आज़ादी का 75वां साल : किसको मिली आज़ादी, कौन हुआ कंगाल

बीते 74 वर्षों के दौरान जनता की मेहनत की लूट से पन्द्रह-बीस फीसदी धनपतियों की मौज बढ़ती गयी है जबकि जनता के हिस्से में भयंकर शोषण, उत्पीड़न, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, दमन व दंगे-फसाद आया है।

मेहनतकश जनता के पैरों में गुलामी की नई ज़ंजीरें

इस साल 15 अगस्त को ब्रिटिश गुलामी से आजादी का 75वां दिवस है। सत्ताधारियों द्वारा यह पूरा साल हीरक जयंती वर्ष के रूप में मानेगा। तब देश की आम मेहनतकश जनता को सोचना है कि वे किस बात का जश्न मनाए? आज़ादी के इन 74 सालों में उसे मिला क्या है? संघर्षों और अकूत कुर्बानियों के बाद जो अधिकार मिले भी थे उनका हश्र क्या है?

आज़ादी के जश्न और शोर-शराबे के बीच आइए हालात को देखें और मेहनतकश मज़दूरों-किसानों के लिए कुछ कार्यभार तय करें।

1947 की आज़ादी के वक़्त की एक तस्वीर

जनता की अकूत क़ुर्बानियों के दम पर विभाजन की त्रासदी के बीच 1947 में देश विदेशी ग़ुलामी से आज़ाद हो गया। लेकिन जो पूँजीपति वर्ग सत्‍ता में आया उसने साम्राज्‍यवाद से अपने रिश्‍ते नहीं तोड़े। उसने मिश्रित अर्थव्यवस्था के साथ पब्लिक सेक्‍टर पूँजीवाद का एक ढाँचा खड़ा किया जिसे नेहरू के “समाजवाद” का मॉडल कहा गया। यह देश की जनता की तबाही और मुट्ठीभर धनपतियों की समृद्धि का मॉडल साबित हुआ।

15 अगस्त, 1947 को भारत विदेशी कर्जे से पूरी तरह मुक्त ही नहीं था बल्कि उल्टे ब्रिटेन पर भारत का 16.12 करोड़ रुपये का कर्ज़ था। लेकिन आज भारत पर 40,000 अरब रुपये से भी अधिक का विदेशी कर्ज़ लदा हुआ है (स्रोत: रिज़र्व बैंक)।

74 सालों के दौरान ना केवल यह तस्वीर उलट गई, बल्कि भारत साम्राज्यवादियों के भारी कर्ज के बोझ तले दब गया है। हालत ये हैं कि नये विदेशी कर्ज़ों का लगभग 40 प्रतिशत तो सिर्फ़ पुराने कर्ज़ों का ब्याज भरने में ही चला जाता है। इतना ही नहीं, सरकार पर घरेलू कर्ज़ों का बोझ इतना अधिक है कि केन्द्र और राज्य सरकारों का लगभग आधा राजस्व कर्ज़ भरने में ही निकल जाता है। मोदी सरकार के आने के बाद इसमें और भी तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है।

आज़ादी के इन गुज़रे सालों में मेहनतकश को क्या मिला?

यह एक नंगी सच्चाई है कि बीते 74 वर्षों के दौरान जनता की मेहनत को लूटकर-निचोड़कर ऊपर के पन्द्रह-बीस प्रतिशत लोगों की सम्पत्ति और अय्याशियाँ बढ़ती गयी हैं जबकि जनता के हिस्से में भयंकर शोषण, लूट-खसोट, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, अपराध, दंगे-फसाद, आपसी कलह-विग्रह, अत्याचार, दमन और उत्पीड़न आया है।

नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली केंद्र सरकार के 7 सालों के दौरान देश की बहुसंख्यक आम जनता “अच्छे दिनों’’ के इन्तज़ार में रोज़ नयी तकलीफ़ें झेल रही है और जनता की गाढ़ी कमाई से बड़े पूँजीपतियों को तरह-तरह के तोहफ़े लुटाये जा रहे हैं। कोरोना महामारी और थोपी गई मनमानी पाबंदियों के कारण करोड़ों मेहनतकश जन और ग़रीबी व बेरोज़गारी में धकेल दी गई, महँगाई विकराल हो गई। जबकि मोदी सरकार के चहेते पूँजीपतियों की सम्पत्ति दोगुनी हो गयी।

