कविताएँ इस सप्ताह : तानाशाह का मजाक तो उड़ा ही सकते हैं !

तानाशाह का मजाक तो उड़ा ही सकते हैं / स्वप्निल श्रीवास्तव

हम कुछ भी नहीं कर सकते
लेकिन तानाशाह का मजाक तो
उड़ा ही सकते हैं

हम कह सकते हैं -प्रभु आप महान हैं
आप जैसे लोग तो शताब्दियों में
पैदा होते हैं
और लीद छोड़ कर चले जाते है
जिसे साफ करने में पीढियां खर्च
हो जाती हैं

जब शहर जल रहे होते है आप नीरो की
तरह अवतरित होकर बांसुरी बजाने
लगते हैं

आपके साजिंदे वाद्य यंत्र बजाने में
माहिर हैं
वे जानते है कि कौन सी धुन बजाने
के बाद आप नाचने लगते हैं

आपने हमेशा एक अच्छे संगीत निर्देशक
बनने की कोशिश की है
लेकिन यह भूल जाते है कि संगीत
के लिए एक अच्छी आत्मा का होना
जरूरी है.


मिलते रहा करो! / त्ज़ु फेंग

अनुवाद: हूबनाथ

जब नहीं रहूँगा मैं
तुम्हारी आँखें धारासार बरसेंगी
पर नहीं जान पाऊँगा मैं
बेहतर है रो लें हम अभी
साथ-साथ

तुम भेजोगे फूल
नहीं देख पाऊँगा मैं उन्ह़े
बेहतर है भेज दो अभी

तुम करोगे स्तुति मेरी
मैं नहीं सुन पाऊँगा
बेहतर है अभी करो मेरी प्रशंसा

मेरी ग़लतियों को माफ़ कर दोगे
पर नहीं जान पाऊँगा मैं
बेहतर है अभी माफ़ कर दो उन्हें

मुझे याद करोगे मेरे बाद
मैं नहीं महसूस कर पाऊँगा
बेहतर है मुझे अभी याद कर लो

तुमने मेरे साथ और वक़्त
गुज़ारने की तमन्ना की है
बेहतर है अभी गुज़ार लो

मेरे जाने की ख़बर मिलते ही
चल पड़ोगे घर मेरे
संवेदना जताने के लिए
पर साल भर से हमने बात तक नहीं की
अभी इसी वक़्त देखो मेरी ओर

अकेले मैं बोल सकता हूँ
साथ हो तो कर सकते हैं बात
अकेले ख़ुश हो सकता हूँ
तुम्हारे साथ उत्सव मना सकता हूँ
अकेले मुस्कुरा भर सकता हूँ
तुम्हारे साथ खिलखिला सकता हूँ

यही ख़ूबसूरती है
इन्सानी रिश्तों की
एक दूजे के बिना
कुछ भी नहीं हम
मिलते रहा करो।


मज़दूरों की व्यथा व संघर्ष की राह / धर्मेन्द्र आज़ाद

सुनो सरकार!
आपकी अजीबोग़रीब व्यवस्था से
हम तंग आ गये हैं
हमारी आत्मा हमेशा सवाल करती है
कि यह बेबसी व लाचारी भरी ज़िंदगी
किन गुनाहों की सजा के बतौर
हमें मिल रही है ?

सारा धन अपने पास समेट लेने की
आदतें मालिकों-सरमायरेदारों की हैं
ऐसे में माँग का संकट आना स्वाभाविक है
लेकिन तब भी मन्दी के नाम पर
छँटनी, वेतन कटौती की सजा
हमें ही सुनायी जाती है।

जब भी कोई नयी मशीन आती है
हमें लगता है
शायद हमारा काम आसान करेगी
काम के घंटे कम करेगी
पर खबर आती है कि
हमें ही सजा-ए-नौकरी-निकाला
सुनायी जाती है।

दिन रात हमसे काम लिया जाता है
बेशुमार मुनाफ़ा बटोरा जाता है
अपने ऐशों आराम में
ख़ूब उड़ाया जाता है
एक से दो, दो से चार
कारख़ाने खड़े किये जाते हैं
पर हमें टरका दिया जाता है
हमारी ही कमाई का बस एक
छोटा हिस्सा देकर
हमारे मेहनत के लूट की यह सजा
बेधड़क हमें सुनायी जाती है।

आपदा-महामारी की वजह से
कारख़ाना बंद करना पड़े
तब भी दिहाड़ी का संकट
सबसे पहले हमें ही घेरता है
किसी को फ़िक्र नहीं
हम जियें या मरें
न मालिक को न सरकार को
बेबसी, भुखमरी की सजा
हमें सुनायी जाती है।

सुनो सरकार!
हम मज़दूर हैं
हमें मजबूर मत समझो।
ध्यान रहे!
ये कारख़ाने, उध्योग-धंधे
हमने ही खड़े किये हैं
ये रेलवे, सड़कें, संचार
भी हम ही चला रहे हैं।

