दिल्ली हाईकोर्ट से पिंजरा तोड़ एक्टिविस्ट नताशा नरवाल को अंतरिम जमानत

जेएनयू की पीएच.डी. शोधार्थी और पिंजरा तोड़ की एक्टिविस्ट नताशा नरवाल जो दिल्ली नॉर्थ ईस्ट में एनआरसी और नागरिकता कानून संशोधन का विरोध करने पर झूठे (UAPA) मामलों में जेल में बन्द हैं, को दिल्ली उच्च न्यायालय ने आज 21 दिनों के लिए अंतरिम जमानत दे दी।

कल नताशा के पिता महावीर नरवाल का कोविड से से हरियाणा के रोहतक जिले में एक अस्पताल में निधन हो गया था। नताशा ने शनिवार को अपने पिता से मिलने के लिए अंतरिम जमानत की अर्जी लगाई थी जिस पर आज सुनवाई हुई।

नताशा के पिता की मौत के बाद उनके वकील ने तत्काल सुनवाई की अपील लगाई थी जिस पर दिल्ली हाईकोर्ट के दो जजों की बेंच ने 50 हजार के निजी मुचलके पर 3 सप्ताह की अंतरिम जमानत दी है। हालांकि कोर्ट ने आदेश दिया कि इस दौरान नताशा को दिल्ली पुलिस क्राइम ब्रांच के स्पेशल सेल के संपर्क में रहना होगा।

नताशा को अपने पिता के अंतिम संस्कार में पीपीई सूट पहन कर भाग लेने की छूट दी गई है। नताशा की मां का 15 साल पहले देहांत हो गया था और नताशा का छोटा भाई भी कोविड से जूझ रहा है। ऐसे में अंतिम संस्कार के लिए कोई करीबी रिश्तेदार मौजूद नहीं है।

विडम्बना है कि अगर कोर्ट यही फैसला कुछ दिनों पहले दे देती तो एक बुजुर्ग पिता अपनी बेटी से आखरी बार मिल लेता। इससे पता चलता है कि हमारी न्याय व्यवस्था सत्ता के पक्ष में न्याय को किस प्रकार प्रभावित करती है। दिल्ली नॉर्थ ईस्ट दंगों से जुड़े झूठे मामलों से लेकर भीमा कोरेगांव तक कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, छात्रों और एक्टिविस्ट को झूठे आरोपों में लंबे समय से जेल में बंद कर रखा गया है। इनमें से कई लोगों का स्वास्थ्य बुरे तरीके से गिर चुका है। इन मामलों में पुलिस और जांच एजेंसियां अभी तक कोई पुख्ता सबूत भी पेश नहीं कर पाई है उसके बावजूद विभिन्न अदालतें इन सभी लोगों की जमानत अर्जी को लगातार खारिज करती आ रही है।

दरअसल यह इस मौजूदा निजाम की ओर से उन सभी लोगों को चेतावनी है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विरोध प्रदर्शन में यकीन रखते हैं कि सरकार तथा सत्ता के खिलाफ बोलने पर उन्हें जेल की काल कोठरी में बंद कर दिया जाएगा। इस महामारी के वक्त भी अमानवीय तरीके से भीमा कोरेगांव और नागरिकता कानून संशोधन विरोधी आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं को जेल में रखा गया है। लेकिन जेल की सलाखों और मौत से ना तो असहमति की आवाज को दबाया जा सकता है ना हक के लिए लड़ने के जज़्बे को।

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