दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. हैनी बाबू की रिहाई की मांग को लेकर पत्नी और बेटी की अपील

भीमा कोरेगांव मामले में नाजायज़ कैद सुधा भारद्वाज की स्थिति भी नाजुक

भीमा कोरेगांव मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर हैनी बाबू की गिरफ़्तारी को क़रीब साल भर हो गए हैं। भीषण कोरोना विस्फ़ोट के दौर में जेल में बंद प्रोफ़ेसर हैनी बाबू के परिजन इसे लेकर चिंतित हैं।

असल में इसी मामले में बंद प्रतिष्ठित ट्रेड यूनियन लीडर सुधा भारद्वाज की स्थिति जेल में खराब होने के बाद उनकी रिहाई की मांग ने तेज़ी पकड़ी है।

प्रोफ़ेसर हैनी बाबू की पत्नी जेनी, बेटी फ़रजाना, मां फ़ातिमा और भाई हरीश और अंसारी ने 5 मई को ये एक खुली चिट्ठी लिखते हुए उनकी तत्काल रिहाई की मांग की है।

पूरी अपील पढ़ें-

सबसे बदतरीन गलती है गलती पर अड़े रहना, और बीके-16 मुक़द्दमे का मामला ऐसा ही लगता है। भीमा कोरेगाँव-एलगर परिषद प्रकरण, अब तक 16 गिरफ्तारियों के साथ, हत्या षणयंत्र के आरोप से शुरू हुआ, लेकिन जल्दी ही यह मामला एक ऐसे पत्राचार के मामले में बदल गया जो की इनके व्यक्तिगत कम्प्यूटरों के साथ जालसाजी कर कहीं और से डाले गए गुमनाम और असत्यापित पत्राचार थे।

फिर भी राज्य गुमराह कर रहा है और न्याय में रुकावट डाल रहा है। हनी बाबू एम टी, दिल्ली यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं। बीके-16 मामले में बंदी बनाए गए 12वें व्यक्ति हैं।

यदि आप उनसे अभी तक अपरिचित हैं तो, हनी बाबू भाषा विज्ञान के विद्वान हैं, उन्होने हैदराबाद के ईएफ़एलयू और जर्मनी की कोसतांस यूनिवर्सिटी से पीएचडी हासिल की है। वे एक निष्ठावान शिक्षक और एक सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं और स्वयं को अंबेडकरवादी पहचान से जोड़ते हैं और उन्होने अपने जीवन और काम को सामाजिक न्याय के लिए जाति उन्मूलन के संघर्षों में समर्पित किया है।

कोई अजूबा नहीं कि सभी छात्र और विद्वान उन्हें बेहतरीन जनतान्त्रिक, प्रबुद्ध और दोस्तना बुद्धिजीवियों में से एक ऐसे व्यक्ति के रूप में उनसे प्यार और आदर करते हैं, जो दूसरों की परेशानियों को दूर करने से कभी पीछे नहीं हटे।

2018 के भीमा कोरेगाँव-एलगर परिषद के पूरे मामले में जुड़े अन्याय से और जिस तरह हनी बाबू को एक सस्पेक्ट बना कर कठोर रवैया अपनाया गया, इस कारण से, हम बेहद परेशान हैं। हनी बाबू को भीमा कोरे गाँव-एल्गार परिषद मामले में, NIA द्वारा मुंबई के लिए सम्मन दिये जाने के बाद पाँच दिन तक चली व्यर्थ की पूछ-ताछ के बाद 28 जुलाई 2020 को, अन्यायपूर्ण ढंग से गिरफ्तार किया गया था।

इस गिरफ़्तारी से पहले सितम्बर 2019 को उनके घर पर पुलिस ने पहली रेड की थी और दूसरी रेड अगस्त 2020 में की थी, दोनों रेड डराने वाली और देर तक चली थी।

