, पेट्रोलियम, शिक्षा, चिकित्सा आदि के निजीकरण की प्रक्रिया बेलगाम; कृषि के कॉर्पोरेटिकरण के लिए तीन कृषि क़ानून बनाने; पिछले दरवाजे से भी देशी-विदेशी पूँजीपतियों को लाभ देने के कई फण्डे बनाना; संवैधानिक संस्थाओं पर हमले तेज आदि (मोदी की भाजपा सरकार)

तो फिर हुआ क्या?

★ इस पूरे दौर में बेरोजगारी, मंहगाई, लूट, भ्रस्टाचार… रिकार्ड बनाते रहे, मुट्ठीभर धनपतियों की पाँचों उंगलियां घी में रही और मेहनतकश जनता रसातल में पहुँचती रही…

★ निजी कंपनियों/पूँजीपतियों को भारी सब्सिडियाँ और तरह-तरह की रियायतें व छूटें तथा बैंकों की कर्जमाफ़ी ज्यादा से ज्यादा बढ़ती गई, जबकि आम जनता की छिनती गई…

सन् 2005-06 से लेकर मोदी राज तक धनिकों का 55 लाख करोड़ रुपए का रेवेन्यू माफ किया जा चुका है। जबकि बैंकों का 6.5 लाख करोड़ का एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट) है। दूसरी और इसी दरमियान राशन, तेल, खाद, बिजली, पानी, घरेलू गैस, डीजल आदि के रूप में आम जनता को मिलने वाली सब्सिडियां लगातार छिनते हुए लगभग खात्मे तक पहुँच गईं...

★ श्रम कानूनी अधिकार छिनते गए, सरकारी कंपनियां बिकती रहीं, बैंक-बीमा, बिजली, रोडवेज आदि सब कुछ निजी हाथों में जाता रहा, स्थाई नौकरी की जगह ठेकेदारी, ट्रेनी, फिक्सड टर्म, नीम ट्रेनी होता गया, पेंशन जैसे बुढ़ापे का सहारा छिनता गया, छँटनी-बंदी बेलगाम हुई और दमन बढ़ता गया…

★ इस बढ़ती तबाही से जनता का ध्यान भटकाने के लिए हिन्दू-मुस्लिम, अगड़ा-पिछड़ा, बंगाली-पंजाबी-तमिल-मराठी-पुरबिया के घिनौने खेल में उलझाने का हथकंडा कामयाब होता गया और समाज में धर्म, जाति के तफरके, दंगे-फसाद बढ़ते गए…

★ मोबाइल-नेट के दुष्चक्र में युवा फँसते गए, मीडिया के फर्जी खबरों की बमबारी के बीच अज्ञानता बढ़ती रही, ज्ञान-विज्ञान का स्थान जादू-टोना-कर्मकांड लेने लगा, जनता को सचेतन भीडतंत्र में बदला जाता रहा…

आपदा बना मुनाफाखोरों के लिए अवसर

कोरोना का दौर आते-आते जनता पर कहर बेलगाम हो गया और मोदी सरकार ने आपदा को मुनाफाखोरों के लिए शानदार अवसर में बदल दिया। कोरोना फैलाने का फर्जी दोषी ठहराकर ‘जमात’ के नाम पर नफरत का एक और घटिया खेल खेलने और ताली-थाली पिटवाने, मोमबत्तियाँ जलवाने के जुनून के बीच मोदी सरकार ने एक तरफ अपनी नाकामयाबी छुपाई; वहीं ताबड़तोड़ जन विरोधी नीतियाँ लागू की।

जनता के दिमाग को चकारघिन्नी बना देने वाला एक ऐसा खेल चलने लगा, जिसमें जनता के लिए असल मुद्दे छाँटना ही पेचीदा व असंभव प्राय होता गया।

कोरोना के नाम पर जनता पर मनमानी पाबंदियों के बीच रेल-सड़क परिवहन तक सरकार की इच्छा का गुलाम बन गया, तरह-तरह के टैक्स व अर्थदंड, जुर्माने के बहाने कंगाल होती जनता से वसूली विकराल हो गई।

महामारी के बहाने इस साल आम नागरिकों के इलाज कराने का अधिकार भी सीज कर दिया गया। स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली खुलकर सामने आ गई। सबसे बड़ा प्रभाव बच्चों की शिक्षा पर पड़ा। छोटे बच्चो के स्कूल अभी भी नहीं खुले, बड़ों के खुले भी तो आधे-अधूरे। कॉर्पोरेट के हित में ऑनलाइन शिक्षा ग़रीब परिवार के बच्चो के लिए संकट का सबसे बड़ा सबब बन गया। इसी के बीच शिक्षा व चिकित्सा का कॉर्पोरेटिकरण भी तेज हो गया।

क्रमशः जारी…

अगली किस्त में पढ़ें- कैसे छिनते गए श्रम क़ानूनी अधिकार, बढ़त गया निजीकरण

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