सप्ताह की कविताएं : देशद्रोही होती बेटियाँ !

इन सबका दुख गाओगे या नहीं / भवानीप्रसाद मिश्र

इस बार शुरू से धरती सूखी है
हवा भूखी है
वृक्ष पातहीन हैं
इस बार शुरू से ही नदियाँ क्षीण हैं,
पंछी दीन हैं
किसानों के चेहरे मलीन हैं

क्या करोगे इस बार
इन सबका दुख गाओगे या नहीं
पिछले बरस कुछ सरस भी था
इस बरस तो सरस कुछ नहीं दीखता
इस बार क्षीणता को
दीनता की मलीनता को ,
भूख को वाणी दो
उलट-पुलट की संभावना को पानी दो।


अपने दुश्मन को पहचानो / महिला किसानों का गीत

“भारत के मेरे किसानों
आज़ादी लेना सीख लो,
राजगुरु सुखदेव भगत सिंह
खोकर अपनी जान गए,
दिन धोरे फांसी चड़ गए
देश पे कुरबान गए,
अब तो जागो किसानों
कुर्बानी करना सीख लो

1857 में झाँसी रानी की तलवार उठी,
दुनिया में ललकार हुई,
भारत के मेरे किसानों
आज़ादी लेना सीख लो

उद्धम सिंह ने इंग्लैंड नें डायर को मारा था
जल्लियनवाले का बदला उसने उतर था,
अपने दुश्मन को पहचानो
क्रांति करना सीख लो,
भारत के मेरे किसानों
क्रांति करना सीख लो”


देशद्रोही होती बेटियां / रामू सिद्धार्थ

(दिशा रवि को सपर्पित – )

भारत मां की बेटियां
देशद्रोही हो रही है
विद्रोही हो रही हैं

कभी आदिवासियों के संघर्षों के साथ खड़ी हो जाती हैं
कभी दलितों के साथ
और कभी कश्मीरियों का पक्ष लेने लगती हैं
कभी सीएए के खिलाफ बगावत में शामिल हो जाती हैं
कभी लिंचिंग के खिलाफ हुंकार भरती हैं
कभी पिंजड़ा तोड़ आंदोलन चलाने लगती हैं
कभी हाथरस गैंग के खिलाफ मुखर हो उठती हैं
ये पर्यावरण बचान की मुहिम में शामिल हो जाती हैं
कभी राम-रहीम को ललकारती हैं
कभी आसाराम बाबू को
और कभी चिन्यमानंद को
आजकल किसान- मजदूर आंदोलन के पक्ष में झंडा बुलंद कर रही हैं

ये मोदी के साथ योगी को भी चुनौती देती हैं
लव करना अधिकार है
खुलेआम दावा करती हैं
जरूरत पड़ने पर ये अपने बाप के खिलाफ भी बगावत कर देती हैं
शरम-हया छोड़कर मर्दवादी संस्कृति की ऐसी-तैसी कर रही हैं
आजकल ये बड़े- बड़े कारनामें कर रही हैं
सीधे सत्ता को चुनौती दे रही हैं
बेखौफ होकर नारे लगाती हैं
ये कभी जूएनयू में दिखती हैं
कभी जामियां में
कभी दिल्ली यूनिवर्सिटी में
ये कहीं भी प्रकट हो जा रही हैं
ये रूकने का नाम ही नहीं ले रही हैं
ये जेल जाने से भी नहीं डरती
बेखौफ हो सी गई हैं
ये अंधेरे में
मशाल बनकर सामने आ रही हैं
इसी में मेरी एक मासूम बेटी दिशा रवि भी शामिल हो गई है

सलाम मेरी बेटियों!
मुझे तुम पर गर्व है
तुम उम्मीद की किरण हो
भोर होगी
तुम सब इसकी गारंटी हो.


