नवउदारवादी खेती प्रणाली : देशी विदेशी पूँजी के गठजोड़ का कब्ज़ा

मेहनतकश मज़दूर किसान होगा दिवालिया-3

मौजूदा आन्दोलन ने किसानों और जनता की बड़ी आबादी के बीच देशी–विदेशी पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ जुझारू संघर्ष के द्वारा एक अभूतपूर्व एकता को कायम किया है। इस आन्दोलन के पीछे छिपे संकट का सही मायने में समाधान हमारे सामने इस एकता को और भी व्यापक, गहरा और अटूट करने की चुनौती रखता है।…किसान सवाल और कृषि क़ानूनों पर विशेष लेख की समापन कड़ी

धारावाहिक तीसरी व अंतिम किस्त-

धारावाहिक पहली किस्त

जहाँ आज़ादी के बाद से ही भारतीय कृषि क्षेत्र अमरीकी प्रभाव व दबाव में विकसित हुआ, हरित क्रांति के दौर में यह निर्भरता तकनीक और खाद-रसायन के आयात पर ज्यादा आधारित थी। ’91 पूर्व उदारीकरण के दौर में यह साम्राज्यवादी हित जबरन भारतीय बाज़ार को विदेशी कृषि उत्पाद के लिए खोलने द्वारा पूरा किया गया। नवउदारवादी आर्थिक सोच खेती के संकट का समाधान खेती के बढ़ते तकनीकीकरण और केन्द्रीकरण में देखती है।

नव उदारवाद के दौर में उत्पादन व वितरण की प्रक्रिया को पूरी तरह कॉर्पोरेटों के नियंत्रण में ला कर इस अजेंडे को आगे बढ़ाया जा रहा है। सरकार द्वारा लाये गए 3 कृषि अधिनियम इसी सोच को और कठोरता से लागू करने का एक प्रयास हैं। इन कानूनों के अलावा मोदी सरकार ने 2023-24 तक 10,000 किसान उत्पादक संगठनों का निर्माण करने की नीति भी ली है।

धारावाहिक दूसरी किस्त

कृषि कानूनों के तीन प्रमुख पहलू

इन कृषि कानूनों के तीन प्रमुख पहलू- 1. ठेका खेती को केन्द्रीय स्तर पर लागू करना, 2. कृषि उत्पाद की खरीददारी में निजी खरीदारों को प्रोत्साहन और प्रमुखता देना व 3. आवश्यक वस्तुओं, अनाज व अन्य कृषि उत्पादों की जमाखोरी पर पाबंदी हटाना – सीधे तौर से कृषि के तीन प्रमुख पहलुओं: उत्पादन, बिक्री और उपभोग के मौजूदा तरीके को नवउदारवादी पद्धति के अनुकूल बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं। इस नवउदारवादी खेती प्रणाली का सभी मेहनतकश किसानों और मज़दूरों पर भयावह असर पड़ेगा।

तकनीकी विकास और पूँजी का हित

तकनीकी विकास के साथ आज सभी क्षेत्रों में उत्पादन प्रणाली में मूलभूत परिवर्तन आ रहे हैं। बढ़ते मोबाइल व इन्टरनेट आधारित संपर्क के विकास के साथ जानकारी (डाटा) का केन्द्रीयकरण और इसपर आधारित हो कर तकनीक, उत्पादन प्रक्रिया और पूँजी का केन्द्रीयकरण अंतर्राष्ट्रीय पूँजीवादी व्यवस्था में कई परिवर्तन ला रहा है।

इस पूरी जानकारी और तकनीकी विकास पर कुछ मुट्ठीभर कंपनियों का मालिकाना है, जो इसका इस्तेमाल अपने मुनाफ़े और सामाजिक वर्चस्व को बढ़ाने के लिए कर रही हैं।