सुनो सरकार!
हम मज़दूर हैं
हमें मजबूर मत समझो।
ये मेहनत हमारी, राज धनिकों का
अब और बर्दाश्त नहीं होगा
हम मेहनतकश
सब कुछ पैदा कर सकते हैं
तुम्हारे इन वाहियात नियमों
को तोड़ सकते हैं
समाज को एक नयी
गति दे सकते हैं

कान खोलकर सुन लो!
हम अब जाग रहे हैं,
संगठित हो रहे हैं
लम्बी लड़ाई के अभ्यास कर रहे हैं।
आपके तन्त्र ने हमेशा हमारा फ़ायदा उठाया
अब हम ही इस पर विराम लगायेंगे
अपनी आवाज़ को बुलंद करेंगे
शोषण के इस निज़ाम को
अपनी फ़ौलादी एकता के ताप से
पिघला देंगे
एक नया समाज बनायेंगे।


आज सुबह का गीत / यश मालवीय

गाली नई बनानी होगी
जमकर उसे सुननी होगी

शब्द नए ईज़ाद करेंगे
गुलशन फिर आबाद करेंगे

अपनी मौत मरेगा हिटलर,
फिर से वही कहानी होगी

पूरे भारत का मालिक है
चेहरा देखो कापालिक है

राजा फेंक रहा है पाँसा,
पहले जान बचानी होगी

आज ज़रूरत है जुनून की
लहर रही है नदी ख़ून की

जिसपर है समान मौत का,
भारी नाव डुबानी होगी

कुशल क्षेम फ़िलहाल लिख रहा
कोई अपना नहीं दिख रहा

इस अमित्र होते मौसम में,
फिर ‘मित्रो मरजानी’ होगी।


वो नहीं मान सकते निर्देश / सौजन्य

वो नहीं मान सकते निर्देश
घरों में रहने का,
जो हमेशा से बनाते रहे हैं घर
दुनिया भर का
जो जरूरत के सामान रखकर
नहीं गुजार सकते
अपने परिवार के साथ कुछ हफ्ते
जो नहीं जुटा सकते राशन
कुछ दिनों का
जिनके पास नहीं है कोई दूसरा बिस्तर
जिसपर सुला सकें अपने
बुखार में तपते बच्चे को
जो आज भी काटता है कपास
जो बनाता है
घर के सभी सामान
बड़े बड़े कारखानों में
जो मजबूर है
भीड़ बन जाने को

वो नहीं मान सकते निर्देश
कुछ गज की दूरी का ,
जो हमेशा ही सड़को
पर झुंड बनाकर सोते हैं
जो चिथड़ों से बस्तियां बनाकर
ढक देते हैं शहरों के कचरों को
जो नहीं ले सकते साफ हवा
ऐसे वक्त में भी
जो नहीं पहनते साफ कपड़े

वो नहीं मान सकते निर्देश
स्वस्थ रहने का ,
जो उगाते रहें हैं बार-बार
खेतों में जीवन
जो नहीं खा सकते संतुलित आहार
जो नहीं खरीद सकते
हफ्ते भर की दवा
महीने भर की कमाई से
जो मरते रहें हैं
गंदे पानी की बीमारियों से
जो बन जाते हैं
आकंड़ों की भीड़ हर ऐसी महामारी में

वो नहीं मान सकते निर्देश
किसी हत्यारी सरकार का,
जो नहीं पाते सम्मान
अपनी बनाई दुनिया मे
जो दुत्कार जाते हैं
सुविधाओं के कतारों में
जो खप जाते हैं
पूंजी के खेल में
जो चमकाते हैं राजभवनों
और महंगे गाड़ियों के शीशे
जो क़त्ल करवा दिए जाते हैं
मुनाफे के चक्र में
जो रौंद दिए जा रहे हैं
फ्लाईओवरों के नीचे

बच जाने को महामारियों से
नहीं है पर्याप्त बस
शासकीय नसीहतें और सख्त निर्देश
इसलिए
वो जो मारे जा रहे हैं
सदियों से भूख और कंगाली के महामारी से
वो जो नहीं जोड़ पाए अपनी कुछ ईंटें
जो नही बना पाए अपना घर
जो नहीं सुला सकें अपने बच्चों को
जो नहीं जुटा पाए अपना सामान
जो नहीं खा पाये अच्छा खाना
जो नहीं खरीद सके दवाईयां
जो नहीं पा सके सम्मान श्रम का
जो बनाते है सब कुछ अपनी मेहनत से
वो एक दिन उठेंगे
अपनी प्रतीक्षा से
उन्हें मानना पड़ेगा
क्रांति का निर्देश
ताकि
ध्वस्त हो जाएं
सभी हत्यारी सरकारें
और हरा सके मनुष्य
शोषण और अभाव के
सभी महामारियों को।



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