इस सप्ताह : रवींद्र नाथ ठाकुर की कविताएं!

(जन्म- 7 मई 1861, निधन- 7 अगस्त 1941)

तेरा आह्वान सुन कोई ना आए / रवींद्र नाथ ठाकुर

तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो तू चल अकेला,
चल अकेला, चल अकेला, चल तू अकेला!
तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो चल तू अकेला,
जब सबके मुंह पे पाश..
ओरे ओरे ओ अभागी! सबके मुंह पे पाश,
हर कोई मुंह मोड़के बैठे, हर कोई डर जाय!
तब भी तू दिल खोलके, अरे! जोश में आकर,
मनका गाना गूंज तू अकेला!
जब हर कोई वापस जाय..
ओरे ओरे ओ अभागी! हर कोई बापस जाय..
कानन-कूचकी बेला पर सब कोने में छिप जाय…


अनसुनी करके तेरी बात / रवींद्र नाथ ठाकुर

अनसुनी करके तेरी बात
न दे जो कोई तेरा साथ
तो तुही कसकर अपनी कमर
अकेला बढ़ चल आगे रे–
अरे ओ पथिक अभागे रे ।
देखकर तुझे मिलन की बेर
सभी जो लें अपने मुख फेर
न दो बातें भी कोई क रे
सभय हो तेरे आगे रे–
अरे ओ पथिक अभागे रे ।
तो अकेला ही तू जी खोल
सुरीले मन मुरली के बोल
अकेला गा, अकेला सुन ।
अरे ओ पथिक अभागे रे
अकेला ही चल आगे रे ।
जायँ जो तुझे अकेला छोड़
न देखें मुड़कर तेरी ओर
बोझ ले अपना जब बढ़ चले
गहन पथ में तू आगे रे–
अरे ओ पथिक अभागे रे ।

पिंजरे की चिड़िया थी..
पिंजरे की चिड़िया थी सोने के पिंजरे में
वन कि चिड़िया थी वन में
एक दिन हुआ दोनों का सामना
क्या था विधाता के मन में
वन की चिड़िया कहे सुन पिंजरे की चिड़िया रे
वन में उड़ें दोनों मिलकर
पिंजरे की चिड़िया कहे वन की चिड़िया रे
पिंजरे में रहना बड़ा सुखकर
वन की चिड़िया कहे ना…
मैं पिंजरे में क़ैद रहूँ क्योंकर
पिंजरे की चिड़िया कहे हाय
निकलूँ मैं कैसे पिंजरा तोड़कर
वन की चिड़िया गाए पिंजरे के बाहर बैठे
वन के मनोहर गीत
पिंजरे की चिड़िया गाए रटाए हुए जितने
दोहा और कविता के रीत
वन की चिड़िया कहे पिंजरे की चिड़िया से
गाओ तुम भी वनगीत
पिंजरे की चिड़िया कहे सुन वन की चिड़िया रे
कुछ दोहे तुम भी लो सीख
वन की चिड़िया कहे ना ….
तेरे सिखाए गीत मैं ना गाऊँ
पिंजरे की चिड़िया कहे हाय!
मैं कैसे वनगीत गाऊँ
वन की चिड़िया कहे नभ का रंग है नीला
उड़ने में कहीं नहीं है बाधा
पिंजरे की चिड़िया कहे पिंजरा है सुरक्षित
रहना है सुखकर ज़्यादा
वन की चिड़िया कहे अपने को खोल दो
बादल के बीच, फिर देखो
पिंजरे की चिड़िया कहे अपने को बाँधकर
कोने में बैठो, फिर देखो


अरे भीरु, कुछ तेरे ऊपर, नहीं भुवन का भार / रवींद्र नाथ ठाकुर

अरे भीरु, कुछ तेरे ऊपर, नहीं भुवन का भार
इस नैया का और खिवैया, वही करेगा पार ।
आया है तूफ़ान अगर तो भला तुझे क्या आर
चिन्ता का क्या काम चैन से देख तरंग-विहार ।
गहन रात आई, आने दे, होने दे अंधियार–
इस नैया का और खिवैया वही करेगा पार ।
पश्चिम में तू देख रहा है मेघावृत आकाश
अरे पूर्व में देख न उज्ज्वल ताराओं का हास ।
साथी ये रे, हैं सब “तेरे”, इसी लिए, अनजान
समझ रहा क्या पायेंगे ये तेरे ही बल त्राण ।
वह प्रचण्ड अंधड़ आयेगा,
काँपेगा दिल, मच जायेगा भीषण हाहाकार–
इस नैया का और खिवैया यही करेगा पार ।


जो गए उन्हें जाने दो / रवींद्र नाथ ठाकुर

जो गए उन्हें जाने दो
तुम जाना ना, मत जाना.
बाकी है तुमको अब भी
वर्षा का गान सुनाना.
हैं बंद द्वार घर-घर के, अँधियारा रात का छाया
वन के अंचल में चंचल, है पवन चला अकुलाया.
बुझ गए दीप, बुझने दो, तुम अपना हाथ बढ़ाना,
वह परस तनिक रख जाना.
जब गान सुनाऊं अपना, तुम उससे ताल मिलाना.
हाथों के कंकन अपने उस सुर में जरा बिठाना.
सरिता के छल-छल जल में, ज्यों झर-झर झरती वर्षा,
तुम वैसे उन्हें बजाना.


इस महा विश्व में / रवींद्र नाथ ठाकुर

इस महा विश्व में
चलता है यंत्रणा का चक्र-घूर्ण,
होते रहते है ग्रह-तारा चूर्ण।
उत्क्षिप्त स्फुलिंग सब
दिशा विदिशाओं में अस्तित्व की वेदना को
प्रलय दुःख के रेणु जाल में
व्याप्त करने को दौड़ते फिरते हैं प्रचण्ड आवेग से।
पीड़न की यन्त्रशाला में
चेतना के उद्दीप्त प्रांगण में
कहाँ शल्य शूल हो रहे झंकृत,
कहाँ क्षत-रक्त हो रहा उत्सारित ?
मनुष्य की क्षुद्र देह,
यन्त्रणा की शक्ति उसकी कैसी दुःसीम है।
सृष्टि और प्रलय की सभा में
उसके वह्निरस पात्र ने
किसलिए योग दिया विश्व के भैरवी चक्र में,
विधाता की प्रचण्ड मत्तता-
इस देह के मृत् भाण्ड को भरकर
रक्त वर्ण प्रलाप के अश्रु-स्रोत करती क्यों विप्लावित?
प्रतिक्षण अन्तहीन मूल्य दिया उसे
मानव की दुर्जय चेतना ने,
देह-दुःख होमानल में
जिस अर्ध्य की दी आहूति उसने-
ज्योतिष्क की तपस्या में
उसकी क्या तुलना है कहीं ?
ऐसी अपराजित-वीर्य की सम्पदा,
ऐसी निर्भीक सहिष्णुता,
ऐसी उपेक्षा मरण की
ऐसी उसकी जय यात्रा
वह्नि -शय्या रोंदकर पग तले
दुःख सीमान्त की खोज में
नाम हीन ज्वालामय किस तीर्थ के लिए है
साथ-साथ प्रति पथ में प्रति पद में
ऐसा सेवा का उत्स आग्नेय गहृर भेदकर
अनन्त प्रेम का पाथेय?



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