वहीँ भारत जैसे विकासशील देशों के व्यापक प्राकृतिक संसाधन, श्रमबल और बाज़ार पर कब्ज़ा बनाने के लिए एक ओर अंतर्राष्ट्रीय पूँजी लगातार ऐसे देशों की सरकारों पर विदेशी निवेश को बढ़ावा देने व उनकी मंडी में विदेशी माल की बिक्री पर रोक हटाने का दबाव डाल रही है। दूसरी ओर इन देशों में स्थित बड़े पूँजीपतियों के साथ गठजोड़ में यहाँ अपने कारोबार बढ़ा रही हैं और किसानों को पूरी तरह अपना गुलाम बना रही है और उनका दिवालिया निकाल रही है।

उत्पादन प्रक्रिया का शेयर बाज़ार से जोड़ा जाना पूँजी निवेश के लिए एक जगह से हट कर दूसरी जगह जाने को बहुत आसन बना चुका है। शेयर बाज़ार में होने वाली सट्टेबाजी असल उत्पादकों की लागत और आमदनी से पूरी तरह बेपरवाह हो कर वस्तुओं के दामों में उतार चढ़ाव को जन्म देती है। ऐसे में उत्पादक एक तरफ लगातार अनिश्चित दामों के शिकार होते हैं और दूसरी ओर अपने मुनाफ़े का बड़ा हिस्सा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हांथों खो बैठते हैं।

खेती में इससे जुड़ी दूसरी समस्या है कि अमरीका और यूरोप के देश एक ओर अपने किसानों को भारी सब्सिडी देते हैं और दूसरी ओर भारत जैसे विकासशील देशों की सरकारों पर अपने किसानों से सभी सब्सिडी वापस लेने का दबाव डालते हैं, जिससे विकाशील देशों के किसानों के लिए अंतर्राष्ट्रीय मंडी में विकसित देशों के किसानों का मुकाबला करना असंभव हो जाता है।

बेरोजगारी

इस उत्पादन प्रणाली का दूसरा सबसे बड़ा सामाजिक पहलू बेरोज़गारी से जुड़ा है।

विदेशी निवेश की अगवाई में हुए औद्योगिक विकास ने औद्योगिक उत्पादन के एक हिस्से में तेज़ी से औटोमेशन किया है। इसने एक ओर मज़दूरों पर काम के बोझ को अमानवीय हद तक बढ़ाया है और वहीँ एक बड़ी आबादी को असंगठित रोज़गार व बेरोज़गारी की गर्द में धकेल दिया है। औद्योगिक संबंधों को इस उत्पादन प्रणाली के अनुकूल बदल कर नीतिगत तरीके से और भी असुरक्षित रोज़गार की ओर धकेला गया है।

नवाउदारवादी नीतियों का कैसे हो रहा है अंबनियों को लाभ

देशी विदेशी पूँजीपतियों के हित में नवउदारवादी पुनर्गठन की यही योजना आज खेती में लागू की जा रही है। इस परिकल्पना का सबसे बेहतरीन उदाहरण मुकेश अंबानी के कारोबारों से मिलता है, जो सरकार और वैश्विक बड़ी पूँजी के साथ सांठ गाँठ में अब कृषि और कृषि उद्योग के क्षेत्र में एकाधिकार बनने की दिशा में काम कर रहा है।

एक समय कपड़े का व्यापार करने वाले अंबानी ने दावा किया है की रिलायंस कंपनी खाद्य श्रृंखला में “खेत से निवाले” तक की पूरी प्रक्रिया पर अपना व्यापार फैलाना चाहती है। मात्र 2006 में ही कृषि उद्योग में प्रवेश करने के बावजूद आज रिलायंस का इस बाज़ार के 90% कारोबार पर कब्ज़ा बन चुका है। 2016 में शुरू हो कर रिलायंस जियो 2019 तक देश का सबसे बड़ी टेलेफोन कंपनी बन चुकी थी और एक समय तक मुफ्त इंटरनेट दे कर जनता की बड़ी आबादी को इस संचार प्रणाली से जोड़ दिया।