दुपट्टा से बांधी गई मेरी बच्चियों ! / नरेंद्र कुमार

तुम्हारी तकलीफ :
तुम्हारा यह उत्पीड़न
हमारे लिए
असहनीय !
निशब्द हूँ मैं !
हम अपनी किस कमजोरी की
सजा पा रहे हैं !
क्या हम अपनी इस कमजोरी से
उबर पाएंगे !
सदियों से बांटकरजातियों में
शोषण और उत्पीड़नको जारी रखने का
कानून बनाया गया
कभी मनुस्मृति के रूप में तो
कभी दुनिया भर के लोकतंत्र के संविधान के रूप
कभी आधुनिक संविधान लिखने वाले भी
चुनौती नहीं दी
शोषण उत्पीड़न के उस स्वरूप को
जिसके पीछे चलता है शासन पूंजी के तंत्र का
कोई नहीं खड़ा होता है पूंजी के इस तंत्र को
खुलेआम चुनौती देने के लिए
और पूंजी का यह तंत्र
कभी बांटता है हमें कभी धर्म
कभी क्षेत्र के रूप में
कभी राष्ट्र के रूप में
और सब जगह पूरी दुनिया में
निर्बाध गति से गतिशील है यह
लोग पवन पाखरे बिछाए हुए हैं
इसके आगमन के लिए
इसके आलिंगन के लिए
इसे अपने जन जन के रक्त से स्नान कराने के लिए
यह पवित्र है , दुनिया का सबसे पवित्र वस्तु
और इसके साथ सामाजिक संबंधों में बंधा
वह हर वर्ग जिसका रुधिर यह चूसता है
वह अपवित्र है
सारी दुनिया के लिए तुम भी
इसी अपवित्र समाज का हिस्सा हो
मेरी प्यारी बच्चियों
और इसीलिए अपने समाज की पवित्रता के लिए तुम्हें और हमें जलाना ही होगा
इस पवित्र वस्तु से जुड़े पूरे
सामाजिक संबंधों को
हमें जलना ही होगा
वर्ग संघर्ष की आग में
चल रहे हैं किसान और उनके बच्चे
अपने देश के अंदर और बाहर की सरहदों पर
हमें जलाना होगा
स्त्रियों और मेहनतकशों को बांधने वाले
उन तमाम सामाजिक संबंधों को
संस्कृति से लेकर उन दुपट्टो और फंदों को
जिस से बांध दिए जाते हो या लटक जाते हैं
तुम जैसी बच्चियां , स्त्रियां और कर्ज से दबे किसान
हमें जलना होगा
अपने समय के सबसे ज्वलंत सवालों से !


नग्न होना निर्वस्त्र होना नही होता / वीरेंदर भाटिया

नग्न होना
निर्वस्त्र होना नहीं होता
नग्न होना कुछ और है

नग्न होना बेशर्म होना है
बेशर्मियों का समूह है नग्न होना

बुद्ध का निर्वस्त्र होना
नग्न होना नहीं
द्रोण का एकलव्य से अंगूठा मांग लेना नग्न होना है

द्रोपदी को निर्वस्त्र कर देना
द्रोपदी का नग्न हो जाना नहीं होता
दांव पर लगाई जिन्होंने पत्नी
जो बांधे रहे हाथ प्रतिज्ञाओं के अनुपालन में
जो जंघा पर हाथ मारते रहे बेशर्मी से
जो घिघियाये रहे लेकिन बचाने नहीं आ सके द्रोपदी
वे सब नग्न थे

जिन्होंने चरित्र के आक्षेप लगा कर निकाल दी औरतें घर से
जिन्होंने घर में कैद करके रखी औरतें
और खुद बैंकाक-पताया की उड़ाने भरते रहे
जो छोड़-छोड़ भागे औरतें
बड़े आदमी होने के लिए
वे सब नग्न थे

जिन्होंने अवाम को नहीं सुना उनके कष्ट में
जिन्हें सड़क पर गर्भ गिराती स्त्री नही दिखी
जिन्हें मर गए मजदूर
दफन होते किसान नही दिखे
वह राजा नग्न है

निर्वस्त्र होना नग्न होना नही होता
बेशर्मियों के समुच्चय जोड़कर जो
सुंदर वस्त्र पहन इठलाता है
वह भद्दा असुंदर नग्न होता है

जो नग्न होता है
वही नग्नता के लिए दुत्कारा जाता है
निर्वस्त्र होना नग्न होना नही होता
वस्त्रों आभूषणों से सजे लोग भी
नग्नता के लिए दुत्कारे जा सकते हैं।


हम खेतों से वादा करके आये हैं / मधु गर्ग

हम खेतों से वादा करके आये हैं
क्यारी में सपने बो के आये हैं

सरसों के पीले फूलों से
बगिया में पड़े झूलों से
गन्ने की मीठी गनेरियों से
रस से भरी भेलियों से
हम वादा करके आये हैं

हरे चने के साग से
चूल्हे में जलती आग से
सौंधी सिंकती रोटी से
वो छम छम करती छोटी से
हम वादा करके आये हैं

आंगन में पड़ी चरपैय्या से
खूंटे से रंभाती गैय्या से
दूध दही और मट्ठे से
हरी भरी घास के कट्ठे से
हम वादा करके आये हैं

अपने खेतों की मिट्टी से
सरहद से आई चिट्ठी से
गिद्धों की की नजर न पड़ने देंगे
ये तूफान है तिनकों से न टालें जायेंगे
हम वादा करके आये हैं

तुम्हारी कीलें, ये तार कंटीले
पक्के इरादों से हो जायेंगे ढीले
तानाशाह तुम अपनी सोचो
हम तो घास बन फिर उग आयेंगे
मिट्टी मिट्टी हर कोने में छा जायेंगे
हम खेतों से वादा करके आये हैं
क्यारी में सपने बो कर आये हैं ।



About Post Author