कविताएं इस सप्ताह : वीर तुम बढ़े चलो !

माँ / राजाराम चौधरी

माँ
पहली कविता है
मानव की
बचपन डोलता रहता है
अपने में मगन
तोतली जुबान में
गुनगुनाता हुआ
रचता जाता है
कविता

चिड़िया बन उड़ चलती है
आसमान में
परी बन उतरती है
धरती पर
लो वह मछली बन गई
कूद पड़ती है पानी में
बाहर निकलती है
मेढ़क सी उछलती है
डाल पर लटक
बंदर बन जाती है

फिर ये दुनिया थपेड़े
मार मार
भुला देती हैं
कविता रचना
कल्पना के पंख
कतर दिए जाते हैं

कविता
सुनने को
व्याकुल रहता है
सबके सामने नहीं
बाथरूम में
गुनगुनाता है
अपने नहीं
दूसरों के रची
कविताएँ
अकेले पाकर उसे
अपना जादू रचती हैं
वह धुन से करता है
खिलवाड़
बाल्टी बजाता है
उसके पाँव भी
मूड में आ जाते हैं
कोई देख तो नहीं रहा
थिरक पड़ते हैं

ऐसी दुनिया रचो
जल्द से जल्द
जब खुल कर
गाया जा सके
रची जाएँ कविता

देखो तो
बार्डर पर
उन्मुक्त
नाच रही हैं कविताएँ
खेतो खलिहानों से
बढ़े चले आता है लश्कर
नाचता गाता
जो बोले सो निहाल
तान लो मुट्ठियाँ
कविताओं के संग
रच डालो
नया समाज जहाँ
खुल कर
गाये जाएँगे गीत
रची जाएँगी कविता


सनियारा खान की दो कविताएं

1.

तू दीवार उठा दे
पहले देशों के बीच
फिर राज्यों के बीच
फिर शहरों के बीच
फिर मोहल्लों के बीच….
भाइयों के बीच
परिवारों के बीच
दोस्तों के बीच
सभी के बीच….
इतनी ऊंची दीवार कि
उसके आर पार से
किसी को भी
कुछ सुनाई न दे,
न मस्जिद की अज़ान
न मंदिर के सांध्य भजन
न गुरबाणी
न ही कैरोल,
इतनी ऊंची दीवार कि
कोई किसी की
पीड़ा के बारे में
जान न पाएं,
हर दीवार के पीछे
अपनी ही तरह
दिखनेवाले लोग
होते हुए भी
कहीं पर
सुकून न हो,
आख़िर में एक दिन
उस दीवार को भी
खोद खोद कर
बुरी तरह हिला देना
ताकि वह गिर जाए
फ़िर मलबों में सब
दब जाए
चारों ओर सिर्फ
तबाही दिखे
कोई एक कहीं पर
किसी तरह बच भी जाए तो
गिरी दीवार पर लिखी हुई
इबारत ज़रूर पढ़ ले कि
नफ़रत सलामत रहे
तबाही भरे मलबों पर
तेरी बारी भी आएगी
तू बस इंतजार कर।


2.

खुश हो कर
तुम हंसते हो
तो खुश हो कर
हम भी हंस लेते है।
चोट पहुंचती है
तो तुम रोते हो
हमारी चोट भी
हमें रूलाती है।
दो आंखे तुम्हारी भी
दो आंखे हमारी भी
देखते भी हम
एक ही ढंग से
हर चीज को।
गला दबाने को
या फिर प्यार करने को
दो हाथ तुम्हारे
तो दो हाथ हमारे भी है।
आगे बढ़ने को
या फिर पीछे हटने को
दो पैर तुम्हारे भी
और दो पैर हमारे भी
चलो अपने अपने
दिमाग टटोल कर
कुछ और समानताएं
हम ढूंढ़ निकालते है।
तुम भी डरते हो
और हमें भी
डर लगता है।
तभी तुम मंदिर
और हम मस्जिद जाते है।
पापों को धोने के लिए
हम तुम दोनों ही
एक समान
आतुर रहते हैं।
तभी तुम काशी
और हम मक्का जाते है।
तुम स्वर्ग
तो हम भी जन्नत
चाहते हैं।
नरक और दोजख से
हम दोनों ही
घबराते हैं।
ये और बात है कि
ऊपरवाला तुम से
अगर खुश नहीं है
तो वह हम से भी
हताश ही रहते है।
तुम भी उससे
प्यार तो नहीं करते हो
सिर्फ उसका नाम
इस्तमाल करके
अपना उल्लू
सीधा करते हो।
हम भी उसी नाम का
इस्तमाल करके
अच्छा इंसान होने का
स्वांग ही रचते है।
हम दोनों ही हर तरफ से
एक जैसे ही हैं….
फिर भी ये बात
समझ से बाहर है कि
हर वक्त हम तुम
लड़ते क्यों रहते हैं!


वीर तुम बढ़े चलो! / संध्या सिंह

वीर तुम बढ़े चलो!
धीर तुम बढ़े चलों!

सामने कीच है बहुत बड़े नीच है!

छप्पन इंच का साड़ है भेड़ उसकी डाल है!
कुबेर का दास है!
अंबानी का खास है!

तुम मगर झुकों नही!
तुम मगर रूकों नही!

अहंकार का नाश हो!

प्रात हो कि रात हो संग हो कि साथ हो!
सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़ो चलों!
धीर तुम बढ़े चलों!
एक ध्वज लियें हुए एक प्रण कियें हुए..मातृभूमि के लिए पितृभूमि के लिए
वीर तुम बढ़े चलो!धीर तुम बढ़े चलो!

राजा छल से है भरा!
बहुमत से है लदा !
कुचल रहा मान को !
देश के अभिमान को!

तुम विजय वरण करों !

वीर तुम बढ़े चलों!धीर तुम बढ़े चलो!
सामने कीच है बहुत बड़े नीच है!



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