कविताएँ इस सप्ताह : वे इसी पृथ्वी पर हैं !

वे इसी पृथ्वी पर हैं / भगवत रावत

इस पृथ्वी पर कहीं न कहीं कुछ न कुछ लोग हैं जरूर
जो इस पृथ्वी को अपनी पीठ पर
कच्छपों की तरह धारण किए हुए हैं
बचाए हुए हैं उसे
अपने ही नरक में डूबने से

वे लोग हैं और बेहद नामालूम घरों में रहते हैं
इतने नामालूम कि कोई उनका पता
ठीक-ठीक बता नहीं सकता

उनके अपने नाम हैं लेकिन वे
इतने साधारण और इतने आमफहम हैं
कि किसी को उनके नाम
सही-सही याद नहीं रहते

उनके अपने चेहरे हैं लेकिन वे
एक दूसरे में इतने घुले-मिले रहते हैं
कि कोई उन्हें देखते ही पहचान नहीं पाता

वे हैं, और इसी पृथ्वी पर हैं
और यह पृथ्वी उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है

और सबसे मजेदार बात तो यह है कि उन्हें
रत्ती भर यह अंदेशा नहीं
कि उन्हीं की पीठ पर
टिकी हुई यह पृथ्वी।


द्वंद्ववाद का औजार / संजीव

गहन तम और
इसकी छाया का बोध
जब तब हृदय में आया
पर समां न पाया
जीवन के द्वंदवादी औजार
ने
सदैव इसको हराया
खुद को
अपने
और
समाज
के समक्ष
कातर व कायर
होने से बचाया।


देखो राजा नंगा है / डा० शांति यादव

कब्र खोदती जहाँ बेटियाँ
लाशें ढोती गंगा है
कौन कहेगा आज शहर में
देखो राजा नंगा है !

दवा,बेड और रेमडेसिवर
सब दल्ले के पाले में,
कफन बेचने का धंधा भी
चलता रहा उजाले में।
अस्पताल में चीरहरण है
श्मशानों में पंगा है ,
कौन कहेगा आज शहर में
देखो राजा नंगा है!

बालू ढोते एंबुलेंस हैं
ईंट उठाते स्ट्रेचर,
कचरे की गाड़ी में मुर्दे
छोड़ रहे हैं मुर्दाघर ।
राष्ट्रद्रोह किसका है जाने
किसके सिर पर फंदा है,
कौन कहेगा आज हर में
देखो राजा नंगा है !

कई गुल्लकें टूटीं ,कितनी
एफ डी गई उम्मीद में
आ जाएंगे दिन अच्छे
दीवाली तक या ईद में !
किसे पता किस बंद तिजोरी
पीएम केयर्स का चंदा है,
कौन कहेगा आज शहर में
देखो राजा नंगा है !

सेंट्रल विस्टा पर निसार
सिंहासन ये बतलाए तो,
इन्द्रधनुष क्या मुल्क में अब भी
पहले सा सतरंगा है !


महादेव / हूबनाथ

सती की लाश
कंधे पर लादे
कब तक भटकोगे
महादेव!

बहुत भीड़ है
मणिकर्णिका में

पतितपावनी जाह्नवी की
प्रदूषित धार में
मरी मछलियों-सी बहती
अपार लाशों के बीच
विसर्जित करो
मृत देह सती की

जान बचाकर निकलो
धूर्जटि!

जाओ देखो
कुटुंब में शेष हैं कितने
और कितने होने हैं
विसर्जित

यह तांडव
आपके बस का नहीं है
महाकालेश्वर!

असहाय टिके घुटनों
और पराजित प्रजाओं के
देवता अमर नहीं होते
महादेव!


डरो कि… / आशीष यादव

डरो कि
मेहतर
जिस टोकरी में उठाता है
सड़ांध कूड़ा
एक दिन
दफ़ना देगा
उसी टोकरी में
सड़ी गली बास मारती
पूंजीवादी व्यवस्था को
जिसमें टोकरी भर भी स्थान नहीं है
उस मेहतर के लिए

डरो कि
बंकिया डोम
जला देता है
अनगिनत मूर्दे श्मशान पर
एक दिन
जला देगा
तिजोरियों में मृतप्राय
सोने के सिक्कों और नोटो को

डरो कि
लोहार
बनाता है
मजबूत लोहे का दरवाजा
भवनों और राजमहलों के लिए
एक दिन
बनाने लगेगा लोहे की बंदूके और तलवारें

डरो कि
बुढ़ा किसान
जोत देता है
सैकड़ों एकड़ भूमि
सींचता है पसीने से और लहलहा उठती हैं फसलें
एक दिन
जोत देगा
इन्हीं लहलहाती फसलों को

डरो
उन सभी कामगारों से
जो तुमसे डरना छोड़
लड़ना शुरू कर देंगे
तो क्या होगा?



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