उनकी किताबों, कागजों और इलेक्ट्रोनिक उपकरणों की जब्ती बिना किसी उचित सर्च वारंट या वैधानिक प्रक्रिया के हुई और साक्ष्य इकट्ठा करने की मूलभूत प्रक्रियाओं को अनदेखा किया गया संभाव्यता यह यूएपीए कानून के तहत हुआ था । उन्हें तुरंत जब्त किए गए इलेक्ट्रोनिक समान की एक सूची या हैश वैल्यू उपलब्ध नहीं कराई गई थी, जिसके कारण जब्ती समान के साक्ष्यकारी मूल्यों को संकट में डाला गया और उनके साथ बाद में छेड़-छाड़ की गुंजाइश है।

वास्तव में, इस पूरी तलाशी और जब्ती की अवैध प्रकृति हनी बाबू सरीखे व्यक्ति के लिए घोर अन्याय था, जो खुद विधि-नियम पर अगाध विश्वास करते हैं और हमेशा जनतांत्रिक प्रक्रियाओं से समस्याओं को सुलझाना चाहते हैं।

निर्दोष हनी बाबू, उनके जैसे अभियोगाधीनों से भरी हुई, मुंबई की भीड़ भरी जेल में अब तक नौ महीने बिता चुके हैं। गिरफ़्तारी से पहले पाँच दिन लंबी पूछ-ताछ के दौरान हनी ने हमें सूचित किया था कि एनआईए के अधिकारी उस पर गवाह बनने का दबाव डाल रहे है और इस मामले में पहले से गिरफ़्तार किए गए कुछ या उनमें से किसी एक के खिलाफ सबूत देने के लिए कह रहे हैं।

उनकी इस गिरफ़्तारी से पहले हनी के अपने मोबाइल से की गई आख़िरी बातचीत ने इशारा किया कि एनआईए के अधिकारी नाखुश थे कि उन्होने दूसरों को झूठा फँसाने के लिए मना कर दिया है।

हनी बाबू की बेमिसाल ईमानदारी को देखते हुए एनआईए ने लगता है कि उनको सबक देने का फैसला लिया है मानो ‘माओवादी’ का नाम दे देना ही आरोप को साबित करने के लिए पर्याप्त ‘सबूत’ है। इसके अलावा, सभी 16 गिरफ्तारियाँ लगता है इस तरह कि योजना से की गई है जिससे की चार्ज शीट दाखिल करने में देरी हो, इस आड़ में कि इस मामले के अगले गिरफ़्तार के साथ पूछ-ताछ की जानी है और नए सबूतों को जाँचना है।

एनआईए अभी भी लगता है यह साबित करने के उद्देश्य में लगी हुई है की यह पूरा मामला न तो एक गलती था और न ही एक गलती है, यहाँ तक कोई भी आरोपी दूसरे को फँसा नहीं सका। बीके-16 प्रकरण में समान रूप से सभी निर्दोष देश की अलग-अलग जगहों से हैं और इनमें से ज़्यादातर एक दूसरे से अनजान हैं।

हम, हनी बाबू के परिवार के सदस्य, इस महामारी जैसे कठिन समय में, इसलिए यह अपील अपनी व्यथा और पीड़ा बाँटने और अपनी चिंताओं को आभिव्यक्त करने के लिए कर रहे हैं। यहाँ तक की मुंबई हाइ कोर्ट ने महाराष्ट्र की जेलों में कोविड-19 के तेजी से फैलने पर अपने आप से एक जन हित याचिका की पहल की है।

हम बिना किसी शंका से कह सकते हैं की हनी बाबू ने सामाजिक न्याय के लिए जाति-उन्मूलन संघर्ष के अंबेडकरवादी आंदोलन के प्रति अटल निष्ठा रखने का एक मात्र ‘अपराध’ किया था। वे शुरूआती उन कुछ चंद लोगों में थे जिन्होंने ओबीसी आरक्षण को लागू करवाने के लिए और दिल्ली विश्वविद्यालय में एससी/एसटी भेदभाव के खिलाफ कढ़ा संघर्ष किया था।

