इस सप्ताह : पीठ पर बंधा घर !

शुभकामना / मोती जैसलमेरी

दुनिया में सबसे सुंदर
सुबह वह होगी,
जब हर सैनिक के हाथ में
हथियार नहीं,
खेल के सामान होंगे।

किसी सैनिक का
परिवार,
डर व आशंका में रात नहीं
गुजारेगा,
वह हर नयी सुबह का इंतजार
करेगा,
बधाई के साथ अखबार के पन्ने
भरे देखने के लिए।

फूल ही फूल होंगे
किसी सैनिक की अर्थी पर नहीं
किसी परिवार के सपनों पर नहीं
वे होंगे खेल के मैदानों में
सम्मान समारोह में।

आंसू तो होंगे
पर वे किसी बेबस आखों में
नहीं,
वे होंगे खुशी के आंसू
सोने के साथ,
सुनहरे भविष्य के लिए।

जब दो देशों के सैनिक,
एक- दूसरे को डराने के
लिए नहीं मिलेंगे,
अपने तानाशाहों को
खुश करने लिए
जंग की तैयारी करते हुए
नहीं मिलेंगे।

वे जब भी मिलेंगे
एक दूसरे के गले मिलेंगे
हार व जीत में
खुशी व गम में
बधाई देने व
आंसू पोंछने के लिए मिलेंगे।

कोई सैनिक खून नहीं बहाएगा
किसी जमीन के टुकड़े के
लिए,
वह पसीना बहाएगा
दिल जीतने के लिए।


प्रेम के देश में / अशोक कुमार

प्रेम के देश में
न कोई हिन्दू होता है
न मुसलमान
न ब्राह्मण होता है, न शूद्र
न देशी, न विदेशी

प्रेम के देश में
आदमी
सिर्फ़ आदमी होता है

अगर तुम
अभी भी
हिन्दू, मुसलमान,
ब्राह्मण, शूद्र
देशी या विदेशी हो
तो तुम
घृणा के देश में हो

घृणा दुख है
और आदमी का दुख
और कुछ नहीं
सिर्फ़ प्रेम का अभाव है।


पीठ पर बँधा घर / रूपाली

पीठ पर घर बाँधे वे हर जगह मौजूद होती हैं
कभी-कभी उसे उतारकर कमर सीधी करती
हँसती हैं खिलखिलाती हैं
बोलती-बतियाती हैं
लेकिन जल्द ही घेर लेता है अपराधबोध
उसी क्षण झुकती हैं
घर को उठाती हैं पीठ पर
हो जाती हैं फिर से दोहरी

इक्कीसवीं सदी में उनकी दुनिया का विस्तार हुआ है
वे सभाओं मीटिंगों प्रदर्शनों में भाग लेती हैं
वे मंच से भाषण देती हैं, उड़ती हैं अंतरिक्ष में
हर जगह सवार होता है
घर उनकी पीठ पर
इस बोझ की इस कदर आदत हो गयी है उन्हें
इसे उतारते ही पाती हैं खुद को अधूरी

कभी कभार बिरले ही मिलती है कोई
ख़ाली होती है जिसकी पीठ
तन जाती हैं न जाने कितनी भृकुटियाँ
खाली पीठ स्त्री
अक्सर स्त्रियों को भी नहीं सुहातीं
आती है उनके चरित्र से संदेह की बू
कभी-कभी वे दे जाती हैं घनी ईर्ष्या भी

इस बोझ को उठाये उठाये
कब झुक जाती है उनकी रीढ़
उन्हें इल्म ही नहीं होता
वे भूल जाती हैं तन कर खड़ी होना
जब कभी ऐसी इच्छा जगती भी है
रीढ़ की हड्डी दे जाती है जवाब
या पीठ पर पड़ा बोझ
चिपक जाता है विक्रम के बेताल की तरह

और इसे अपनी नियति मान
झुक जाती हैं वे सदा के लिए।


श्रद्धांजलि / अश्विनी ‘सुकरात’

सड़क पर,
सरसों के खेत से,
जमें ये तम्बू,
हरियाली की चादर लपेट,
पौधों की तरह,
सर्दी गर्मी को झेलते,
पसीने से तरबतर,
किसान,
खेत की तरह,
सड़क पर भी डटे हुए,
अब
खुन-पसीनें में भी लगी है,
आग
चिंगारी उठकर हुई,
सुर्ख लाल,
जुल्म की हद पर,
सब जलकर होगा इसतरह, खाक,
पथराए नेत्रों से बुजूर्ग हलधर,
यह बात कह गये..
परिवर्तन तो आएगा,
आज सूरज डुब गया तो,
क्या?
कल फिर सबेरा लाएगा
कल फिर सबेरा लाएगा..

