इस सप्ताह : सुप्रीम कोर्ट की कमेटी और किसानों का जलसा !

“चार कौवे उर्फ चार हौवे” / भवानी प्रसाद मिश्र

(देश की सर्वोच्च अदालत ने ‘किसानों के भले के लिए’ कमेटी का ऐलान करने पर प्रतिक्रिया में यह कविता…)

बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले,
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़े, रुकें, खायें और गायें
वे जिसको त्यौहार कहें सब उसे मनाएं

कभी कभी जादू हो जाता दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गये.

हंस मोर चातक गौरैये किस गिनती में
हाथ बांध कर खड़े हो गये सब विनती में
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें
पिऊ-पिऊ को छोड़े कौए-कौए गायें

बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुट्भैयों को
कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आए उनके जी में

उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने वाले सिर्फ़ रह गए बैठे ठाले
आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं, चार कौओं का दिन है

उत्सुकता जग जाए तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना ?


बहेलिया / स्वप्निल श्रीवास्तव

आजकल एक बहेलिया पक्षियों को
पाल रहा है
उसने अपना जाल किनारे रख
दिया है

लोग हैरत में है कि बहेलिया
कैसे अहिंसक हो गया है

वह पक्षियों को कभी हथेली पर
और कभी कंधे पर बैठा कर
अपना खेल दिखाता है

वह पक्षियों को सोने के दाने
खिलाता है
इस लोभ में बहुत से पक्षी
उसके आंगन में उतरने लगे हैं

यह हमारे समय का सबसे आश्चर्यजनक
दृश्य है

क्या बहेलिए का ह्र्दयपरिवर्तन हो
गया है ?

यह सवाल मैंने एक पुराने बहेलिए
से पूंछा
उसने मुझे बताया कि बहेलिए
के आदतों में कोई परिवर्तन
नही हुआ है

बस उसने अपनी रणनीति बदल
दी है


नया विधान / हूबनाथ

शेर
जंगल का राजा है
जैसे ही उसे अहसास हुआ
अपने राजापन का
उसने तुरंत बनाया
एक नया कानून
लोमड़ी ने कहा था
जो कानून न बना पाए
वो कैसा राजा
कानून बना
मवेशियों के लिए
कि उनके दूध पर
पहला अधिकार होगा
सिर्फ़ भेड़ियों का
उसके बाद
बचे दूध का उपयोग
अपनी मनमर्जी
कर सकते हैं मवेशी
क्योंकि
जंगल में अब लोकतंत्र है
सभी को पूरी आज़ादी है
पर भेड़ियों को पहले
मवेशियों ने ऐतराज़ किया
भेड़िए
सिर्फ़ दूध नहीं पिएंगे
थन भी चबा जाएंगे
मवेशी बैठ गए धरने पर
एक ही ज़िद
एक ही मांग
कानून वापस लो
भेड़ियों को नाराज़ करना
शेर की औक़ात के बाहर
शेर ने बनाई समिति
गीदड़ सियार लोमड़ी
और लकड़बग्घे की
शेर की निष्पक्षता पर
चीते ने बधाइयां दीं
बाघ ने सम्मति
तेंदुए ने सहयोग
जंगल के बाकी जानवर
मुत्मइन थे
कि यह कानून लागू होगा
सिर्फ़ मवेशियों पर
और उनकी मासूमियत पर
मुस्कुरा रहा था
शेर

(इस कथा का संबंध सिर्फ़ जंगल और जानवरों से है यदि मनुष्यों से कोई समानता हो तो इसे निरा संयोग माना जाय।)


ये मेला है / सुरजीत पात्तर

जहाँ तक नज़र जाती
और जहाँ तक नहीं जाती है
इसमें लोक शामिल हैं
इसमें लोक और सुर-लोक और तिरलोक शामिल हैं
ये मेला है

इसमें धरती शामिल, पेड़, पानी, पवन शामिल हैं
इसमें हँसी, आँसू, और हमारे गान शामिल हैं
और तुम्हें कुछ पता ही नहीं
इसमें कौन शामिल है!

इसमें पुरखों का दमकता इतिहास शामिल है
इसमें लोक-मन का रचा मिथहास शामिल है
इसमें धुन हमारी सब्र और आस शामिल है
इसमें सबद, सुरति, ध्वनि और अरदास शामिल है
और तुम्हें कुछ पता ही नहीं!

