इलाज के अभाव में मरते लोग, कौन है इसका जिम्मेदार?

निजीकरण नहीं, अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण करो!

कोरोना महामारी की दूसरी लहर के साथ देश के स्वास्थ्य महकमे का ढाँचा पूरी तरीके से ढह गया है। कोई कोरोना से ग्रसित होकर भटक रहा है दम तोड़ रहा है, तो जो कोविड मरीज नहीं है उनके लिए अस्पताल के दरवाजे बंद हैं। आज कोरोना से बड़ी त्रासदी यही है। … ताली-थाली, घंटी, काढ़ा, गोबर आदि ढकोसलों से कुछ होने वाला नहीं है।…

‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका, अप्रैल-जून, 2021 का सम्पादकीय

इलाज के अभाव में मरते लोग

नासिक के अस्पताल में ऑक्सीजन आपूर्ति बाधित होने से 22 मरीजों की दर्दनाक मौत…। ऑक्सीजन की कमी से भोपाल में 15, दिल्ली के सर गंगाराम में 25, जयपुर गोल्डेन अस्पताल में 20 मरीजों की मौत…। लखनऊ, दिल्ली में चिता के लिए लकड़ियों की किल्लत…। अस्पतालों में नॉन कोविड मरीज को भर्ती करने से इंकार, बाराबंकी में नॉनकोविड बेटी शिल्पी की मौत..।

यह तो भयावहता की महज बानगी है। कोरोना महामारी की दूसरी लहर के साथ देश के स्वास्थ्य महकमे का ढाँचा पूरी तरीके से ढह गया है। कोई कोरोना से ग्रसित होकर भटक रहा है दम तोड़ रहा है, तो जो कोविड मरीज नहीं है उनके लिए अस्पताल के दरवाजे बंद हैं। आज कोरोना से बड़ी त्रासदी यही है।

2020 में कोरोना की पहली लहर आई थी तब पीपीई किट, वेंटिलेटर, दवा-इंजेक्शन की कमी आदि से लोग जूझ रहे थे। अब 2021 में अस्पतालों में उससे भी ज्यादा बुरी स्थिति है। बेड की कमी, वैक्सीन की कमी, वेंटीलेटर की कमी, ऑक्सीजन की कमी विकट समस्या है। यह तब है जब केंद्र सरकार 20 लाख करोड़ रुपए कोरोना के लिए तय कर रखी हो और उसके पास पीएम केयर्स पफंड में लगातार धन आ रहे हैं।

खुद संकट झेल रहे भारत ने अप्रैल 2020 से जनवरी 2021 के बीच दूसरे देशों में 9,301 मीट्रिक टन ऑक्सीजन निर्यात की। पिछले एक साल में पीएम केयर फण्ड से वेंटीलेटर ख़रीद के नाम पर धंधे होते रहे और लोग इनके अभाव में मर रहे हैं।

सवाल यह है कि क्या एक साल में सरकारें अस्पताल, दवा, संसाधन की व्यवस्था करके महामारी को रोक या कम नहीं कर सकती थी? सरकार के पास पिछले 1 साल के दरमियान परयाप्त धन भी था, फिर भी सरकार अस्पतालों को न्यूनतम सुविधा क्यों नहीं दे पाई? एक साल का समय कम नहीं होता है। तो फिर दिक्क़त कहाँ थी?

दरअसल 1991 में उदारीकरण की नीतियों के आने के बाद पूरे स्वास्थ्य महकमे को भी निजी मुनापफाखोरों के हवाले करने का खेल शुरू हुआ था। सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं कमजोर की गईं और बड़े-बड़े दैत्याकार कॉरपोरेट अस्पतालों का जाल बिछ गया। मोदी सरकार ने निजीकरण की इसी नीति को गति दी। आज़ादी के बाद के सालों में जो थोड़ी बहुत सुविधाएं मिली हुई थीं, मोदी सरकार ने उन्हें भी मटियामेट कर दिया है।

सरकार का नीति आयोग सुधार की दवा के रूप में महज निजीकरण का ही नुस्खा लिखता है। सब कुछ को बेच देने के वायरस से सरकार खुद संक्रमित है। उसका पूरा ध्यान देश का हर काम मुनाफाखोरों के हवाले करने और जनता को मुर्ख बनाकर सत्ता पर काबिज रहने, निरंकुश अमानवीय तंत्र को और मजबूत करने पर केंद्रित है।

किसी भी जनपक्षध्र सरकार के लिए बुनियादी चीज है- इलाज व्यवस्था को उन्नत, निशुल्क व जनसुलभ बनाया जाए। क्यूबा जैसा छोटा देश बड़ी तादाद में स्वास्थ्य कर्मियों को पैदा करता है और सबके लिए निशुल्क इलाज को सर्वोच्च स्तर पर पहुंचा चुका है। लेकिन भारत में आज़ादी के 75 साल बाद का मंजर हमारे सामने है। मुनाफे की अंधी हवस में आदमी की जान की कोई कीमत नहीं होती है, यह बात भी आज खुलकर सामने है। ताली-थाली, घंटी, काढ़ा, गोबर आदि ढकोसलों से कुछ होने वाला नहीं है।

सबसे जरूरी और बुनियादी चीज सबको समान इलाज के लिए अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण किया जाना चाहिए। तय है कि वर्तमान मुनाफाखोर व्यवस्था में निशुल्क व उच्चस्तरीय दवा और इलाज संभव नहीं है। एक समाजवादी समाज में ही यह संभव है।

‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका, अप्रैल-जून, 2021 (अंक 45) का सम्पादकीय

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