कविताएं इस सप्ताह : मैदान पर पत्तियां सूख रही हैं !

भूख / कुमार विश्वबंधु

भूख जरूरी है
खाना खाने के लिए
खाना जरूरी है
जिन्दा रहने के लिए

भले जिन्दा रहना जरूरी न हो
सब के लिए,
पर जो जिन्दा हैं
उनके लिए
हर हाल में खाना जरूरी है
चाहे रोटी खाएं
चाहे पुलिस कि गोलियां !

भूख आती थी
वह उसे मार देता था
भूख जिन्दा हो जाती थी
वह फिर उसे मार देता था
भूख लौट-लौट कर आ जाती थी
वह उसे उलट-उलट कर मार देता था
एक दिन भूख दबे पांव आई
और..
उसे खा गई !!

जो भूखे थे
वे सोच रहे थे रोटी के बारे में,
जिनके पेट भरे थे
वे भूख पर कर रहे थे बातचीत
गढ़ रहे थे सिद्धांत
ख़ोज रहे थे सूत्र ….

कुछ और लोग भी थे सभा में
जिन्हौंने खा लिया था
आवश्यकता से अधिक खाना
और एक दूसरे से दबी जबान में
पूछ रहे थे
दवाईयों के नाम….

सीरियल किलर की तरह भूख
एक के बाद एक
कर रही है हत्याएं
और घूम रही है खुले आम यहां-वहां
देश भर में
लोकतंत्र के छुट्टे सांड की तरह …!!


शम्बूक का कटा सिर / ओम प्रकाश वाल्मीकि

जब भी मैंने
किसी घने वृक्ष की छाँव में बैठकर
घड़ी भर सुस्‍ता लेना चाहा
मेरे कानों में
भयानक चीत्‍कारें गूँजने लगी
जैसे हर एक टहनी पर
लटकी हो लाखों लाशें
ज़मीन पर पड़ा हो शंबूक का कटा सिर ।

मैं उठकर भागना चाहता हूँ
शंबूक का सिर मेरा रास्‍ता रोक लेता है
चीख़-चीख़कर कहता है–
युगों-युगों से पेड़ पर लटका हूँ
बार-बार राम ने मेरी हत्‍या की है ।

मेरे शब्‍द पंख कटे पक्षी की तरह
तड़प उठते हैं–
तुम अकेले नहीं मारे गए तपस्‍वी
यहाँ तो हर रोज़ मारे जाते हैं असंख्‍य लोग;
जिनकी सिसकियाँ घुटकर रह जाती है
अँधेरे की काली पर्तों में

यहाँ गली-गली में
राम है
शंबूक है
द्रोण है
एकलव्‍य है
फिर भी सब ख़ामोश हैं
कहीं कुछ है
जो बंद कमरों से उठते क्रंदन को
बाहर नहीं आने देता
कर देता है
रक्‍त से सनी उँगलियों को महिमा-मंडित ।

शंबूक ! तुम्‍हारा रक्‍त ज़मीन के अंदर
समा गया है जो किसी भी दिन
फूटकर बाहर आएगा
ज्‍वालामुखी बनकर !


पोट्रेट / जयंत परमार

अनुवाद: डॉ जी के वणकर

मैं अच्छे से गिन सकता हूँ
उसकी पसलियाँ।
गली-कूचों में झाड़ू लगते घिस गयी है
उसकी रीढ़ की हड्डी।
दफ़न हो गए है कूड़े के ढेर तले
उसके सुनहरे स्वप्न।
ताउम्र वह रहा अर्धनग्न,
बल्कि उसे रखा गया अर्धनग्न
लेकिन किसी ने कहा नहीं उसे
हाफ नेकेड मेन।
उसकी जिंदगी की कमीज़ पर लगीं हैं
अत्यचारों की बेशुमार थिगलियाँ।
जीते जी वह मरा कितनी बार
गिनती करना चाहूं तो
मुझे कितने जनम लेने पड़े!
आज तक वह खाता रहा है
लातों की मार,
चुपचाप सहता रहा है जुल्म।
लेकिन आज मुझे आ रही है
उसके पसीने से
बारूद की गंध।


प्रतिरूपों की खोज / साहिल परमार

तू खीचड़ी पकाने के लिए
दाल-चावल बिनती है
या आटा पीसने के लिए
गेंहू बिनती है
इतनी चौकसी से
मैं लिखने बैठा हूँ कविता
प्रिय तेरे लिए.

सोचता हूँ तेरे चेहरे को
कौनसी उपमा दूं ?
बहुत काम आ चुका है चाँद –
अष्टमी का भी और पूनम का भी.
फूल भी ताजा नहीं रहा है एक भी.
फ़िर, मुझे तो ढूँढने हैं ऐसे शब्द
जिसे तू और मैं पहचानते हों,
जीते हों
और इस लिए
मैं कहूँगा कि
मिर्च पिसने के दस्ते जैसा
भले ही लम्बगोल हो तेरा चेहरा
या फ़िर
किसी अनाड़ी कारीगर ने
टांक-टांक कर ठोंक- ठोंक कर
बनाये हुए खरल जैसा
चेचक के दाग से भरा भले हो तेरा चेहरा
मैं इसे चाहता हूँ.
चसो-चस चोखता हूँ.