इसमें वर्तमान, अतीत संग भविष्य शामिल है
इसमें हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध, जैन और सिक्ख शामिल है
बहुत कुछ दिख रहा और कितना अदृश्य शामिल है
ये मेला है

ये है एक लहर भी, संघर्ष भी पर जशन भी तो है
इसमें रोष हमारा, दर्द हमारा, टशन भी तो है
जो पूछेगा कभी इतिहास तुमसे, प्रशन भी तो है
और तुम्हें कुछ पता ही नहीं
इसमें कौन शामिल हैं!

नहीं ये भीड़ कोई, ये तो रूहदारों की संगत है
ये गतिमान वाक्य का अर्थ है, शब्दों की पंगत है
ये शोभा-यात्रा से अलग ही है यात्रा कोई
गुरुओं की दीक्षा पर चल रहा है काफ़िला कोई
ये मैं को छोड़ हम, हमलोग होता जा रहा कोई
इसमें मुद्दतों से सीखे-समझे सबक शामिल हैं
इसमें सूफ़ियों फक्करों के चौदह तबक़ शामिल हैं

तुम्हें एक बात सुनाता हूँ, बहुत मासूम और मनमोहनी
हमें कहने लगी कल एक दिल्ली की बेटी सलोनी
तुम जब लौट जाओगे, यहाँ रौनक़ नहीं होगी
ट्रैफिक तो बहुत होगी मगर संगत नहीं होगी
ये लंगर छक रही और बाँटती पंगत नहीं होगी
घरों को दौड़ते लोगों में यह रंगत नहीं होगी
फिर हम क्या करेंगे
तो हमारी आँखें नम हो गयीं
ये कैसा स्नेह नया है
ये मेला है

घरों को लौटो तुम, राजी खुशी, है ये दुआ मेरी
तुम जीतो सच की ये बाजी, है ये दुआ मेरी
तुम लौटो तो धरती के लिए नयी तक़दीर होकर अब
नये एहसास, ताज़ा सोच और तदबीर होकर अब
मोहब्बत, सादगी, अपनत्व की तासीर होकर अब
ये इच्छराँ माँ और पुत्तर पूरन के मिलने की बेला है
ये मेला है
जहाँ तक नज़र जाती है
और जहाँ तक नहीं जाती
इसमें लोक शामिल हैं
इसमें लोक और सुर-लोक और तिरलोक शामिल हैं
ये मेला है

इसमें धरती शामिल, पेड़, पानी, पवन शामिल हैं
इसमें हँसी, आँसू और हमारे गान शामिल हैं
और तुम्हें कुछ पता ही नहीं
इसमें कौन शामिल है
ये मेला है।

(पंजाबी के जाने माने कवि सुरजीत पात्तर की कविता का हिंदी अनुवाद परमानन्द शास्त्री ने किया है)


ये फ़स्ल उमीदों की हमदम / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

सब काट दो
बिस्मिल पौदों को
बे-आब सिसकते मत छोड़ो
सब नोच लो
बेकल फूलों को
शाख़ों पे बिलकते मत छोड़ो

ये फ़स्ल उमीदों की हमदम
इस बार भी ग़ारत जाएगी
सब मेहनत सुब्हों शामों की
अब के भी अकारत जाएगी

खेती के कोनों-खुदरों में
फिर अपने लहू की खाद भरो
फिर मिट्टी सींचो अश्कों से
फिर अगली रुत की फ़िक्र करो

फिर अगली रुत की फ़िक्र करो
जब फिर इक बार उजड़ना है
इक फ़स्ल पकी तो भरपाया
जब तक तो यही कुछ करना है


किसानों की पुकार / फिराक गोरखपुरी

चालाकी में धौंस-धाँस में
दलालों की फोड़-फाँस में
फुसलाने में बहलाने में
डराने में या धमकाने में
लुट्टस-पिट्टस की हलचल में
धन्ना सेठ के छल, बल, कल में
चतुर किसान नहीं आयेगा
वो अपना हिस्सा अपना हक
लेके रहेगा, लेके रहेगा
जीके रहेगा, मरके रहेगा
लेकिन अब कुछ करके रहेगा।



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