कविताएँ इस सप्ताह : समय का दर्द !

रिक्शावाला / ज्ञान प्रकाश चौबे

पैडल के नीचे
दबाता है अपना दुख

हैंडल के उमेठते हुए कान
बदलता है
हवा की दिशाएं

मेहनत की हवा का दबाव
उसके फेफड़ों में भरता है
बचे रहने की उम्मीद

उसकी पिंडलियों की मांसपेशियां
जीवन के पहाड़ को थामे हुए
चरमराती है
पुराने घिसे हुए रिक्शे की धुरे के साथ

उसके रिक्शे पर
भूख की तनी हुई तिरपाल है
जिस की छांव में
सुस्ता रहा है उसका परिवार

और रिक्शावाला
भरी दुपहरी के सीने पर
पहिए के निशान छोड़ते हुए
ढो रहा है
समय की व्यवस्थाएं.


तारे मेरे दोस्त / निर्मला गर्ग

तारे मेरे दोस्त थे
मैं सरस्वती कन्या पाठशाला में पढ़ती थी
उनसे विद्यालय की दिनचर्या साझा करती

प्रभा बहनजी ने तीसरी कक्षा में तोला मासा रत्ती
पढ़ाया था
मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आया

आज मुझे मुर्गा बनना पड़ा यह मैं उस तारे से
कह रही हूँ जिसे मणि बुलाती हूँ

आठवीं कक्षा में नई टीचर आई हैं
रेवा बहनजी
वह कोर्स की किताबों के अलावा और बहुत कुछ
बताती हैं
कल ही कह रहीं थीं —
ऐसे व्यक्ति की तुलना में जो दर्जनों संस्थाओं का अध्यक्ष है
जिसकी गर्दन अमूनन गेंदे की माला से लदी रहती है
वह व्यक्ति ज़्यादा मानवीय है जिसने घायल बिल्ली के
पैर में पट्टी बांधी थी।

तारो मेरे दोस्तों बताओ —
क्या रेवा बहनजी ठीक कहतीं थीं ?


लोरी / बिपिन कुमार शर्मा

1.

किसी भी चीज़ को वह
शामिल कर सकती है अपने खिलौनों में
मेरे चश्मे को तोड़कर चम्मच बनाती है
मोबाईल को टेलीफ़ोन
जूतों को खरगोश बनाकर
करती है उनसे बातें
किताबों को थपकियाँ देकर सुलाती है
माँ के दुपट्टों से
झाड़ियों में परदे लगाती है
कुर्सी को उलट देने से
बन जाता है घर
उसके हिंसक पशुओं का
रसोई के बर्तन
अपनी मम्मा को धमकाकर
उठा ले आती है
उसके हिरन-बाघ
जिसमें साथ-साथ जीमते हैं
घर की सारी ज़रूरी चीज़ें
आ गई हैं
उसकी गिरफ़्त में
मेरे मनुहार पर
अपना सम्पूर्ण राज-पाट एक झोले में समेटकर
वह भाग खड़ी होती है
मैं पीछे-पीछे
उसे मनाता हुआ
क्या कर सकते हैं आखिर!!
लोरी ऐसे ही खेलती है…


2.

लोरी नहीं पढ़ती मेरी कविताएं
कहती है
यह कविता लोरी की नहीं है, पापा
तुम ऐसी कविता लिखो
जिसमें
एक राक्षस रहता हो
जो सपने में आकर
डराता हो लोरी को
इसीलिये तो मैं
सोते हुए में
अचानक रोने लगती हूँ
नींद में ही
भागने लगती हूँ डर से
मैं सपने में भी
उस राक्षस से बहुत डर जाती हूँ पापा
तुम एक लोरी की कविता लिखो
और अपनी कविता में उस राक्षस को
पीट-पीटकर मार डालो
फ़िर मैं कभी डरूँगी भी नहीं
और कविता भी पढ़ूँगी तुम्हारी
उसको मैं
तरह-तरह के डरावने मुँह बनाकर दिखाता हूँ
पूछता हूँ-
ऐसा था राक्षस?
वह कहती है-
यह तो तुम हो, पापा
मुझे तो राक्षस से डर लगता है
मैं बेचैन-सा ढूँढ़ता रहता हूँ
दिन-रात
उस राक्षस को
जिसे अपनी कविता में मारकर
इस संसार की सभी बेटियों को
भय-मुक्त नींद सुला सकूँ.



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