वे जीएन साई बाबा के बचाव और रक्षा कमेटी में भी सक्रिय थे हनी उन्हें पहले एक शोधार्थी छात्र और फिर बाद में एक सहकर्मी के रूप में पहचानते हैं। जीएन साई बाबा 90 प्रतिशत शारीरिक विकलांगता के बावजूद जेल में हैं।

वास्तव में, यह अजीब और बुरा है कि आरक्षण को लागू करवाने वाले या एक नागरिक के मुक्त और निर्बाध और निष्पक्ष मुक़दमे के बचाव जैसे वैध कार्य-कलाप को अपराधी के जैसे और माओवादियों के साथ संबंध के रूप में देखा जा रहा है। वास्तविक तथ्य है कि इन उपरोक्त आन्दोलनों में शामिल रहने से ही हनी बाबू, यदि अपने आप में न्याय से नहीं तो, न्याय मिलने की टेढ़ी और दुःसह प्रकृति को समझने में सक्षम हुए।

इसने उन्हें वर्ष 2015 में कानून की डिग्री लेने के लिए और समतावादी आन्दोलनों की माँगो को कानूनी पैरवी के माध्यम से हासिल करने के लिए प्रेरित किया। यह अपने आप में उनके ऊपर लगे माओवादी समर्थक होने के आरोप के तर्कदोष को उजागर करता है।

उनका दूसरे कई लोगों की ज़िंदगी सुधारने के प्रति समर्पण यहाँ तक की अपनी जेल के दौरान भी चालू है, जैसा कि हम समझ सके कि वे दूसरों को भाषा की शिक्षा देने, दूसरों से नई भाषाएँ सीखने, के साथ-साथ साथी कैदियों को कानूनी सलाह देने में खुद को व्यस्त रखते हैं।

हनी बाबू के सिविल और कानूनी अधिकारों का उल्लंघन जारी है चूँकि एनआईए ने अभी तक कोई पुख्ता सबूत साझा नहीं किया है। सबसे बड़ी बात है कि उनसे जब्ती किए गए इलेक्ट्रोनिक्स उपकरणों की क्लोन कॉपी लेने के लिए हनी बाबू के निवेदन को अनिश्चित रूप से विलंबित किया जा रहा है, इसके कारण उनके निर्दोष होने का बचाव पक्ष असमर्थ हो रहा है। इस तरह की देरी, नकारने के बराबर है।

मेसाचुसेट्ट्स-आधारित आर्सनल कनसलटिंग नाम की डिजिटल फोरेंसिक फ़र्म की हाल की जांच परिणाम इस मामले के संदर्भ में खास महत्व रखती है। इस डिजिटल फोरेंसिक फ़र्म ने पता लगाया है कि एक हैकर ने दुर्भावपूर्ण सॉफ्टवेयर के माध्यम से रोना विलसन (बीके -16 मामले के एक आरोपी) के कम्पुटर में कुछ फाइलें डाल दी थी जो कि वहाँ से उनके दोस्तों के लैप टॉप में फैल गई।

इस संबंध में यह जाँच परिणाम उस तथाकथित माओवादी-पत्राचार पर सवाल खड़ा करती है जो कि इस पूरे मुक़द्दमे में एनआईए का एक मात्र सबूत है।

हम हैरान है कि कोर्ट ने अभी तक प्रकाशित कई जाँच परिणामों पर, एक साल बीत जाने के बावजूद भी, अपने आप से संज्ञान नहीं लिया और एक अविलंब स्वतंत्र जाँच का, और इस मुकदमे में ‘साक्ष्य’ के रूप में पेश किए गए सभी डाटा के फोरेंसिक विश्लेषण का आदेश नहीं दिया है। इस तरह की प्रक्रिया जो की किसी भी जनतांत्रिक देश में तुरंत उपलब्ध हो गई होती, वह इसके उलट विलंब करने की पेचीदगियों में बदल गई है जिसका केवल मक़सद न्याय में बाधा डालना है।

