कविताएँ इस सप्ताह : अंतरराष्ट्रीय श्रमजीवी महिला दिवस !

राजा ने कहा ‘जहर पीओ’ …वह मीरा हो गई / शरद कोकास 

वह कहता था,
वह सुनती थी,

जारी था एक खेल
कहने-सुनने का।

खेल में थी दो पर्चियाँ।
एक में लिखा था ‘कहो’,
एक में लिखा था ‘सुनो’।

अब यह नियति थी
या महज़ संयोग?

उसके हाथ लगती रही वही पर्ची
जिस पर लिखा था ‘सुनो’।

वह सुनती रही।
उसने सुने आदेश।
उसने सुने उपदेश।

बन्दिशें उसके लिए थीं।
उसके लिए थीं वर्जनाएँ।

वह जानती थी,
‘कहना-सुनना’
नहीं हैं केवल क्रियाएं।

राजा ने कहा,
‘ज़हर पियो’
वह मीरा हो गई।

ऋषि ने कहा,
‘पत्थर बनो’
वह अहल्या हो गई।

प्रभु ने कहा,
‘निकल जाओ’
वह सीता हो गई।

चिता से निकली चीख,
किन्हीं कानों ने नहीं सुनी।
वह सती हो गई।

घुटती रही उसकी फरियाद,
अटके रहे शब्द,

सिले रहे होंठ,
रुन्धा रहा गला।

उसके हाथ
कभी नहीं लगी वह पर्ची,
जिस पर लिखा था, ‘कहो’

(पोइट्री हब से साभार)


क्या तुम जानते हो / निर्मला पुतुल

क्या तुम जानते हो
पुरुष से भिन्न
एक स्त्री का एकांत?

घर, प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी जमीन
के बारे में बता सकते हो तुम?

बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को
उसके घर का पता?

क्या तुम जानते हो
अपनी कल्पना में
किस तरह एक ही समय में
स्वयं को स्थापित और निर्वासित
\करती है एक स्त्री?

सपनो में भागती
एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे
रिश्तों के कुरुक्षेत्र में
अपने-आप से लड़ते?

तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के 
मन की गांठें खोल कर
कभी पढ़ा है
तुमने उसके भीतर का
खेलता इतिहास?

पढ़ा है कभी
उसकी चुप्पी की दहलीज पर बैठकर
शब्दों की प्रतीक्षा के उसके चेहरे को?

उसके अन्दर वंशबीज बोते
उसकी फैलती जड़ों को
अपने भीतर?

क्या तुम जानते हो
एक  स्त्री के समस्त रिश्ते का
व्याकरण?

बता सकते हो तुम
एक स्त्री को स्त्री दृष्टि से देखते
उसके स्त्रीत्व की
परिभाषा?

अगर नहीं
तो फिर क्या जानते हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे मे…?


किसान महिला दिवस पर / अज्ञात

कई मन की शिलाओं को, जो ज़िद से ठेल देती है
नमन उस यौवना को है, जो हल से खेल लेती है,

हो महीना जेठ का या पूस का, सब एक जैसे हैं
ये बेटी हैं किसानों की, कठिन श्रम झेल लेती है,

मधुर झंकार पायल की उसे ना, रास आती है
नहीं ऐसा कि सजना ओ संवरना, भूल जाती है,

नहीं ख़्वाबों में उग जायेगा दाना, जानती है वो
वो सपनों को भिगोकर, खेत में उड़ेल देती हैं,

पसीना ओस बनकर पत्तियों पर, जब चमकता है
फ़सल आती है जब हर कोंपलों पर, फूल खिलता है,

सजीले ख़्वाब आँखों में हिंडोले बन, उमड़ते हैं
अभावों से वो ख़्वाबों से, ख़ुशी से खेल लेती है।

(किसान भारती डॉट कॉम से साभार)


लहर / मर्ज़ि‍एह ऑस्‍कोई

(ईरानी क्रान्तिकारी कवयित्री जिनकी शाह-ईरान के एजेंटों ने हत्‍या कर दी थी)

मैं हुआ करती थी एक ठंडी, पतली धारा
बहती हुई जंगलों,
पर्वतों और वादियों में
मैंने जाना कि
ठहरा हुआ पानी भीतर से मर जाता है
मैने जाना कि
समुद्र की लहरों से मिलना
नन्‍ही धाराओं को नयी जिन्‍दगी देना है
न तो लम्‍बा रास्‍ता, न तो लम्‍बा खड्ड
न रूक जाने का लालच
रोक सके मुझे बहते जाने से
अब मैं जा मिली हूँ अन्‍तहीन लहरों से
संघर्ष में मेरा अस्तित्‍व है
और मेरा आराम है – मेरी मौत


औरत की नियति / क्यू 

(वियतनाम, अट्ठारहवीं सदी)

कितनी कारुणिक है औरत की नियति,
कितना दुखद है उनका भाग्य,
हे सृष्टिकर्ता, हम लोगों पर तुम इतने निर्दय क्यों हों?
बरबाद हो गयी हमारी कच्ची उम्र
कुम्हला गये हमारे गुलाबी गाल
यहाँ दफ़्न सारी औरतें पत्नियाँ रही जीवनकाल में
फिर भी अकेली भटकती है उनकी रूह
मरने के बाद।



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