इस सप्ताह : किसानों की जीवटता को समर्पित कविताएँ !

किसान / मैथलीशरण गुप्त

हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है

हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ

आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा

देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे

घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा

तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है

तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है

मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है


हरित क्रांति / धूमिल

इतनी हरियाली के बावजूद
अर्जुन को नहीं मालूम उसके गालों की हड्डी क्यों
उभर आई है । उसके बाल
सफ़ेद क्यों हो गए हैं ।
लोहे की छोटी-सी दुकान में बैठा हुआ आदमी
सोना और इतने बड़े खेत में खड़ा आदमी
मिट्टी क्यों हो गया है ।


मैं किसान हूँ / रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा


किसान / हूबनाथ

तुम महान हो
भारत भाग्य विधाता हो
उन्नति और समृद्ध के
भव्य महल की नींव के पत्थर हो
कसमसाओ मत
शिखर डगमगा जाएगा

नींव की गहराई में ही
अपने बच्चों के लिए भी जगह बनाओ
महल की नींव पुख्ता होनी चाहिए
तुम्हें तो गर्व होना चाहिए
कि तुम्हारी वजह से ही शहरों की रौनक है
नेताओं की जवानी
अभिनेत्रियों की चमक
अभिनेताओं की जवाँमर्दी
गुंडों का साहस
पुलिस की बहादुरी
खिलाड़ियों का जोश
विद्वानों के होश
तुम्हारी ही मेहनत का नतीजा हैं
तिरंगे के सारे रंगों की चमक
तुम्हारे ही दम पर है

क्या हुआ जो तुम्हारा तन पूरी तरह ढक नहीं पाता
नहीं मिल पाती दो वक्त की रोटियाँ
गंदा पानी पीने से भी
रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है
कर्ज में डूबे दो-चार मर भी गए
तो क्या हुआ
आत्मा तो अमर है
तो फिर कहीं
किसी न किसी किसान के घर जन्मेगी
अतः रूठने की जरूरत नहीं
अपनी नजर हल-बैल
हल के फाल पर ही रखो
यूँ भी हम तुम्हें कुछ कम नहीं देते
बिजली ना सही
पर टीवी, फ्रिज, मोबाइल तो है
खुशबूदार साबुन
पौष्टिक बिस्किट, चॉकलेट, जैम
ठंडा, गरम, जींस, जूते, बाइक के साथ
नयी-नयी हीरोइनें, आकर्षक अभिनेता
खूबसूरत खिलाड़ी, हाईटेक नेता
क्या नहीं है तुम्हारे पास

खुद को पहचानो
अपनी ताक़त को तौलो
और वहीं नींव में पड़े रहो
कसमसाओ मत
शिखर डगमगा जाएगा!


पैतृक संपत्ति / केदारनाथ अग्रवाल

जब बाप मरा तब यह पाया
भूखे किसान के बेटे ने:
घर का मलवा, टूटी खटिया,
कुछ हाथ भूमि – वह भी परती.

चमरौधे जूते का तल्ला,
छोटी, टूटी, बुढ़िया औगी
दरकी गोस्सी, बहता हुक्का,
लोहे की पत्ती का चिमटा.

कंचन सुमेरू का प्रतियोगी
द्वारे का पर्वत घूरे का,
बनिया के रुपयों का कर्जा
जो नहीं चुकाने पर चुकता.

दीमक, गोजर, मच्छर, माटा-
ऐसे हजार सब सहवासी.
बस यही नहीं, जो भूख मिली
सौगुनी बाप से अधिक मिली.

अब पेट खलाये फिरता है.
चौड़ा मुंह बाए फिरता है.
वह क्या जाने आजादी क्या?
आजाद देश की बातें क्या?


देश के लिए कोई सत्ताधीश नहीं मरता / अनिल कुमार ‘अलीन’

देश के लिए कोई सत्ताधीश नहीं;
या तो सीमाओं पर जवान मरता है
या सीमाओं में किसान मरता है।
सुना हूँ जब बुड्ढा बाप
अपने जमीन की रक्षा के लिए
पूँजीपत्तियों और सत्ताधीशों से लड़ रहा था,
ठीक उसी समय उसका जवान बेटा
मातृ भूमि की रक्षा के लिए
सरहद पर शहीद हो गया।
देश के लिए कोई सत्ताधीश नहीं;
या तो सीमाओं पर जवान मरता है
या सीमाओं में किसान मरता है।
मैंने मरते देखा है
दुश्मनों से सीमाओं की रक्षा करते हुए
जवानों को
या मैंने मरते देखा है
पूँजीपत्तियों से जमीनों की रक्षा करते हुए
किसानों को।

देश के लिए कोई सत्ताधीश नहीं;
या तो सीमाओं पर जवान मरता है
या सीमाओं में किसान मरता है।
मैंने देखा है
जिस वक़्त जवानी
बुड्ढी हड्डियों पर लाठियाँ बरसा रही थी
ठीक उसी समय
सलामती की दुआएँ दे रही थी
बुड्ढी साँसें जवान धड़कनों को।
देश के लिए कोई सत्ताधीश नहीं;
या तो सीमाओं पर जवान मरता है
या सीमाओं में किसान मरता है।
मैंने देखा है
अपने फ़र्ज़ के लिए
सत्ताधीशों के आदेश पर
बेकसूर किसानों पर जवानों को
टूटते हुए
और मैनें देखा है
उन्हीं जवानों को
रोटियाँ खिलाते किसानों को।


हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते / पाश

हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
जिस तरह हमारे बाजुओं में मछलियाँ हैं,
जिस तरह बैलों की पीठ पर उभरे
सोटियों के निशान हैं,
जिस तरह कर्ज़ के काग़ज़ों में
हमारा सहमा और सिकुड़ा भविष्‍य है
हम ज़िन्दगी, बराबरी या कुछ भी और
इसी तरह सचमुच का चाहते हैं
हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
और हम सब कुछ सचमुच का देखना चाहते हैं
ज़िन्दगी, समाजवाद, या कुछ भी और…



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