2019 में ही इसने ऑनलाइन सब्ज़ी व्यापार के लिए जियो मार्ट शुरू किया और इसी दौर में फेसबुक के साथ साझेदारी करके फेसबुक और व्हाट्सएप्प से मिलने वाली सारी जानकारी को भी इस्तेमाल करने के रास्ते खोल दिए। अब जिओ कृषि एप्प के तहत व्हाट्सएप्प और फेसबुक के माध्यम से किसानों तक पहुँच कर वे उन्हें जानकारी सम्बंधित नयी सेवाएँ प्रदान करेंगे जिसमें क्या फसल कब बोनी चाहिए, क्या खाद कब डालना चाहिए, कब फसल को काटना है इत्यादि शामिल होंगे।

दूसरी ओर रिलायंस का दावा है कि वह जिओमार्ट के तहत मात्र 12 घंटों में खेत से प्लेट तक खाना पहुंचाएंगा  और यह करने के लिए मंडी में सब्ज़ियों के उपभोग का 50% हिस्सा वे ख़रीद लेगा, जिसमे से 77% फल और सब्जियां वह पहले से ही सीधा किसानों से ख़रीद रहा है। दूसरी ओर रिलायंस माइक्रोसॉफ्ट, एस्कॉर्ट और बोश जैसे ट्रेक्टर और सॉफ्टवेर कंपनियों के साथ मिल कर एक छोटे स्वचालित ट्रेक्टर का उत्पादन भी शुरू कर दिया है जो अब 65 हज़ार हेकटर ज़मीन पर बोआई, जोताई और कीटनाशक व खाद छिड़कने के लिए इस्तेमाल किया जा चुका है।

कृषि में ‘विकास’ की वैकल्पिक राह की तलाश…

पिछले कुछ दशकों में खेती में बढ़ते संकट के साथ किसानों के आन्दोलन भी विकसित हुए हैं। मौजूदा आन्दोलन इस कड़ी में सबसे तीखे वार के ख़िलाफ़ सबसे तीखे प्रतिरोध की आवाज़ है। सरकार द्वारा लाये गए तीन काले कानूनों को रद्द करना व न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी अधिकार के रूप में सुनिश्चित करना वर्तमान आन्दोलन की मुख्य माँगें हैं।

इसके अतिरिक्त, किसान आंदोलनों की मांगों में कर्ज़ा माफ़ी, मंडियों का विस्तार, बिजली और पेट्रोल पर सब्सिडी इत्यादि मांगे महत्वपूर्ण रही हैं।

जहाँ यह माँगें हरित क्रांति के प्रणाली के तहत किसानों द्वारा झेली जा रही समस्याओं को आसान करने की नज़र से उठायी जाती हैं, वहीँ यह भी साफ़ हो चुका है कि हरित क्रांति का मॉडल ही स्वयं इन समस्याओं का जड़ है। किसानों की बड़ी आबादी को सही मायनों में राहत दिलाने के लिए मात्र ‘हरित क्रांति’ की यथास्थिति को वापस कायम कर देना कोई लम्बे समय का विकल्प नहीं हो सकता।

कृषि संकट का अंत, किसानों की बड़ी आबादी के लिए स्वस्थ और सम्मानजनक ज़िन्दगी, जनता के लिए खाद्य सुरक्षा और उचित पोषण, व देश के प्राकृतिक संसाधनों — भूमि, जल, वायु और पर्यावरण की हिफाज़त यह सभी हमारी प्रमुख ज़रूरतों में से हैं। कानूनों को रद्द करने के संघर्ष के तहत ही इन सवालों पर भी अपनी राय बनाना, इन उद्देश्यों को नज़र में रख कर माँगें उठाना आज भारत में परिवेशसांगत, स्थायी कृषि प्रणाली के विकास और किसानों की बड़ी आबादी को बर्बादी से बचाने की मूलभूत शर्त है।