इसके अलावा, इस समय जब कई देश महामारी संकट के चलते अपने राजनीतिक कैदियों को रिहा कर रहे हैं तब बीके -16 कैदियों की जमानत दरखास्त, उनकी उम्र और खराब सेहत के बावजूद भी, बार-बार सरसरी ढंग से ख़ारिज की जा रही हैं। कई जेलों से कोविड पॉज़िटिव मरीज मिलने और यहाँ तक कि मौतों की खबरों के कारण हम जेल की हालतों को लेकर काफी चिंतित हैं।

मौलिक मानव अधिकारों के सरासर उलंघन के अलावा यह कुछ और नहीं है। सचमुच, महामारी की आड़ में हनी बाबू को शुरू से ही आमने-सामने की मुलाक़ात से माना किए जाने के तथ्य के साथ स्थिति और भी बदतर हो गई है। हमें निराशा होती कि, अक्सर उन्हें किताबों वाले पार्सल की मनाही होती है, और यहाँ तक कि पत्र भेजने/प्राप्त करने या उनका फोन से बात करना लगता है की संबंधित अधिकारियों की मनमर्जी से तय होता है।

शायद ही कोई व्यक्ति या घर या (न्यायालय समेत) संस्थान होगा जो की इस महामारी से अप्रभावित रहा हो। इन अभियोगाधीन कैदियों, जो कि अंतहीन यातनाओं के शिकार हैं, के परिवार के सदस्यों के लिए खासतौर से यह दोहरा आघात है, यह विडम्बना है कि, न्याय के लिए, हमारे संविधान द्वारा गारंटित जनतांत्रिक अधिकारों में विश्वास करने और उन पर कायम रहने के लिए, जैसा कि हनी बाबू के मामले में हो रहा उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता।

संपर्क करने, नगदी, चीजों पर कढ़ी पाबंदियों के साथ अंतहीनता से साक्ष्यों की जांच का इंतज़ार करने वालों का आघात बेशक अनेक तरह का है। कभी-कभार भेजे गए अपने एक पत्र में हनी बाबू ने लिखा था कि जिन चीजों को हम बाहर मामूली समझते है वही जेल के अंदर बहुत कीमती हैं, इससे वह बताते हैं कि वह जब मन चाहे तब पत्र नहीं लिख सकता क्योंकि डाक टिकटें, पेपर, पेन यदि उपलब्ध भी हो तो बेहिसाब महंगे हैं।

उनके जेल से भेजे गए पत्रों में तब भी हमारी न्यायिक व्यवस्था में दिलासाभरी उम्मीद और अनंत विश्वाश मिलता है कि इससे उनको अपना अधिकारपूर्ण जीवन वापिस मिलेगा। इस मुक़दमे को शुरू करने में और आगे देरी हनी बाबू को उनके निजी, शैक्षणिक, बौद्धिक जीवन से और दूर कर देगी। ये प्रक्रिया अब और लंबी सजा न हो! हाल ही में सूप्रीम कोर्ट ने प्रेक्षण में विशिष्ट रूप से कहा की मुक़दमे का त्वरित निपटान यहाँ तक की यू ए पी ए के तहत गिरफ्तार हुए व्यक्तियों का मौलिक अधिकार है।

हम, हनी बाबू के परिवार के सदस्य अपील करते हैं कि : 1) मुक़दमे के जल्द से जल्द प्रारंभ के लिए सारे सबूत, क्लोन कॉपियों समेत, आरोपी को तुरंत उपलब्ध कराया जाए जिससे कि डिफेंस भी स्वतंत्र जांच कर सके; और 2) सभी आरोपियों को मुक़दमे के शुरू होने तक मौजूदा नियम-विनियम के अनुसार अविलंब जमानत दी जाए। अन्यथा, न्यायिक व्यवस्था पर खुद उलझावभरे और दुश्चक्र को बढ़ावा देने के सवाल, यदि अभी तक नहीं उठे तो, उठ सकते हैं।

वर्कर्स यूनिटी से साभार

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