मेहनतकश की बर्बादी और धनपती होते मालामाल

इन 74 वर्षों के दौरान देश की मेहनतकश करोड़ों मज़दूरों और किसानों की अथक मेहनत और उनके ख़ून-पसीने से कृषि और औद्योगिक, दोनों उत्पादनों में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन इस विकास का लाभ मुट्ठीभर मुनाफाखोर जमात को मिला और देश की व्यापक मेहनतकश आवाम के हिस्से गरीबी, बदहाली, बेकरी ही आई।

यह गौरतलब है कि अरबपतियों की तादाद के मामले में भारत दुनिया में तीसरे नम्बर पर पहुँच गया है। करोड़पतियों की संख्या में भी भारी बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन दूसरी ओर देश के ग़रीबों की संख्या में इससे कहीं तेज़ी से वृद्धि हुई है।

ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट के अनुसार कोरोना काल के लॉकडाउन में भी भारत के चन्द अरबपतियों की सम्पत्ति में 35% तक वृद्धि हुई है। सन् 2009 से अब तक इन अरबपतियों की सम्पत्ति में 90% बढ़ोत्तरी हो चुकी है, यानी पिछले 12 साल में इनकी दौलत लगभग दोगुनी हो गयी है।

दूसरी ओर, सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़, लगभग 30 प्रतिशत आबादी आज भी ग़रीबी रेखा के नीचे जीती है। लेकिन देश के प्रमुख अर्थशास्त्री यह साबित कर चुके हैं कि ग़रीबी रेखा का पैमाना सरासर ग़लत है और वास्तव में लगभग आधी आबादी ग़रीबी में जी रही है।

भारत दुनिया के सर्वाधिक गरीब मुल्कों में शामिल

आज मोदी राज में ग़रीबी, भुखमरी, दवा-इलाज की कमी और जीवन की गुणवत्ता के तमाम सूचकांकों पर भारत दुनिया के सबसे ग़रीब देशों के साथ बिल्कुल निचली पायदानों पर पहुँच गया है। भारत में औसत आयु चीन और श्रीलंका के मुकाबले 7 वर्ष कम और भूटान के मुकाबले भी 2 वर्ष कम है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार पाँच वर्ष से कम के बच्चों की मृत्यु दर चीन के मुकाबले तीन गुना, श्रीलंका के लगभग छह गुना और यहाँ तक कि बंगलादेश और नेपाल से भी ज़्यादा है।

“विकास” के दावों के बीच देश में ग़रीबों, बेरोजगारों, बेघर लोगों की तादाद लगातार बढ़ती गयी है। देश की लगभग 47 करोड़ मज़दूर आबादी में से 93 फीसदी (43 करोड़) मज़दूर असंगठित क्षेत्र में धकेल दिये गये हैं जहाँ वे बिना किसी क़ानूनी सुरक्षा के ग़ुलामों जैसी परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर हैं।

कोरोना का दौर : धनपती और अमीर आमजन रसातल में

पूँजीपतियों की पूँजी में बेतहाशा वृद्धि

कोरोना काल के बीते डेढ़ साल में अंबानी,अडाणी, प्रेमजी, नडार, लक्ष्मी मित्तल, राधाकिशन दमानी, साइरस पूनावाला सहित तमाम धनपतियों की संपत्ति में बेतहाशा तेजी आई है। ब्लूमबर्ग बिलिनेयर इंडेक्स में अंबानी और अडाणी भारत के पहले और दूसरे पायदान पर हैं।

कोरोना काल में अडाणी की संपत्ति में कुल 35.20 अरब डॉलर की तेजी आई है तो 19 अन्य रईसों की संपत्ति कुल 24.50 अरब डॉलर बढ़ी है। ब्लूमबर्ग बिलेनियर इंडेक्स के अनुसार 23 मई,2021 को मुकेश अंबानी संपत्ति 77 बिलियन डॉलर पर थी, जो और बढ़कर 83.2 बिलियन डॉलर पर पहुंच गई।

मेहनतकश जन के हिस्से गरीबी-बेरोजगारी

कोरोना वायरस संक्रमण ने साल 2020 के दौरान 23 करोड़ भारतीयों को गरीबी में धकेल दिया। इसकी सबसे ज्‍यादा मार युवाओं और महिलाओं पर पड़ी। इससे बेरोजगारी दर 23.5 प्रतिशत के रिकार्ड स्तर तक चली गयी थी। 20 फीसदी परिवारों की आमदनी अप्रैल, मई 2020 में पूरी तरह खत्म हो गई।

अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2020 से भारत में लगाए गए सख्त लॉकडाउन ने करीब 10 करोड़ लोगों से रोजगार छीन लिया। इनमें 15 फीसदी को साल खत्म होने तक काम नहीं मिला। जबकि करीब 47 फीसदी महिलाएं पाबंदियां के खत्म होने के बाद भी रोजगार हासिल नहीं कर पाईं।

वहीं, कोरोना वायरस की दूसरी लहर ने संकट को पहले से कहीं ज्‍यादा बढ़ा दिया है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआई) के अनुसार दूसरी लहर ने एक करोड़ लोगों का रोजगार छीन लिया है। उनके आंकलन के अनुसार, बेरोजगारी दर अप्रैल में 8 प्रतिशत तो वहीं मई में 12 प्रतिशत रही। मतलब इस दौरान करीब एक करोड़ लोग बेरोजगार हो गए।

सीएमआई के अनुसार कोरोना की पहली लहर में संगठित और असंगठित क्षेत्र मिलाकर करीब 12 करोड़ लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। युवाओं और महिलाओं को ज़्यादा बड़े स्तर पर बेरोज़गारी का सामना करना पड़ रहा है। मई 2021 में देशव्यापी बेरोज़गारी दर 11.9 फ़ीसदी तक पहुँच गयी। 20 वर्ष की आयु से 24 वर्ष की आयु वाले शहरी युवाओं में 37.9 प्रतिशत बेरोज़गार हैं।

दूसरी लहर ने करोड़ों माध्यम वर्गीय परिवारों को गरीब परिवारों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। प्यू रिसर्च सेंटर के आंकड़ों के मुताबिक पहली लहर में तीन करोड़ 20 लाख मिडिल क्लास लोगों को भी गरीब बना दिया।

45 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे  

एक रिपोर्ट के अनुसार 45 करोड़ भारतीय ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की मानव विकास रिपोर्ट में भारत 188 देशों की सूची में खिसककर अब 131वें स्थान पर पहुँच गया है। दक्षिण एशियाई देशों में यह तीसरे स्थान पर, श्रीलंका और मालदीव जैसे देशों से भी पीछे चला गया है। दुनिया के किसी भी हिस्से से अधिक, 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। एक तिहाई आबादी भूखी रहती है और यहाँ हर दूसरे बच्चे का वज़न सामान्य से कम है।

वैश्विक भूख सूचकांक के आधार पर बनी 119 देशों की सूची में भारत बांगलादेश से भी नीचे 100वें स्थान पर है। बेरोज़गारी की दर लगातार बढ़ती जा रही है। बेरोजगारी की भयवाहट को छुपने के लिए हर साल दो करोड़ रोज़गार देने का वादा करके सत्ता में आयी मोदी सरकार ने रोज़गार के आँकड़े जुटाने और जारी करने की व्यवस्था को ही 2018 में बन्द कर दिया।

एक-चौथाई अशिक्षित, शिक्षा का कॉर्पोरेटिकरण

आज़ादी के 74 वर्षों में तमाम सरकारें शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी जनता को मुहैया नहीं करा पायी हैं। 74 साल बाद भी देश के एक-चौथाई से ज़्यादा लोग अशिक्षित हैं। दुनिया का हर चौथा अशिक्षित व्यक्ति एक भारतीय है। ग्रामीण इलाक़ों में तो 36 प्रतिशत लोग आज भी पढ़ना-लिखना नहीं जानते। दक्षिण एशिया के ग़रीब मुल्क़ों में भी प्रौढ़ शिक्षा दर और युवा/बाल शिक्षा दर दोनों के लिहाज़ से भारत चौथे स्थान पर है।

करोड़ों बच्चे आज भी स्कूल नहीं जा पाते हैं। जो बच्चे जाते हैं, उनमें भी बड़ी संख्या में बच्चे कक्षा एक से आठवीं के बीच पढ़ाई छोड़ देते हैं। ज्यादातर सरकारी स्कूलों के पास ढंग के कमरे, डेस्क, पीने का पानी, शौचालय जैसी न्यूनतम सुविधाएँ भी नहीं हैं। इसके बावजूद सरकारें लगातार सरकारी स्कूलों को बन्द कर रही हैं। लाखों की संख्या में शिक्षकों के पद ख़ाली पड़े हुए हैं। शिक्षा मद में लगातार कटौतियाँ जारी हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों का शिक्षा पर ख़र्च 1991-92 में 4 प्रतिशत से घटकर 2021 में 3.1 प्रतिशत रह गया।