किसान आंदोलन के दौरान,
शहीद हुए किसानों को श्रद्धांजलि स्वरूप।


भावी पीढ़ियों के नाम / बर्तोल्त ब्रेख़्त

(अंग्रेज़ी से अनुवाद- राजेश चन्द्र)

सचमुच कितना अन्धेरा समय है
जिसमें जी रहा हूं मैं!
निष्कपटता अब एक अर्थहीन शब्द भर है।
एक सौम्य माथा परिचायक है
हृदय की कठोरता का।
वह जो हंस पा रहा है
तय है कि उसने नहीं सुनी हैं अब भी
दिल दहला देने वाली ख़बरें।

आह, यह कैसा समय है
जब पेड़ों के बारे में बतियाना भी
प्राय: एक जुर्म है
जबकि यह अन्याय के ख़िलाफ़ चुप रहने से कम नहीं।
और वह जो निकल पड़ता है
टहलने चुपचाप सड़क पर,
क्या वह चला नहीं गया है
अपने दोस्तों की पहुंच से बाहर?
मुसीबत जबकि ऐन सिर पर है?

यह सच है : मैं जीवित हूं अब भी
पर, मेरा यक़ीन करो,
यह सिर्फ़ एक दुर्घटना है।
कुछ भी कहां रह गया है, जो कर सके
भरण-पोषण के लिये मेरे दावे को सही?
यह एक संयोग भर है कि मैं बच गया
(यदि भाग्य छोड़ जाता मेरा साथ,
तो नहीं होता मैं।)

उन्होंने मुझसे कहा : खाओ और पीयो।
ख़ुश रहो कि तुम ऐसा कर सकते हो!
पर किस तरह मैं खा-पी सकता हूं
जब भूखों से छीना गया निवाला मेरा भोजन है
और मेरे गिलास में किसी प्यासे का पानी है?
और तब भी मैं खाता और पीता हूं।

मैं ख़ुशी-ख़ुशी बुद्धिमान हो गया होता।
प्राचीन पुस्तकों ने हमें बताया है
कि बुद्धिमानी है क्या :
दुनिया के खटराग से बचो
अपने थोड़े-से समय को भरपूर जीयो
डरो मत कभी किसी से
हिंसा कभी मत करो
बुराई के बदले अच्छाई करो,
इच्छाओं की पूर्ति नहीं बल्कि विस्मृति करो
ज्ञान के रास्ते खोजो।
मैं इनमें से कुछ भी न कर सका :
फिर भी जी रहा हूं मैं इस अन्धेरे समय में।

××××××××××××××××××

मैं शहरों में आ गया उपद्रव के दौर में
जब भूख ही भूख पसरी थी हर ओर।
मैं लोगों के बीच आया,
जब दौर विप्लव का था
और मैंने विद्रोह किया उनके साथ मिल कर।
सारा समय इसी में बीत गया
जितना भी मिला था इस पृथ्वी पर मुझे।

मैंने अपना भोजन अक्सर
मार-काट के बीच ही ग्रहण किया।
मौत की परछाइयां पड़ती ही रहीं मेरी नीन्द पर।
और जब मैंने प्यार किया,
पूरी तटस्थता से प्यार किया।
जब भी देखा प्रकृति की ओर,
पूरी अधीरता से देखा।
सारा समय इसी तरह बीत गया
जितना भी मिल पाया था इस पृथ्वी पर मुझे।

मेरे समय में सड़कें
दलदल की ओर ले जाती थीं।
भाषणों ने मुझे हत्यारे की निग़ाह में ला दिया था।
मैं जो कुछ भी कर सकता था,
वह एकदम नाकाफ़ी था।
पर मेरे बग़ैर शासक रह सकता था
कहीं अधिक निरापद।
ऐसी थी मेरी आशावादिता।
इस तरह वह समय बीत गया था
जितना मिला था इस पृथ्वी पर मुझे।

तुम, जो इस बाढ़ से उबरोगे,
जिसमें कि हम डूब रहे हैं,
सोचना,
जब भी बात करना हमारी कमज़ोरियों के बारे में
इस अन्धेरे समय के बारे में भी सोचना,
जिनकी वजह से उभर आयीं वे।

अपने जूतों से ज़्यादा देश बदलते आये हम
वर्ग-संग्राम में, नाउम्मीद
जब हर तरफ़ केवल अन्याय ही था
और प्रतिरोध नहीं था।

हमें केवल इतना ही मालूम था कि :
सड़ांध के प्रति घृणा भी
माथे की कठोरता बढ़ा देती है।
अन्याय के प्रति आक्रोश भी
बढ़ा देता है आवाज़ में कटुता।
आह, हम
जिन्होंने ख़्वाब देखा था
नेकी की बुनियाद रखने का,
अपने आपको भी नहीं बना सके नेक।
पर तुम, जब आख़िरकार
यह समय आ ही जाये तो याद रखना
कि आदमी अपने साथी की मदद
कर ही सकता है,
हमारे बारे में फ़ैसला करते हुए
बहुत अधिक सख़्ती मत बरतना।



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