चाय बनाते वक्त
जितनी चौकसी तू बरतती है
चाय में चिनी के बदले
पिसा हुआ नमक न डल जाये इसकी
उतनी ही चौकसी में बरतूँगा
प्रिय
तेरे बारे में यह कविता लिखते हुए.
इसीलिये मैं तेरे दांतों को
अनार की कलि की उपमा
नहीं दे सकूंगा.
मैं तो कहूँगा कि
मक्के के भुट्टे में
असमान रूप से चिपके
छोटे बड़े दानों की तरह है तेरे दाँत.

तेरी आंखो को
मैं हिरनी के नैन
या मस्ती के जाम
नहीं कह सकूंगा.
मैं तो कहूँगा कि
बचपन में
चोट-बिलीस खेलते वक्त
दीवार से टकराकर
दो टुकड़ों में बंट जाती
गोटी के
चमकीले टुकड़ों जैसी हैं
तेरी आँखें.

मेरे पाँच-पाँच बच्चों को
जन्म देकर
बिनसी हुई तेरी देह को
मैं बरस चुकी बदली
या कुम्हलाया हुआ फूल
या आम की सोखी गयी गुठली तो
हरगिज न कहूँगा.
मैं कहूँगा तो यही कि
पटेलों के बिगड़ैल लडकों ने
झाड़ी हुई बैरी जैसी
तेरी देह
अब भी देती है मुझे मिठास
रंग-रोगान थोड़े थोड़े उखड़ी हुई
पुरानी गुडिया भी
छोटे बच्चे को
दे सकती है इतना आनंद.

तेरे रंग को
मैं कृष्ण की तरह काला
या नीले आकाश जैसा तो
हरगिज न कह सकूंगा.
मैं तो कहूँगा कि
माँ ने सिगड़ी खाली करते वक्त
एकदम नीचे से
निकलती हुई खाक जैसा है तेरा रंग
या फ़िर
माँ ने खरीदे हुए
कम कीमत के गुड़ की वजह से
चखने में तो बराबर
पर दिखने में ज़रा श्याम
हलुए जैसा है तेरा रंग.

तेरे स्वभाव को
मैं गुलाब जैसा गुलाबी
या बर्फी जैसा मीठा तो
कह नहीं सकूंगा.
मैं तो कहूँगा कि
तेरा स्वभाव है
दारु पीते समय
खाई जाती चानी जैसा
या फ़िर ठंडी छास रगडकर
मौज से खाए जाते
डूवे जैसा.

तेरे प्रेम को मैं गंगा की मौज
या जमना की धारा तो
हरगिज न कह सकूंगा.
मैं तो कहूँगा कि
जाड़े की भोर को
गर्म-गर्म हवा के साथ
उतनी ही खलबली से
धंसते हुए
म्यूनिसिपलिटी के नल के
खुरदरे पानी जैसा
गर्माहट भरा
और ताजगीदाता है तेरा प्रेम
या फ़िर
मध्य रात्रि की मिठास को
आहिस्ता आहिस्ता
आम की तरह
नज़ाकत से घौलते हाथ जैसा
नरम और देखभाल भरा है तेरा प्रेम.

हाँ प्रिय, मैं लिखता हूँ तेरे बारे में कविता
इसलिए रखूँगा इतना धैर्य
जितना धैर्य तू
रोहू मच्छी की खाल को
हटाते वक्त रखती है
या फ़िर ठंडी सुबह में
भूसे की सिगड़ी पर
बाजरी की रोटी सेंकते वक्त रखती है.

हालांकि ऐसा है फ़िर भी
प्रलंब समागम से जैसे
अकुला जाती है तू
वैसे ही मैं भी
अकुला गया हूँ
यह कविता लिखते वक्त
और फ़िर
पानी ज़रा ज्यादा ड़ाल दिया गया हो
और सोरबा
ज़रा ज्यादा हो गया हो
तो भी
तू उतार देती है
कभी उतावली से
चूल्हे पर चढ़ती हुई तरकारी
बस उतनी ही उतावली से
मैं रख देता हूँ
भावक के आगे
प्रिय
तेरे बारे में लिखी गयी
यह कविता.


मैदान पर पत्तियां सूख रही हैं / येहूदा आमीखाई

अनुवाद : अशोक पांडे

आदमी के पास इतना समय नहीं होता
कि हरेक चीज़ के वास्ते समय हो सके
उसके पास पर्याप्त मौसम नहीं होते
कि हर उद्देश्य के लिए कोई मौसम हो

आदमी के पास समय नहीं होता
जब वह खो देता है वह ढूंढता है
जब वह पा लेता है, भूल जाता है
जब वह भूलता है वह प्यार करता है
जब वह प्यार करता है वह भूलना शुरू करता है

और उस की आत्मा बहुत अनुभवी और पेशेवर है
फकत उसकी देह ही बनी रहती है शौकिया
वह कोशिशें करता है,
हारता है
भटकता है
कुछ नहीं सीखता –
अपनी खुशियों और पीड़ाओं में
धुत्त और अंधा

वह शरद में मरेगा जैसे पत्तियां मरती हैं सिकुड़ी हुईं
और भरा होगा अपने आप से और मीठे से

मैदान पर पत्तियां सूख रही हैं
नंगी शाखें अभी से उस जगह की ओर इशारा कर रही हैं
जहां हर चीज़ के लिए समय है।



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