पिछले वर्षों के दौरान केंद्र व राज्य सरकारों का शिक्षा के निजीकरण और कॉरपोरेटिकरण पर जोर बढ़ता गया है। इस बीच कोरोना महामारी के दौर में एक बड़ा हमला शिक्षा क्षेत्र पर हुआ है। डेढ़ साल से स्कूल-कॉलेज बंद हैं या आधे-अधूरे तरीके से खुले हैं। ऑनलाइन शिक्षा के नाम पर बच्चों की सामूहिकता और पठन-पठन को सचेतन मटियामेट किया गया है।

इसी दौरान नई शिक्षा नीति के बहाने शिक्षा को कॉरपोरेट के हवाले करने के साथ भगवाकरण किया गया है। इससे एक तरफ तो शिक्षा को मुट्ठीभर अमीरजादों की बपौती बना दी गई है तो दूसरी तरफ आमजन के लिए अवैज्ञानिक व अतार्किक शिक्षा का प्रारूप थोपने का इंतेज़ाम कर दिया गया है।

दवा-इलाज से भी आमजन महरूम

आज़ादी के 74 वर्षों में बुनियादी सुविधा स्वास्थ्य भी जनता से दूर है। जो थोड़ी बहुत सुविधा मिली भी थी, वह भी मुनाफाखोरों के हवाले हो गई। कोरोना महामारी के दौरान भयावह अव्यवस्था स्वास्थ्य की हक़ीक़त का दर्पण है। भारत का स्वास्थ्य पर ख़र्च कम्बोडिया, म्यांमार, तोगो, सूडान, गिनी और बुरुंडी जैसे ग़रीब देशों से भी कम है।

संयुक्त राष्ट्र की एक मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार एक भारतीय बच्चा सामान्य तकनीकी इलाज के अभाव में पाँच वर्ष का होने से पहले ही मर जाता है। प्रसिद्ध मेडिकल पत्रिका ‘लैंसेट’ के एक अध्ययन के मुताबिक़, स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और लोगों तक उनकी पहुँच के मामले में भारत विश्व के 195 देशों में 145वें पायदान पर है।

पिछले दस वर्षों में स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का औसतन 1.1% से 1.5% तक ख़र्च किया। भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ख़र्च होने वाला जीडीपी का प्रतिशत पिछले 10 वर्ष से ज़्यादा समय से 1% के आसपास ही बना हुआ है। इलाज का लगभग 73% हिस्सा जनता को अपनी जेब से देना पड़ता है।

74 सालों की हक़ीक़त यह है कि भारत में 23% बीमार लोग इलाज का ख़र्च उठा ही नहीं सकते हैं। आज भी देश में 1456 लोगों पर 1 डॉक्टर है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 1000 लोगों पर 1 डॉक्टर होना चाहिए। गाँवों, छोटे क़स्बों में स्थिति और खराब है। 70 फ़ीसदी स्वास्थ्य सेवाओं का बुनियादी ढाँचा देश के 20 बड़े शहरों तक ही सीमित है। देशभर में 30 फ़ीसदी लोग प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं तक से वंचित हैं।

सरकारी आंकड़ां के मुताबिक 50 साल पहले 5 व्यक्तियों का परिवार एक साल में जितना अनाज खाता था, आज उससे 200 किलो कम खाता है। दाल, सब्जियों, दूध आदि की भयावह कीमत के बीच भोजन में विटामिन और प्रोटीन जैसे जरूरी पौष्टिक तत्वों की लगातार कमी होती गयी है।

मिले अधिकार भी छिन रहे, सरकारी संपत्तियाँ बिक रहीं

मजदूरों को बंधुआ बनाने और मुनाफे की लूट मनमाना करने के लिए मोदी सरकार ने लंबे संघर्षों के दौरान हासिल 29 श्रम क़ानूनों को ख़त्म करके 4 श्रम संहिताओं में बदल दिया है। निजीकरण-छँटनी-बंदी-तालाबंदी तेज हो गई है। स्थाई रोजगार की जगह फिक्स टर्म व नीम ट्रेनी ले रहा है।