मौजूदा संकट के उपचार के लिए देशी-विदेशी पूँजीवादी व्यवस्था और उनकी दलाल सरकार अपनी दवा पहले ही सुझा चुकी है – अर्थात नव हरित क्रांति, जिसके तहत हरित क्रांति की तकनीकें और नीतियां हीं और भी ज़ोरदार तरीके से लागू की जाएंगी। जहाँ इस नीति के विनाशपूर्ण परिणाम भारतीय किसान भली भाँती समझ चुके हैं, वहीँ दुनिया के विभिन्न अन्य विकासशील देश जैसे पेरू, मेक्सिको इत्यादि जहाँ ऐसी नवउदारवादी खेती प्रणाली पहले ही लागू की जा चुकी है, वहां के हालात भी हमें खेती की वैकल्पिक प्रणाली के बारे में और गहराई से सोचने को मजबूर करते हैं।

साथ ही भारत की विशेष परिस्थितियां, जहाँ किसानों की 80% से ज्यादा आबादी सीमांत, छोटे और मझौले किसानों से बनी है हमारे सामने अपनी विशेष चुनौतियाँ रखती हैं। किसान परिवारों के बच्चों के भविष्य के लिए खेती के बाहर सुरक्षित रोज़गार का उपलब्ध होना, कृषि प्रणाली में परिवर्तन को कृषि उद्योग, औद्योगिक उत्पादन और अन्य क्षेत्रों में भी विकास के ढाँचे के साथ जोड़ता है।

हमारे अब तक के अनुभवों का निष्कर्ष साफ़ है, कि एक असंतुलित और असमान्तापूर्ण विकास की परिकल्पना में किसानों के बड़े हिस्से का दीर्घकालीन विकास नहीं हो सकता।

असल में होना क्या चाहिए

खाद्य पदार्थों और इससे पैदा होने वाले मूल्य का बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के मुनाफ़े में ना जुड़ कर जनता में इसका समानतापूर्ण वितरण, मेहनतकश किसानों के श्रम का सही और पूरा मूल्य उन्हें मुहैय्या होना, सरकारी संसाधनों के तहत खाद्यान्न और पूरे समाज के लिए उपयोगी कृषि उत्पादन करने वाले किसानों के लिए ब्याजमुक्त क़र्ज़ और अन्य सब्सिडी उपलब्ध कराना अहम है।

साथ ही समानतापूर्ण आधार पर सीमांत, छोटे और मझौले किसानों द्वारा सामूहिक खेती को प्रोत्साहन देना, सरकारी निवेश से कृषि के क्षेत्र में अनुसंधान करके हमारे देशी फसलों की विभिन्नता, पोषण की ज़रूरतों और प्राकृतिक संतुलन को नज़र में रखते हुए बीज, खाद, तकनीक इत्यादि को विकसित करना – यह एक समतापूर्ण और परिवेशसंगत वैकल्पिक खेती प्रणाली के कुछ बुनियादी आधार हैं।

मेहनतकश की एकता को और व्यापक, गहरा और अटूट करना होगा!

खाद्यान्न का उत्पादन व खेती किसी भी समाज की मूलभूत ज़रुरत है। कोई समाज अपने खाद्यान कैसे मुहैय्या करता है, यह पूरे समाज और इसके सभी सामजिक संबंधों को प्रभावित करता है।

उदारवादी–नवउदारवादी खेती प्रणाली के खिलाफ खेती की एक वैकल्पिक प्रणाली की माँग उठाने का सामाजिक आधार केवल मेहनतकश किसानों, मज़दूरों और जनता के बड़े हिस्से की चट्टानी एकता ही हो सकती है।

मौजूदा आन्दोलन ने किसानों और जनता की बड़ी आबादी के बीच देशी–विदेशी पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ जुझारू संघर्ष के द्वारा एक अभूतपूर्व एकता को कायम किया है। इस आन्दोलन के पीछे छिपे संकट का सही मायने में समाधान हमारे सामने इस एकता को और भी व्यापक, गहरा और अटूट करने की चुनौती रखता है।

समाप्त।

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