इस सप्ताह की कविता : गरीब अब गहरे जाल में फंस गए हैं !

यही मौका है / नबारुण भट्टाचार्य

(अनुवाद – लाल्टू)

यही मौका है, हवा का रुख है
ग़रीबों को भगाने का
मज़ा आ गया, भगाओ ग़रीबों को
कनस्तर पीट कर जानवरों को भगाते हैं जैसे
हवा चल पड़ी है
ग़रीब अब सही फँसे हैं
राक्षस की फूँक से उनकी झोपड़ी उड़ जा रही है
पैरों तले सरकती ज़मीन
और तेज़ी से गायब हो रही है
मज़ा ले-लेकर यह मंज़र भोगने का
यही वक्त तय है
इतिहास का सीरियल चल रहा है
वक्त पैसा है और यही वक्त है
ग़रीबों को लूट मारने का

ग़रीब अब गहरे जाल में फँस गए हैं
वे नहीं जानते कि उनके साथ लेनिन है या लोकनाथ
वे नहीं जानते कि गोली चलेगी या नहीं!
वे नहीं जानते कि गाँव-शहर में कोई उन्हें नहीं चाहता
इतना न-जानना बुखार का चढ़ना है
जब इंसान तो क्या, घर-बार, बर्तन-बाटी
सब तितली बन उड़ जाते हैं
यही ग़रीब भगाने का वक्त कहलाता है
कवियों ने ग़रीबों का साथ छोड़ दिया है
उन पर कोई कविता नहीं लिख रहा
उनकी शक्ल देखने पर पैर जल जाते हैं
हवा चल पड़ी है, यही मौका है
ग़रीबों को भगाने का
कनस्तर पीट कर जानवरों को भगाते जैसे
मौका है ग़रीबों को भगाने का
यही मौका है, हवा चल पड़ी है।


साल के सबसे बड़े दिन पर / राम चन्द्र शुक्ल

“लहर आ रही है ?
या पैदा की जा रही ?
खरीद लिए गये मीडिया
के माध्यम से,
एक पूरे देश को
मानसिक तौर गुलाम
व बीमार बनाकर।

जनता से कहा जा रहा है-
“दो गज की दूरी,
मास्क है जरूरी,
और खुद,
गलबहियाँ की जा
रही हैं यारों से,
जिन्होंने राजगद्दी पर
बिठाया है अपनी कठपुतलियों को,
वे ब्याज सहित
कीमत क्यों नही वसूल करेंगे।

वे छिप कर बैठे हैं
जाकर लंदन व पेरिस में,
पर कठपुतलियों की डोर
तो है उन्ही के हाथों में।

वे अपने काले धन को
सफेद बना रहे हैं,
वे लंदन होकर
स्विट्जरलैंड भी जा रहे हैं,
जहाँ पहुँच रही है देश की दौलत।

वहां वे भी पहुँच रहे हैं,
वे “सवा सौं” करोड़
लोगों की
जिंदगी से खेल रहे हैं।

और उनकी कठपुतलियां
जनता को मुंह व नाक बांध
घरों के भीतर रहने
को मजबूर कर रही हैं,
हर घंटे सेनेटाइजर
व स्प्रिट हाथों पर
मलने को कह रहे हैं।

यह सब वे
किससे कह रहे हैं ?
क्या देश के मजदूर
व किसानों से ?
वह तो सुबह मुंह-अंधेरे से
शाम को अंधेरा होने तक,
जिंदगी के कोल्हू में पिरा रहता है,
उसे न तो हाथ मलने की फुर्सत है
और न ही मुंह व नाक बांध
घर में घुसकर बैठने की।

महाकवि निराला के शब्दों में-

“चूस लिया है उसका सार,
हाड़ मात्र ही है आधार।”


स्वप्निल श्रीवास्तव की दो कविताएं

1.

अगर आप जिंदादिल नहीं हैं
तो सूँस या घड़ियाल हैं
आपके भीतर जंगल में रहने
की भरपूर योग्यता है

आप अपनी अलग दुनिया बसाइये
आप इस संसार में रहने के
काबिल नही हैं
वानप्रस्थ ही आपका सही
रास्ता है

आप हँसते कम रोते ज्यादा हैं
घड़ियाल महाशय
आपकी मनहूसियत से हम
थक चुके हैं

यह क्या दरियाई घोड़े की तरह
शक्ल बना रखी है
कि देखकर दिमाग माठा
हो जाय

जब तक आप जंगलियों के बीच
रहेंगे आपकी यही हालत होगी
आपका आदमी होना कठिन
हो जाएगा


2.

अमीर लोग चुप नही बैठते
कुछ न कुछ चुभलाते
रहते हैं
हम सोचते हैं कि कोई लज़ीज़
चीज़ है उनके मुंह के भीतर

नही !
वह हमारी जंगल और जमीन का
कौर है जिसे वे अपने स्वाद में
उतार रहे हैं

देश के भविष्य -पर आयोजित
सेमिनार में उन्हें इस मुद्रा में
देखा था

यदा कदा वे हमारी तरफ देख
लेते थे और हम डर जाते थे
कि कहीं वे अपना स्वाद न बदलने
लग जाय

ऐसे डरावने लोग दिखने में
सभ्य दिखते है लेकिन अंदर से
बर्बर होते है

यह उस पहाड़ से पूछिए
जिसे खनिज की खोज में
उन्होंने तोड़ डाला था

या बेघर आदिवासियों से तस्दीक
करिए जो अपने देश में ही शरणार्थी
बन चुके हैं

अमीर लोगो की तरफ सारी
दुनिया है लेकिन जिनकी दुनिया
उजड़ गयी है उसकी तरफ कोई
नही है

मैं सच कह रहा हूँ न
वजीरे -आजम ?



About Post Author

भूली-बिसरी ख़बरे