मोदी सरकार ने खेती-किसानी को पूरी तरह मुनाफाखोर कॉरपोरेट के हवाले करने के लिए तीन कृषि क़ानून थोप दिए हैं। जनता के खून-पसीने से खड़े सार्वजनिक व सरकारी उद्यमों-संस्थाओं को औने-पौने दामों में अड़ानियों-अंबनियों को बेच जा रहा है।

जनता की तकलीफों-तबहियों का दौर

कुल मिलाकर आज़ादी के इन 74 सालों के सफ़र ने देश की आम जनता पर तकलीफ़ों और तबाहियों का कहर बरपा किया है वहीं, ग़रीबी के इस महासागर में ऊपर की पन्द्रह से बीस फ़ीसदी आबादी के लिए विलासिता और हर क़िस्म के ऐशो-आराम से भरपूर साजो-समान हैं।

एक तरफ अस्सी प्रतिशत आबादी अभावों और दुःखों के अँधेरे में दिन काट रही है, दूसरी ओर पूँजीपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, अफसरों, नेताओं और बहुत बड़े परजीवी मध्य वर्ग के लिए जगमगाते मॉल, हर क़िस्म की सुख-सुविधाओं से लैस अपार्टमेण्ट और कोठियाँ, फ़ाइव स्टार अस्पताल खुल रहे हैं। धनपतियों के लिए विलासिता के टापू खड़े हो रहे हैं।

दूसरी ओर शासन अपने दमन तंत्र को मज़बूत बनाने में लगा हुआ है। आज़ाद भारत में देशी सरकार की गोलियों ने जनता का जितना ख़ून बहाया है उतना तो 200 वर्षों के ब्रिटिश राज में भी नहीं बहा होगा। मीसा, पोटा से लेकर यूएपीए जैसे दमनकारी क़ानून बनते रहे। विरोध के हर आवाज़ को कुचलने के लिए मोदी सरकार पूरी तरह से मुस्तैद है।

जाति, धर्म, भाषा, इलाक़ा आदि-आदि के नाम पर लगातार टुकड़ों में बाँटने की साज़िशें जारी हैं। लोगों को सोचने न दिया जाये, इसके लिए टीवी, अख़बार, फ़िल्में और पूरा मीडिया लगातार झूठ, अन्धविश्वास, जादू-टोने, पिछड़े मूल्यों-मान्यताओं, अश्लीलता और अज्ञानता परोसने में लगा हुआ है।

किसके लिए है यह जश्न?

साफ है कि पूरा सत्ताधारी वर्ग और पिछले 74 सालों के दौरान पैदा हुए धनपती के लिए यह आज़ादी का असली जश्न है। साथ ही आज़ादी के जश्न को शोर सत्ता पर काबिज वे ताक़तें मचा रही हैं जिन्होंने ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ आवाज़ तक नहीं उठाईं, क्रान्तिकारियों की मुखबिरी की और आज़ादी की लड़ाई को कमज़ोर करने के लिए उस समय भी हिन्दू-मुस्लिम का खेल खेलती रही हैं।

आज़ादी के इन गुज़रे सालों में जनता की मेहनत को लूट-निचोड़कर ऊपर के पन्द्रह-बीस फीसदी लुटेरी जमात की सम्पत्ति और अय्याशियाँ बढ़ती गयी हैं जबकि जनता के हिस्से में भयंकर शोषण, लूट-खसोट, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, अपराध, दंगे, आपसी कलह-विग्रह, अत्याचार, दमन और उत्पीड़न ही आया है।

कुलमिलकर 1947 में मिली आधी-अधूरी आजादी भी अब छीनी जा रही है। देश की मेहनतकश जनता के पैरों में गुलामी की नई ज़ंजीरें जकड़ रही हैं।

मेहनतकशको आज़ादी के नए जंग की तैयारी में जुटना होगा!

ऐसे में मेहनतकशों को अपनी सच्ची और मुकम्मल आज़ादी के लिए लड़ाई की तैयारियों में जुटना होगा। हर पेट को रोटी, हर हाथ को काम के साथ अमन-चैन वाले उस समाज के निर्माण का रास्ता साफ करना होगा जहाँ उत्पादन बाजार और मुनाफे की जगह समाज की जरूरतों के मुताबिक होगी और आदमी द्वारा आदमी के शोषण का खात्मा होगा।

ऐसी आज़ादी जिसका सपना भगतसिंह और तमाम क्रान्तिकारी शहीदों ने देखा था और कुर्बानियाँ दी थीं। ऐसी आज़ादी जो पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के शिकंजे से इस देश को आज़ाद करेगी।

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